February 2, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 32 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ बत्तीसवाँ अध्याय पञ्चदेवोपासकों के नरक में न जाने का कथन सावित्री ने कहा — महाभाग धर्मराज ! आप वेद एवं वेदाङ्ग के पारगामी विद्वान् हैं। जो सबका सारभूत, अभीष्ट, सर्व-सम्मत, कर्म का उच्छेद करने में कारणभूत, परम श्रेष्ठ, मनुष्यों के लिये सुखदायी, यशोवर्द्धक, धर्मप्रद तथा सबको सब प्रकार का मङ्गल प्रदान करने वाला है, जिसके प्रभाव से सम्पूर्ण मानव जगत् को दुःख देने वाली यम यातना को नहीं प्राप्त होते, नरक-कुण्डों को नहीं देखते और न उनमें पड़ते ही हैं; तथा जिससे जन्म आदि विकार नहीं प्राप्त होते, वह उत्तम कर्म क्या है ? सुव्रत ! यह बताने की कृपा करें। साथ ही उन कुण्डों के आकार कैसे हैं, वे किस प्रकार बने हैं तथा कौन-से पापी किस रूप से उनमें वास करते हैं — यह मैं सुनना चाहती हूँ । देह अग्नि में भस्म हो जाने के पश्चात् मानव किस देह से लोकान्तरों में जाता और अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मों के फल भोगता है ? अत्यन्त क्लेश पाने पर भी वह शरीर नष्ट क्यों नहीं हो जाता तथा वह शरीर भी कैसा है ? ये सभी बातें मुझे बताने की कृपा करें। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! सावित्री के वचन सुनकर धर्मराज ने भगवान् श्रीहरि को स्मरण करते हुए गुरु को नमस्कार कर पवित्र कथा आरम्भ की। धर्मराज बोले — वत्से ! पतिव्रते ! सुव्रते ! चारों वेद, धर्मशास्त्र, संहिता, पुराण, इतिहास, पाञ्चरात्र प्रभृति धर्मग्रन्थ तथा अन्य धर्मशास्त्र एवं वेदाङ्ग — इन सबमें एक श्रीकृष्ण की मङ्गलमयी सेवा को ही सबके लिये अभीष्ट एवं सारभूत बतलाया गया है। इससे जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि तथा शोक-संताप नष्ट हो जाते हैं । यह साधन सर्वमङ्गल रूप तथा परम आनन्द का कारण है । इससे सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । यह नरक से प्राणी का उद्धार करने वाला है। भक्तिरूपी वृक्ष में अङ्कुर उत्पन्न करने वाला तथा कर्मरूपी वृक्ष को काटने वाला है । गोलोक के मार्ग पर अग्रसर होने के लिये यह सोपान है । भगवान् के सालोक्य, साष्र्ष्टि, सारूप्य और सामीप्य आदि मोक्ष को तथा अविनाशी एवं शुभ पद को प्रदान करने वाला है । शुभे ! श्रीकृष्ण के किङ्कर नरककुण्ड, यमदूत तथा यमराज को स्वप्न में भी नहीं देखते हैं । जो एकादशी का व्रत तथा वैष्णवतीर्थ में स्नान करते हैं, एकादशी को अन्न नहीं खाते और भगवान् श्रीहरि को नित्य प्रणाम करते एवं उनकी प्रतिमा की पूजा करते हैं, उन्हें भी मेरी भयंकर संयमनीपुरी में नहीं जाना पड़ता । भगवान् श्रीकृष्ण के भक्तों से मेरे दूत इस प्रकार डरते हैं, जैसे गरुड़ से सर्प । मेरा दूत जब हाथ में पाश लेकर मर्त्यलोक की ओर जाता है, तब मैं चेतावनी देते हुए उससे कहता हूँ — ‘दूत ! तुम भगवान् विष्णुके भक्तका आश्रम छोड़कर और सब जगह जा सकोगे ।’ श्रीकृष्ण-मन्त्र के उपासकों के नाम भी यमलोकवासियों को काट खाते हैं । चित्रगुप्त भयभीत – से हो दोनों हाथ जोड़कर उनका स्वागत करते हैं । ब्रह्माजी उनके लिये मधुपर्क आदि निवेदन करते हैं; क्योंकि वे ब्रह्मलोक को लाँघकर गोलोक में जाने वाले होते हैं। उनके स्पर्शमात्र से प्राणियों के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। ठीक उसी तरह, जैसे प्रज्वलित अग्नि में पड़कर तृण और काष्ठ भस्म हो जाते हैं। उन्हें देखकर मोह भी अत्यन्त भयभीत- सा होकर सम्मोह को प्राप्त होता है। काम, क्रोध, लोभ, मृत्यु, जरा, शोक, भय, काल, शुभाशुभ कर्म, हर्ष तथा भोग – ये सभी हरिभक्तों को देखकर प्रभावशून्य हो जाते हैं। पतिव्रते! जो यमयातना में नहीं पड़ते, उनका परिचय दिया गया। अब आगम के अनुसार देह का विवरण बता रहा हूँ, सुनो। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश — ये पाँच तत्त्व स्रष्टा के सृष्टि-विधान में देहधारियों की देह के बीज (उपादान कारण) हैं। पृथ्वी आदि पाँच भूतों से जो देह निर्मित होता है, वह कृत्रिम है । अतएव नश्वर है । इसीलिये वह यहीं भस्म हो जाता है। बँधी हुई मुट्ठी में अँगूठे की जितनी लम्बाई होती है, उतना ही बड़ा जो पुरुषाकार जीव है, वही कर्मों के भोग के लिये सूक्ष्म ‘यातनादेह’ को धारण करता है । वह देह मेरे लोक में नरक की प्रज्वलित आग में डाली जाने पर भी जलकर भस्म नहीं होती । जल में भी गलती नहीं है। दीर्घकाल तक घातक प्रहार करने पर भी उसका नाश नहीं होता है। अस्त्र, शस्त्र, तीखे कण्टक, खौलते हुए तेल या जल, तपाये हुए लौह, गरम पत्थर तथा तपाकर लाल की हुई लोहे की प्रतिमा से स्पर्श होने पर और ऊँचे से नीचे गिरने पर भी वह यातना — शरीर न तो दग्ध होता है, न टेढ़ा-मेढ़ा ही होता है । केवल संताप भोगता है ( पर नष्ट नहीं होता) । देवि ! आगमों के कथनानुसार (जलने कटने आदि का भीषण दुःख सहते हुए भी न मरने वाले) यातना – देह का सारा वृत्तान्त तथा कारण बताया गया। अब मैं तुमसे नरक- कुण्डों के लक्षण बता रहा हूँ; सुनो । (अध्याय ३२) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे सावित्र्युपाख्याने द्वात्रिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ३२ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Related