ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 53
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
तिरपनवाँ अध्याय
सुतपा के द्वारा सुयज्ञ को शिवप्रदत्त परम दुर्लभ महाज्ञान का उपदेश

श्रीपार्वतीजी ने पूछा — प्रभो ! मुनिसमूहों के चले जाने पर मनुष्यों के कर्मफल का वर्णन सुनने के अनन्तर ब्रह्मशाप से विह्वल हुए नृपश्रेष्ठ सुयज्ञ ने क्या किया ? अतिथि ब्राह्मण ने भी क्या किया ? वे लौटकर राजा के घर में गये या नहीं, यह बताने की कृपा करें।

महेश्वर ने कहा — प्रिये ! मुनि-समूहों के चले जाने पर वे शापग्रस्त नरेश धर्मात्मा पुरोहित वसिष्ठजी की आज्ञा से भूतल पर ब्राह्मण के दोनों चरणों में दण्ड की भाँति गिर पड़े। तब उन श्रेष्ठ द्विज ने क्रोध छोड़कर उन्हें शुभ आशीर्वाद दिया । उन कृपामूर्ति ब्राह्मण को क्रोध छोड़कर मुस्कराते देख नृपश्रेष्ठ सुयज्ञ ने नेत्रों से आँसू बहाते हुए दोनों हाथ जोड़ लिये और अत्यन्त विनम्रभाव से आत्मसमर्पण करते हुए उनसे परिचय पूछा। राजा की बात सुनकर वे मुनिश्रेष्ठ हँसने लगे । उन्होंने मेरे दिये हुए सर्वदुर्लभ परम तत्त्व का उन्हें उपदेश दिया ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

अतिथि बोले — ब्रह्माजी के पुत्र मरीचि हैं । उनके पुत्र स्वयं कश्यपजी हैं। कश्यप के प्रायः सभी पुत्र मनोवाञ्छित देवभाव को प्राप्त हुए हैं। उनमें त्वष्टा बड़े ज्ञानी हुए । उन्होंने सहस्र दिव्य वर्षों तक पुष्कर में परम दुष्कर तपस्या की । ब्राह्मण-पुत्र की प्राप्ति के लिये देवाधिदेव परमात्मा श्रीहरि की समाराधना की। तब भगवान् नारायण से उन्हें एक तेजस्वी ब्राह्मण-पुत्र वर के रूप में प्राप्त हुआ। वह पुत्र तपस्या के धनी तेजस्वी विश्वरूप के नाम से प्रसिद्ध हुआ । एक समय बृहस्पतिजी देवराज के प्रति कुपित हो जब कहीं अन्यत्र चले गये, तब इन्द्र ने विश्वरूप को ही अपना पुरोहित बनाया था। विश्वरूप के मातामह दैत्य थे । अतः वे देवताओं के यज्ञ में दैत्यों के लिये भी घी की आहुति देने लगे। जब इन्द्र को इस बात का पता लगा तो उन्होंने अपनी माता की आज्ञा लेकर ब्राह्मण विश्वरूप के मस्तक काट दिये।

नरेश्वर ! विश्वरूप के पुत्र विरूप हुए, जो मेरे पिता हैं । मैं उनका पुत्र सुतपा हूँ। मेरा काश्यप गोत्र है और मैं वैरागी ब्राह्मण हूँ। महादेवजी मेरे गुरु हैं। उन्होंने ही मुझे विद्या, ज्ञान और मन्त्र दिये हैं । प्रकृति से परवर्ती सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण मेरे इष्टदेव हैं। मैं उन्हीं के चरण-कमलों का चिन्तन करता हूँ । मेरे मन में सम्पत्ति के लिये कोई इच्छा नहीं है। राधावल्लभ श्रीकृष्ण मुझे सालोक्य, साष्टि, सारूप्य और सामीप्य नामक मोक्ष देते हैं; परंतु मैं उनकी कल्याणमयी सेवा के सिवा दूसरी कोई वस्तु नहीं लेता हूँ । ब्रह्मत्व और अमरत्व को भी मैं जल में दिखायी देनेवाले प्रतिबिम्ब की भाँति मिथ्या मानता हूँ ।

नरेश्वर ! भक्ति के अतिरिक्त सब कुछ मिथ्या भ्रममात्र है, नश्वर है । इन्द्र, मनु अथवा सूर्य का पद भी जल में खींची गयी रेखा के समान मिथ्या है। मैं उसे सत्य नहीं मानता। फिर राजा के पद को कौन गिनता है । सुयज्ञ ! तुम्हारे यज्ञ में मुनियों का आगमन सुनकर मेरे मन में भी यहाँ आने की लालसा हुई। मैं तुम्हें विष्णु-भक्ति की प्राप्ति कराने के लिये यहाँ आया हूँ। इस समय मैंने तुम पर केवल अनुग्रह किया । तुम्हें शाप नहीं दिया। तुम एक भयानक गहरे भवसागर में गिर गये थे। मैंने तुम्हारा उद्धार किया है। केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं है । भगवान् के भक्त भी तीर्थ हैं, मिट्टी और पत्थर की प्रतिमारूप देवता ही देवता नहीं हैं, भगवद्भक्त भी देवता हैं। जलमय तीर्थ और मिट्टी-पत्थर के देवता मनुष्य को दीर्घकाल में पवित्र करते हैं; परंतु श्रीकृष्णभक्त दर्शन देने के साथ ही पवित्र कर देते हैं । *

* नह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः ॥ २९ ॥
ते पुनन्त्युरुकालेन कृष्णभक्ताश्च दर्शनात् ।
राजन्निर्गम्यतां गेहाद्देहि राज्यं सुताय च ॥ २६ ॥

राजन् ! निकलो इस घर से । दे दो राज्य अपने पुत्र को । वत्स ! अपनी साध्वी पत्नी की रक्षा का भार बेटे को सौंपकर शीघ्र ही वन को चलो। भूमिपाल ! ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यन्त सब कुछ मिथ्या ही है । जो सबके ईश्वर हैं, उन परमात्मा राधावल्लभ श्रीकृष्ण का भजन करो। वे ध्यान से सुलभ हैं । ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि के लिये भी उनकी समाराधना कठिन है। वे उत्पत्ति-विनाशशील प्राकृत पदार्थों और प्रकृति से भी परे हैं। जिनकी ही माया से ब्रह्मा सृष्टि, विष्णु पालन तथा रुद्रदेव संहार करते हैं। दिशाओं के स्वामी दिक्पाल जिनकी माया से ही भ्रमण करते हैं, जिनकी आज्ञा से वायु चलती है, दिनेश सूर्य तपते हैं तथा निशापति चन्द्रमा सदा खेती को सुस्निग्धता प्रदान करते हैं । सम्पूर्ण विश्वों में सबकी मृत्यु काल के द्वारा ही होती है । काल आने पर ही इन्द्र वर्षा करते और अग्निदेव जलाते हैं। सम्पूर्ण विश्व के शासक तथा प्रजा को संयम में रखने वाले यम काल से ही भयभीत- से होकर अपने कार्य में लगे रहते हैं। काल ही समय आने पर संहार करता है और वही यथासमय सृष्टि तथा पालन करता है । काल से प्रेरित होकर ही समुद्र अपने देश (स्थान) — की सीमा में रहता है, पृथ्वी अपने स्थान पर स्थिर रहती है, पर्वत अपने स्थान पर रहते हैं और पाताल अपने स्थान पर ।

राजेन्द्र ! सात स्वर्गलोक, सात द्वीपों सहित पृथ्वी, पर्वत और समुद्रों सहित सात पाताल — इन समस्त लोकों सहित जो ब्रह्माण्ड है, वह अण्डे के आकार में जल पर तैर रहा है। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि रहते हैं । देवता, मनुष्य, नाग, गन्धर्व तथा राक्षस आदि निवास करते हैं। राजन् ! पाताल से लेकर ब्रह्मलोक तक जो अण्ड है, यही ब्रह्माजी का कृत्रिम ब्रह्माण्ड है। यह जल में शयन करने वाले क्षुद्र विराट् विष्णु के नाभिकमल पर उसी तरह है जैसे कमल की कर्णिका में बीज रहा करता है ।

इस प्रकार सुविस्तृत जलशय्या पर शयन करने वाले वे प्राकृत महायोगी क्षुद्र विराट् विष्णु भी प्रकृति से परवर्ती ईश्वर, सर्वात्मा, कालेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान करते हैं; उनका आधार है महाविष्णु का विस्तृत रोमकूप । महाविष्णु के अनन्त रोमकूपों में से प्रत्येक में ऐसे-ऐसे ब्रह्माण्ड स्थित हैं। महाविष्णु शरीर में असंख्य रोम हैं और उन रोमकूपों में असंख्य ब्रह्माण्ड हैं । अण्डाकार ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति के स्थानभूत वे महाविष्णु भी सदा श्रीकृष्ण की इच्छा से प्रकृति के गर्भ से अण्डरूप में प्रकट होते हैं। सबके आधारभूत वे महाविष्णु भी काल के स्वामी सर्वेश्वर परमात्मा श्रीकृष्ण का सदा चिन्तन किया करते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों में स्थित ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि तथा महान् विराट् और क्षुद्र विराट् इन सबकी बीजरूपा जो मूलप्रकृति ईश्वरी है, वह प्रलयकाल में कालेश्वर श्रीकृष्ण में लीन होती है तथा सदा उन्हीं का ध्यान किया करती है। यह सब परम दुर्लभ महाज्ञान तुम्हें बताया गया है। गुरुदेव शिव ने यह ज्ञान मुझे दिया था। इसे तो तुमने सुन लिया। अब और क्या सुनना चाहते हो ? (अध्याय ५३)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादान्तर्गतहरगौरीसंवादे राधोपाख्याने सुयज्ञं प्रत्यतिथ्युपदेशो नाम त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५३ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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