February 7, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 50 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ पचासवाँ अध्याय राजा सुयज्ञ की यज्ञशीलता और उन्हें ब्राह्मण के शाप की प्राप्ति पार्वती ने पूछा — प्रभो ! राजा सुयज्ञ कौन थे? किस वंश में उनका जन्म हुआ था ? उन्हें ब्राह्मण का शाप कैसे प्राप्त हुआ था और किस तरह श्रीराधाजी को वे पा सके ? जो सर्वात्मा श्रीकृष्ण की पत्नी हैं तथा साक्षात् श्रीकृष्ण ने जिनका पूजन किया है, उन्हीं परमेश्वरी श्रीराधा की सेवा का सौभाग्य एक मल-मूत्रधारी मनुष्य को कैसे मिल सका ? जिनके चरणारविन्दों की रज को पाने के लिये ब्रह्माजी ने पूर्वकाल में पुष्करतीर्थ के भीतर साठ हजार वर्षों तक तप किया तथा जिनका दर्शन पाना आपके लिये भी अत्यन्त कठिन है, उन्हीं पुरातनी महालक्ष्मी श्रीराधादेवी का दर्शन राजा सुयज्ञ ने कैसे किया ? वे मनुष्यों के दृष्टिपथ में कैसे आयीं ? तीनों लोकों के स्रष्टा ब्रह्मा ने राजा सुयज्ञ को श्रीराधा का कवच किस प्रकार दिया ? उनके ध्यान, पूजन-विधि तथा स्तोत्र का उपदेश कैसे दिया ? यह सब बताने की कृपा कीजिये । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय श्रीमहादेवजी बोले — देवि ! चौदह मनुओं में जो सबसे प्रथम हैं, उन्हें स्वायम्भुव मनु कहते हैं । वे ब्रह्माजी के पुत्र और तपस्वी कहे गये हैं । उन्होंने शतरूपा से विवाह किया था । मनु और शतरूपा के पुत्र उत्तानपाद हुए। उत्तानपाद के पुत्र केवल ध्रुव हैं। गिरिराजनन्दिनि ! ध्रुव की कीर्ति तीनों लोकों में विख्यात है । ध्रुव के पुत्र उत्कल हुए, जो भगवान् नारायण के अनन्य भक्त थे। उन्होंने पुष्कर-तीर्थ में एक हजार राजसूय यज्ञों का अनुष्ठान किया था, उस यज्ञ में सारे पात्र रत्नों के बने हुए थे। राजा ने बड़ी प्रसन्नता के साथ वे सब पात्र ब्राह्मणों को दान कर दिये थे । यज्ञान्त-महोत्सव में राजा ने बहुमूल्य वस्त्रों की सहस्रों राशियाँ जो तेजःपुञ्ज से उद्भासित होती थीं, ब्राह्मणों को बाँट दीं। प्रिये ! उस सुन्दर यज्ञ को देखकर ब्रह्माजी ने देवसभा में राजा उत्कल का नाम सुयज्ञ रख दिया। राजा सुयज्ञ अन्न, रत्न तथा सब प्रकार की सम्पत्तियों के दाता थे। वे प्रतिदिन प्रसन्नतापूर्वक उचित दक्षिणा के साथ ब्राह्मणों को दस-बारह लाख गौएँ दान में देते थे । उन गौओं के सींग रत्नों से मढ़े होते थे तथा दुग्धपात्र आदि सामग्री भी रत्नमयी ही होती थी । वे प्रतिदिन छः करोड़ ब्राह्मणों को भोजन कराया करते थे। उन्हें प्रतिदिन चूसने, चबाने, चाटने और पीने योग्य भोजन सामग्री देकर तृप्त करते थे । नित्य-प्रति एक लाख रसोइयों को भोजन दिया करते थे । पूआ, रोटी-चावल आदि अन्न, दाल आदि व्यञ्जन दही के साथ परोसे जाते थे। उस भोजन-सामग्री में मांस का सर्वथा अभाव होता था । ब्राह्मण लोग भोजन के समय मनुवंशी राजा सुयज्ञ की ही नहीं, उनके पितरों की भी स्तुति करते थे । सुन्दरि ! यज्ञ के दिनों में तथा उसकी समाप्ति के दिन कुल मिलाकर छत्तीस लाख करोड़ ब्राह्मणों ने अत्यन्त तृप्तिपूर्वक सु-अन्न भोजन किया था। उन्होंने दक्षिणा में इतने रत्न ग्रहण किये थे कि उन सबको अपने घर तक ढो ले जाना उनके लिये असम्भव हो गया था। कुछ तो उन्होंने शूद्रों को बाँट दिया और कुछ रास्ते में छोड़ दिया । ब्राह्मण-भोजन के अन्त में राजा ने ब्राह्मणेतरों को भी भोजन दिया तथापि वहाँ अन्न की सहस्रों राशियाँ शेष रह गयीं । इस प्रकार यज्ञ करके महाबाहु राजा सुयज्ञ अपनी राजसभा में रमणीय रत्न-सिंहासन पर बैठे हुए थे। वह सिंहासन रत्नेन्द्रसार से निर्मित अनेक छत्रों से सुशोभित था । उसे अच्छी तरह सजाया गया था। उसपर चन्दन आदि सुगन्धित वस्तुओं का लेप हुआ था। चन्दन-पल्लवों से उसकी रमणीयता और बढ़ गयी थी। वहाँ वसु, वासव, चन्द्रमा, इन्द्र, आदित्यगण, मुनिवर नारद तथा बड़े-बड़े देवता विराजमान थे। इसी समय वहाँ एक ब्राह्मण आया, जो रूखा और मलिन वस्त्र पहने था । उसके कण्ठ, ओठ और तालु सूखे हुए थे। उसने मुसकराते हुए हाथ जोड़कर रत्नसिंहासन पर बैठे हुए पुष्पमाला और चन्दन से चर्चित राजा को आशीर्वाद दिया । राजा ने भी ब्राह्मणको प्रणाम तो किया, किंतु वे अपने स्थान से उठे नहीं । उस सभा के सभासद् भी ब्राह्मण की ओर देखकर खड़े नहीं हुए। वे सभी थोड़ा-थोड़ा हँसते रहे। तब वह श्रेष्ठ ब्राह्मण मुनियों और देवताओं को नमस्कार करके निरङ्कुश-भाव से वहाँ खड़ा हो गया और क्रोधपूर्वक राजा को शाप देता हुआ बोला — ‘ ओ पामर ! तू इस राज्य से दूर चला जा, श्रीहीन हो जा तथा शीघ्र ही गलित कोढ़ से युक्त, बुद्धिहीन और उपद्रवों से ग्रस्त हो जा।’ ऐसा कहकर क्रोध से काँपता हुआ ब्राह्मण सभासदों को शाप देने के लिये उद्यत हो गया। जो लोग वहाँ हँसे थे, वे सब उठकर खड़े हो गये । उन सबने अपने दोष का परिहार कर लिया । अतः उनकी ओर से ब्राह्मण का क्रोध जाता रहा । राजा उस ब्राह्मण को प्रणाम करके भय से कातर हो रोने लगे । वे व्यथित-हृदय से सभा के बीच से बाहर निकले। तब गूढ़रूप वाले वे ब्राह्मण देवता भी ब्रह्मतेज से प्रकाशित होते हुए चल दिये । उनके पीछे-पीछे भय से कातर हुए समस्त मुनि भी चले और बारंबार उच्चस्वर से पुकारने लगे — ‘हे विप्र ! ठहरो, ठहरो।’ उन मुनियों के नाम इस प्रकार हैं — पुलह, पुलस्त्य, प्रचेता, भृगु, अङ्गिरा, मरीचि, कश्यप, वसिष्ठ, क्रतु, शुक्र, बृहस्पति, दुर्वासा, लोमश, गौतम, कणाद, कण्व, कात्यायन, कठ, पाणिनि, जाजलि, ऋष्यशृङ्ग, विभाण्डक, आपिशलि, तैत्तिलि, महातपस्वी मार्कण्डेय, वोढु, पैल, सनक, सनन्दन, सनातन, भगवान् सनत्कुमार, नर-नारायण ऋषि, पराशर, जरत्कारु, संवर्त, करथ, और्व, च्यवन, भरद्वाज, वाल्मीकि, अगस्त्य, अत्रि, उतथ्य, संवर्त, आस्तीक, आसुरि, शिलालि, लाङ्गलि, शाकल्य, शाकटायन, गर्ग, वात्स्य, पञ्चशिख, जमदग्नि, देवल, जैगीषव्य, वामदेव, बालखिल्य आदि, शक्ति, दक्ष, कर्दम, प्रस्कन्न, कपिल, विश्वामित्र, कौत्स ऋचीक और अघमर्षण – ये तथा और भी मुनि, पितर, अग्नि, हरिप्रिय, दिक्पाल तथा समस्त देवता भी ब्राह्मण के पीछे- पीछे चले। पार्वति ! उन नीतिविशारद मुनियों ने ब्राह्मण को समझाया, एक स्थान पर ठहराया और क्रमशः उनसे नीति की बातें कहीं। (अध्याय ५०) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादान्तर्गतहरगौरीसंवादे राधोपाख्याने सुयज्ञोपाख्यानं नाम पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५० ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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