March 11, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 102 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) एक सौ दोवाँ अध्याय बलराम सहित श्रीकृष्ण का विद्या पढ़ने के लिये महर्षि सांदीपनि के निकट जाना, गुरु और गुरुपत्नी द्वारा उनका स्वागत और विद्याध्ययन के पश्चात् गुरुदक्षिणारूप में गुरु के मृतक पुत्र को उन्हें वापस देकर घर लौटना श्रीनारायण कहते हैं — नारद! श्रीकृष्ण ने बलराम के साथ हर्षपूर्वक सांदीपनि के गृह जाकर अपने उन गुरुदेव तथा पतिव्रता गुरुपत्नी को नमस्कार किया और उन्हें भेंटरूप में रत्न एवं मणि समर्पित की। तत्पश्चात् उनसे शुभाशीर्वाद लेकर वे श्रीहरि उन गुरुदेव से यथोचित वचन बोले । श्रीकृष्ण ने कहा — विप्रवर! आपसे अपनी अभीष्ट विद्या प्राप्त करूँगा – ऐसी मेरी लालसा है; अतः शुभ मुहूर्त निश्चय करके मुझे यथोचितरूप से विद्याध्ययन कराइये। तब ‘ॐ – बहुत अच्छा’- यों कहकर मुनिवर सांदीपनि ने हर्षपूर्वक मधुपर्कप्राशन, गौ, वस्त्र और चन्दनद्वारा उनका आदर-सत्कार किया, मिष्टान्न भोजन कराया, सुवासित पान का बीड़ा दिया, मधुर वार्तालाप किया और उन परमेश्वर का स्तवन करते हुए कहा । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ सांदीपनिरुवाच ॥ परं ब्रह्म परं धाम परमीश परात्पर । स्वेच्छामयं स्वयंज्योतिर्निलिप्तैको निरङ्कुशः ॥ ६ ॥ भक्तैकनाथ भक्तेष्ट भक्तानुग्रहविग्रह । भक्तवाञ्छाकल्पतरो भक्तानां प्राणवल्लभ ॥ ७ ॥ मायया बालरूपोऽसि ब्रह्मेशशेषवन्दितः । मायया भुवि भूपाल भुवो भारक्षयाय च ॥ ८ ॥ योगिनो यं विदन्त्येवं ब्रह्मज्योतिः सनातनम् । ध्यायन्ते भक्तनिवहा ज्योतिरभ्यन्तरे मुदा ॥ ९ ॥ द्विभुजं मुरलीहस्तं सुन्दरं श्यामहुपकम् । चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं सस्मितं भक्तवत्सलम् ॥ १० ॥ पीताम्बरधरं देवं वनमालविभूषितम् । लीलापाङ्गतरङ्गैश्च निन्दितानङ्गमूर्च्छितम् ॥ ११ ॥ अलक्तभवनं तद्वत्पादपद्मं सुशोभनम् । कौस्तुभोद्भासिताङ्गं च दिव्यमूर्तिं मनोहरम् ॥ १२ ॥ ईषद्धास्यप्रसन्नं च सुवेषं प्रस्तुतं सुरैः । देवदेवं जगन्नाथं त्रेलोक्यमोहनं परम् ॥ १३ ॥ कोटिकन्दर्पलीलाभं कमनीयमनीश्वरम् । अमूल्यरत्ननिर्माणभूषणौघेन भूषितम् ॥ १४ ॥ वरं वरण्यं वरदं वरदानामभीप्सितम् । चतुर्णामपि वेदानां कारणानां च कारणम् ॥ १५ ॥ पाठार्थ मत्प्रियस्थानमागतोऽसि च मायया । पाठं ते लोकशिक्षार्थं रमणं गमनं रणम् ॥ स्वात्मारामस्य च विभोः परिपूर्णतमस्य च ॥ १६ ॥ सांदीपनि बोले — भक्तों के प्राणवल्लभ ! तुम परब्रह्म, परमधाम, परमेश्वर, परात्पर, स्वेच्छामय, स्वयंज्योति, निर्लिप्त, अद्वितीय, निरङ्कुश, भक्तों के एकमात्र स्वामी, भक्तों के इष्टदेव, भक्तानुग्रहमूर्ति और भक्तों का मनोरथ पूर्ण करने के लिये कल्पतरु हो । ब्रह्मा, शिव और शेष तुम्हारी वन्दना करते हैं। तुम पृथ्वी का भार हरण करने के लिये इस भूतल पर मायावश बालरूप में अवतीर्ण हुए हो और माया से ही भूपाल बने हो । योगी लोग जिसे सनातन ब्रह्मज्योति जानते हैं, भक्तगण अपने हृदय में जिस ज्योति का हर्षपूर्वक ध्यान करते हैं, जिनके दो भुजाएँ हैं, हाथ में मुरली सुशोभित है, सर्वाङ्ग में चन्दन का अनुलेप लगा हुआ है, जिनका सुन्दर श्याम रूप है, जो मन्द मुस्कानयुक्त, भक्तवत्सल, पीताम्बरधारी, वनमाला- विभूषित और लीला-कटाक्षों से कामदेव को उपहासास्पद एवं मूर्च्छित कर देने वाले हैं, जिनका चरणकमल अलक्तक के उत्पत्ति-स्थान की भाँति अत्यन्त शोभायमान है और शरीर कौस्तुभमणि से उद्भासित हो रहा है, जिनकी मनोहर दिव्य मूर्ति है, जो हर्षवश मन्द-मन्द मुस्करा रहे हैं, जिनका सुन्दर वेश है, देवगण जिनकी स्तुति करते हैं, जो देवों के देव, जगदीश्वर, त्रिलोकी को मोहित करने वाले, सर्वश्रेष्ठ, करोड़ों कामदेवोंकी-सी कान्ति वाले, कमनीय, ईश्वररहित ( स्वयं ईश्वर ), अमूल्य रत्नों के बने हुए भूषणों से विभूषित, श्रेष्ठ, सर्वोत्तम, वरदाता, वरदाताओं के इष्टदेव और चारों वेदों तथा कारणों के भी कारण हैं; वही तुम लीलावश पढ़ने के लिये मेरे प्रिय स्थान पर आये हो। तुम तो स्वात्मा में रमण करने वाले, सर्वव्यापी एवं परिपूर्णतम हो; अतः तुम्हारे विद्याध्ययन, रमण, गमन और युद्ध आदि सभी कार्य लोक-शिक्षा के लिये हैं । ॥ गुरुपत्न्युवाच ॥ अद्य मे सफलं जन्म सफलं जीवनं मम । पातिव्रत्यं च सफलं सफलं च तपोवनम् ॥ १७ ॥ मद्दक्षहस्तः सफलो दत्तं येनान्नमीप्सितम् । तदाश्रमं तीर्थपरं तीर्थपादपदाङ्कितम् ॥ १८ ॥ त्वत्पादरजसा पूता गृहाः प्राङ्गणमुत्तमम् । त्वत्पादपद्मं दृष्ट्वा चैवाऽऽवयोर्जन्मखण्डनम् ॥ १९ ॥ तावद्दुःखं च शोकश्च तावद्भोगश्च रोगकः । तावज्जन्मानि कर्माणि क्षुत्पिपासादिकानि च ॥ २० ॥ यावत्त्वत्पादपद्मस्य भजनं नास्ति दर्शनम् । हे कालकाल भगवन्स्रष्टुः संहर्तुरीश्वर ॥ २१ ॥ कृपां कुरु कृपानाथ मायामोहनिकृन्तन । इत्युक्त्वा साश्रुनेत्रा सा क्रोडे कृत्वा हरिं पुनः स्वस्तनं पाययामास प्रेम्णा च देवकी यथा ॥ २२ ॥ तत्पश्चात् गुरुपत्नी बोलीं — प्रभो ! आज मेरा जन्म, जीवन, पातिव्रत्य तथा तपोवन का वास सफल हो गया। मैंने जिस हाथ से तुम्हें इच्छित अन्न प्रदान किया है, वह मेरा दाहिना हाथ सफल हो गया। जो आश्रम तीर्थपाद भगवान् के चरण से चिह्नित है; वह तीर्थ से भी बढ़कर है । उनकी चरणरज से गृह पावन और आँगन उत्तम हो जाते हैं । तुम्हारा चरणकमल हम दोनों के जन्म-मरण का निवारक है; क्योंकि दुःख, शोक, भोग, रोग, जन्म, कर्म, भूख-प्यास आदि तभी तक कष्टप्रद होते हैं, जब तक तुम्हारे चरण-कमल का दर्शन और भजन नहीं होता । हे भगवन् ! तुम काल के भी काल, सृष्टिकर्ता ब्रह्मा और संहारकारक शिव भी ईश्वर तथा माया-मोह के विनाशक हो । कृपानाथ ! मुझ पर कृपा करो। इतना कहते-कहते गुरुपत्नी के नेत्रों में आँसू छलक आये। वे पुनः श्रीकृष्ण को अपनी गोद में लेकर प्रेमपूर्वक देवकी की तरह अपना स्तन पिलाने लगीं । तब श्रीकृष्ण ने कहा — माता ! तुम मुझ बालक की स्तुति कैसे कर रही हो; क्योंकि मैं तो तुम्हारा दुधमुँहा बच्चा हूँ। अच्छा, अब तुम इस प्राकृतिक मिथ्या नश्वर शरीर को त्यागकर और जन्म, मृत्यु एवं बुढ़ापे का हरण करने वाले निर्मल देह को धारण करके अपने पतिदेव के साथ अभीष्ट गोलोक को जाओ । यों कहकर श्रीकृष्ण ने एक ही महीने में परम भक्ति के साथ मुनिवर सांदीपनि से चारों वेदों का अध्ययन करके पूर्वकाल में मरे हुए उनके पुत्र को वापस लाकर उन्हें समर्पित कर दिया। फिर लाखों-लाखों मणि, रत्न, हीरे, मोती, माणिक्य, त्रैलोक्यदुर्लभ वस्त्र, हार, अँगूठियाँ और सोने की मुहरें दक्षिणा में दीं। तत्पश्चात् स्त्री के सर्वाङ्ग में पहनने योग्य अमूल्य रत्नों के बने हुए आभूषण और अग्निशुद्ध श्रेष्ठ वस्त्र गुरुपत्नी को प्रदान किये। तदनन्तर मुनि वह सब सामान अपने पुत्र को देकर स्वयं पत्नी के साथ अमूल्य रत्न-निर्मित रथ पर सवार हो उत्तम गोलोक को चले गये। उस अद्भुत दृश्य को देखकर श्रीकृष्ण हर्षपूर्वक अपने गृह को लौट गये। नारद! इस प्रकार ब्रह्मण्यदेव भगवान् श्रीकृष्ण के चरित्र को श्रवण करो । यह स्तोत्र महान् पुण्यदायक है । जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इसका पाठ करता है, उसकी निःसंदेह श्रीकृष्ण में निश्चल भक्ति हो जाती है । इसके प्रभाव से कीर्तिहीन परम यशस्वी और मूर्ख पण्डित हो जाता है । वह इस लोक में सुख भोगकर अन्त में श्रीहरि के पद को प्राप्त होता है । वहाँ उसे नित्य श्रीहरि की दासता सुलभ रहती है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। (अध्याय १०२ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे मुनिपत्नीस्तोत्रं नाम द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०२ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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