ब्रह्मवैवर्तपुराण – ब्रह्मखण्ड – अध्याय 04
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः
चौथा अध्याय
सावित्री, कामदेव, रति, अग्नि, अग्निदेव, जल, वरुणदेव, स्वाहा, वरुणानी, वायुदेव, वायवी देवी तथा मेदिनी के प्राकट्य का वर्णन

सौति कहते हैं – शौनक जी! तत्पश्चात् श्रीकृष्ण की जिह्वा के अग्रभाग से शुद्ध स्फटिक के समान उज्ज्वल वर्ण वाली एक मनोहारिणी देवी का प्रादुर्भाव हुआ, जो सफेद साड़ी पहने हुए सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित थीं और हाथ में जपमाला लिये हुए थीं। उन्हें सावित्री कहा गया है। साध्वी सावित्री ने सामने खड़ी हो हाथ जोड़ भक्ति-भाव से मस्तक झुकाकर सनातन परब्रह्म श्रीकृष्ण का स्तवन आरम्भ किया ।

॥ सावित्र्युवाच ॥
नमामि सर्वबीजं त्वां ब्रह्मज्योतिः सनातनम् ।
परात्परतरं श्यामं निर्विकारं निरञ्जनम् ॥ ४ ॥

सावित्री बोलीं – भगवन् ! आप सबके बीज (आदिकारण) हैं। सनातन ब्रह्म-ज्योति हैं। परात्पर, निर्विकार एवं निरंजन ब्रह्म हैं। आप श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण को मैं नमस्कार करती हूँ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय


यों कह मन्द-मन्द मुस्कराती हुई वेदमाता सावित्री देवी श्रीहरि को पुनः प्रणाम करके श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर आसीन हुईं। तत्पश्चात् परमात्मा श्रीकृष्ण के मानस से एक पुरुष प्रकट हुआ, जो तपाये हुए सुवर्ण के समान कान्तिमान् था। वह पाँच बाणों द्वारा समस्त कामियों के मन को मथ डालता है, इसलिये मनीषी पुरुष उसका नाम ‘मन्मथ’ कहते हैं। उस कामदेव के वामपार्श्व से एक श्रेष्ठ कामिनी उत्पन्न हुई, जो परम सुन्दरी और सबके मन को मोह लेने वाली थी। मन्द-मन्द मुस्कराती हुई उस सती को देखकर समस्त प्राणियों की उसमें रति हो गयी ! इसीलिये मनीषी पुरुषों ने उसका नाम ‘रति’ रख दिया। पाँच बाण और पुष्पमय धनुष धारण करने वाले कामदेव श्रीहरि के सामने खड़े हो उनकी स्तुति करके आज्ञा पाकर रति के साथ समणीय रत्नमय सिंहासन पर बैठे।

मारण, स्तम्भन, जृम्भन, शोषण और उन्मादन– ये कामदेव के पाँच बाण हैं। उन्हीं को वे धारण करते हैं। अपने बाणों की परीक्षा करने के लिये कामदेव ने बारी-बारी से वे सभी बाण चलाये। फिर तो ईश्वर की इच्छा से सब लोग काम के वशीभूत हो गये। कामपरवश स्खलित महायोगी ब्रह्मा जी का वीर्य अग्नि के रूप में उद्दीप्त हो उठा। वे देवेश्वर अग्निदेव बड़ी-बड़ी लपटें उठाते हुए करोड़ों ताड़ों के समान विशाल रूप धारण करके प्रज्वलित होने लगे। उस अग्नि को बढ़ते देख श्रीकृष्ण ने लीलापूर्वक ‘जल’ की रचना की। वे अपने मुख से निःश्वास वायु के साथ जल की एक-एक बूँद गिराने लगे। मुख से निकले हुए उस बिन्दु मात्र जल ने सम्पूर्ण विश्व को आप्लावित कर दिया ।

उसके किंचित कण मात्र जल ने उस प्रज्वलित अग्नि को शान्त कर दिया। तभी से जल के द्वारा आग बुझने लगी। तत्पश्चात् वहाँ एक पुरुष का प्रादुर्भाव हुआ, जो उस अग्नि के अधिदेवता थे। फिर पूर्वोक्त जल से एक पुरुष का उत्थान हुआ, जिनका नाम ‘वरुण’ हुआ। वे ही जल के अधिष्ठाता देवता और समस्त जल-जन्तुओं के स्वामी हुए। इसके बाद उस अग्निदेव के वामपार्श्व से एक कन्या का आविर्भाव हुआ, जिसका नाम ‘स्वाहा’ था। मनीषी पुरुष उसे ‘अग्नि की पत्नी’ कहते हैं। जलेश्वर वरुण के वामपार्श्व से भी एक कन्या प्रकट हुई, जो ‘वरुणानी’ के नाम से विख्यात थी। वही वरुण की सती साध्वी प्रिया हुई।

भगवान श्रीकृष्ण की निःश्वास वायु से श्रीमान् ‘पवन’ का प्रादुर्भाव हुआ, जो समस्त देहधारियों के प्राण हैं। श्वास-प्रश्वास के रूप में उन्हीं की कला प्रकट हुई है। वायुदेव के वामपार्श्व से एक कन्या प्रकट हुई, जो वायुपत्नी ‘वायवी देवी’ कही गयी है।

श्रीकृष्ण का शुक्र जल में गिरा। वह एक हजार वर्ष के बाद एक अंडे के रूप में प्रकट हुआ। उसी से महान विराट पुरुष की उत्पत्ति हुई, जो सम्पूर्ण विश्व के आधार हैं। उन विराट पुरुष के एक-एक रोम-कूप में एक-एक ब्रह्माण्ड की स्थिति है। वे स्थूल से भी स्थूलतम हैं। उनसे बड़ा दूसरा कोई नहीं है। वे परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश हैं। उन्हीं को ‘महाविष्णु’ जानना चाहिये। वे ही सबके सनातन आधार हैं। जैसे जल में कमल का पत्ता रहता है, उसी प्रकार वे महार्णव के जल में शयन करते हैं।

उनके शयन करते समय कानों के मल से दो दैत्य प्रकट हुए। वे दोनों जल से उठकर ब्रह्मा जी को मार डालने के लिये उद्यत हो गये। तब भगवान नारायण ने उन दोनों को अपने जघन-देश में सुलाकर चक्र से काट डाला। उन दोनों के सम्पूर्ण मेदे से यह सारी पृथ्वी निर्मित हुई, जिससे इसका नाम ‘मेदिनी’ हुआ। उसी पर सम्पूर्ण विश्व की स्थिति है। उसकी अधिष्ठात्री देवी का नाम ‘वसुन्धरा’ है। (अध्याय ४)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डे सौतिशौनकसंवादे सृष्टिनिरूपणे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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