March 4, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 68 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) अड़सठवाँ अध्याय श्रीकृष्ण को व्रज में जाते देख राधा का विलाप एवं मूर्च्छा, श्रीहरि का उन्हें समझाना श्रीनारायण कहते हैं — नारद! पुरातन परमेश्वर श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ने पुष्प-शय्या से उठकर निद्रा में निमग्न हुई अपनी प्राणोपमा प्रियतमा श्रीराधा को तत्काल ही जगाया । वस्त्र के अञ्चल से उनके मुँह को पोंछ निर्मल करके मधुसूदन ने मधुर एवं शान्त वाणी में उनसे कहा । श्रीकृष्ण बोले — पवित्र मुस्कान वाली रासेश्वरि ! व्रजस्वामिनि ! क्षण भर रासमण्डल में ही ठहरो अथवा वृन्दावन में घूमो या गोष्ठ में ही चली जाओ । अथवा तुम रास की अधिष्ठात्री देवी हो; इसलिये क्षणभर इस रासमण्डल में ही रासरस का आस्वादन करो। जैसे ग्राम-ग्राम में सर्वत्र ग्रामदेवता रहते हैं, उसी तरह रासेश्वरी को रास में सदा रहना चाहिये । अथवा सुन्दरि ! तुम अपनी प्यारी सखियों के साथ क्षणभर के लिये चन्दनवन या चम्पकवन में घूम आओ, या यहीं रहो; मैं कुछ क्षण के लिये घर को जाऊँगा, वहाँ मुझे एक विशेष कार्य करना है; अतः प्राणवल्लभे! थोड़ी देर के लिये प्रसन्नतापूर्वक मुझको छुट्टी दे दो। तुम मेरे प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हो। तुममें ही मेरे प्राण बसते हैं। प्रिये ! प्राणी अपने प्राणों को छोड़कर कहाँ ठहर सकता है ? तुम में ही सदा मेरा मन लगा रहता है, तुमसे बढ़कर प्यारी मेरे लिये दूसरी कोई नहीं है । केवल तुम्हीं मुझे शंकर से अधिक प्रिय हो । यह सत्य है शंकर मेरे प्राण हैं; परंतु सती राधे ! तुम तो प्राणों से भी बढ़कर हो । यों कहकर भगवान् वहाँ से जाने को उद्यत हुए। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय वे सर्वज्ञ और सब कुछ सिद्ध करनेवाले हैं । सबके आत्मा, पालक और उपकारक हैं। उन्होंने अक्रूर का आगमन जानकर व्रज में जाने का विचार किया। श्रीकृष्ण का मन बँट गया है; वे अन्यत्र जाने को उत्सुक हैं; यह देख राधिका देवी व्यथित-हृदय से बोलीं । राधिका ने कहा — हे नाथ! हे रमण श्रेष्ठ ! प्रिय लगने वाले मेरे समस्त सम्बन्धियों में तुम्हीं श्रेष्ठ हो । प्राणनाथ ! मैं देखती हूँ, इस समय तुम्हारा मन बँटा हुआ है। तुम्हारे चले जाने पर मेरा प्रेम और सौभाग्य सब कुछ लुट जायगा । मुझे शोक के गहरे समुद्र में डालकर तुम कहाँ चले जा रहे हो? मैं विरह से व्याकुल हूँ, दीन हूँ और तुम्हारी ही शरण में आयी हूँ। अब मैं फिर घर को नहीं लौटूँगी; दूसरे वन में चली जाऊँगी और दिन-रात ‘कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! ‘ का गान करती रहूँगी अथवा किसी वन में भी नहीं जाऊँगी, प्रेम के समुद्र में प्रवेश करूँगी और मन में केवल तुम्हारी कामना लेकर शरीर को त्याग दूँगी। जैसे आकाश, आत्मा, चन्द्रमा और सूर्य सदा साथ रहते हैं; उसी तरह तुम मेरे आँचल में बँधकर सदा पास ही रहते और साथ-साथ घूमते हो; किंतु दीनवत्सल ! इस समय तुम मुझे निराश करके जा रहे हो! मुझ दीन एवं शरणागत अबला को त्याग देना तुम्हारे लिये कदापि उचित नहीं है । ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि देवता जिनके चरणकमलों का ध्यान करते हैं; वे परमात्मा तुम हो। तुमने माया से गोपवेष धारण कर रखा है। मैं ईर्ष्यालु नारी तुम्हें कैसे जान सकती हूँ? देव! मैंने तुम्हें पति समझकर अथवा अभिमान के कारण तुम्हारे प्रति जो दुर्नीतिपूर्ण बर्ताव तथा सहस्रों अपराध किये हैं; उन्हें क्षमा कर दो। मेरा गर्व चूर्ण हो गया और मेरे सारे मनसूबे दूर चले गये । अपने सौभाग्य को आज मैं अच्छी तरह समझ चुकी हूँ। नाथ ! इसके सिवा, तुमसे और क्या कह सकती हूँ? गर्ग के मुख से तुम्हारे विषय में सुनकर, जानकर भी मैं तुम्हारी माया से मोहित हो गयी। इस समय प्रेमातिरेक अथवा भक्तिपाश से बँधकर मैं तुमसे कुछ कह नहीं सकती । प्राणवल्लभ ! प्रभो ! तुम्हारे बिना मुझे एक-एक क्षण सौ युगों के समान जान पड़ता है; फिर सौ वर्षों तक मैं किस तरह जीवन धारण कर सकूँगी ? मुने ! ऐसा कहकर राधिका भूमि पर गिर पड़ीं और सहसा मूर्च्छित हो चेतना खो बैठीं । उन्हें मूर्च्छित देख कृपानिधान श्रीकृष्ण ने कृपापूर्वक सचेत किया और हृदय से लगा लिया। फिर शोकहारी योगों द्वारा उन्हें अनेक प्रकार से समझाया तथापि शुचिस्मिता श्रीराधा शोक को त्याग न सकीं। सामान्य वस्तु का बिछोह भी मनुष्यों के लिये शोकप्रद हो जाता है, फिर जहाँ देह और आत्मा का बिछोह होता हो, वहाँ सुख कैसे हो सकता है? उस दिन व्रजराज श्यामसुन्दर व्रज में नहीं लौट सके। श्रीराधा के साथ क्रीड़ा-सरोवर के तट पर गये। वहाँ उनके साथ भगवान् ने पुनः रास-क्रीड़ा की । (अध्याय ६८) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद राधाशोक-विमोचनं नामाष्टषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६८ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related