February 20, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 08 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ आठवाँ अध्याय जन्माष्टमी-व्रत के पूजन, उपवास तथा महत्त्व आदि का निरूपण नारदजी बोले — भगवन् ! जन्माष्टमी-व्रत समस्त व्रतों में उत्तम कहा गया है। अतः आप उसका वर्णन कीजिये। जिस जन्माष्टमी व्रत में जयन्ती नामक योग प्राप्त होता है, उसका फल क्या है ? तथा सामान्यतः जन्माष्टमी-व्रत का अनुष्ठान करने से किस फल की प्राप्ति होती है ? इस समय इन्हीं बातों पर प्रकाश डालिये। महामुने! यदि व्रत न किया जाय अथवा व्रत के दिन भोजन कर लिया जाय तो क्या दोष होता है ? जयन्ती अथवा सामान्य जन्माष्टमी में उपवास करने से कौन-सा अभीष्ट फल प्राप्त होता है ? प्रभो ! उक्त व्रत में पूजन का विधान क्या है ? कैसे संयम करना चाहिये ? उपवास अथवा पारणा में पूजन एवं संयम का नियम क्या है ? इस विषय में भली-भाँति विचार करके कहिये । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भगवान् नारायण ने कहा — मुने! सप्तमी तिथि को तथा पारणा के दिन व्रती पुरुष को हविष्यान्न भोजन करके संयमपूर्वक रहना चाहिये। सप्तमी की रात्रि व्यतीत होने पर अरुणोदय की वेला में उठकर व्रती पुरुष प्रातःकालिक कृत्य पूर्ण करने के अनन्तर स्नानपूर्वक संकल्प करे । ब्रह्मन् ! उस संकल्प में यह उद्देश्य रखना चाहिये कि आज मैं श्रीकृष्णप्रीति के लिये व्रत एवं उपवास करूँगा । मन्वादि तिथि प्राप्त होने पर स्नान और पूजन करने से जो फल मिलता है, भाद्रपदमास की अष्टमी तिथि को स्नान और पूजन करने से वही फल कोटिगुना अधिक होता है । उस तिथि को जो पितरों के लिये जलमात्र अर्पण करता है, वह मानो लगातार सौ वर्षों तक पितरों की तृप्ति के लिये गया श्राद्ध का सम्पादन कर लेता है; इसमें संशय नहीं है। स्नान और नित्यकर्म करके सूतिकागृह का निर्माण करे । वहाँ लोहे का खड्ग, प्रज्वलित अग्नि तथा रक्षकों का समूह प्रस्तुत करे । अन्यान्य अनेक प्रकार की आवश्यक सामग्री तथा नाल काटने के लिये कैंची लाकर रखे । विद्वान् पुरुष यत्नपूर्वक एक ऐसी स्त्री को भी उपस्थित करे, जो धाय का काम करे। सुन्दर षोडशोपचार पूजन की सामग्री, आठ प्रकार के फल, मिठाइयाँ और द्रव्य – इन सबका संग्रह कर ले। नारदजी ! जायफल, कङ्कोल, अनार, श्रीफल, नारियल, नीबू और मनोहर कूष्माण्ड आदि फल संग्रहणीय हैं। आसन, वसन, पाद्य, मधुपर्क, अर्घ्य, आचमनीय, स्नानीय, शय्या, गन्ध, पुष्प, नैवेद्य, ताम्बूल, अनुलेपन, धूप, दीप और आभूषण – ये सोलह उपचार हैं । पैर धोकर स्नान के पश्चात् दो धुले हुए वस्त्र धारण करके आसन पर बैठे और आचमन करके स्वस्तिवाचनपूर्वक कलश स्थापन करे। कलश के समीप पाँच देवताओं की पूजा करे। कलश पर परमेश्वर श्रीकृष्ण का आवाहन करके वसुदेव-देवकी, नन्द-यशोदा, बलदेव-रोहिणी, षष्ठीदेवी, पृथ्वी, ब्रह्मनक्षत्र – रोहिणी, अष्टमी तिथि की अधिष्ठात्री देवी, स्थानदेवता, अश्वत्थामा, बलि, हनुमान्, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम, व्यासदेव तथा मार्कण्डेय मुनि — इन सबका आवाहन करके श्रीहरि का ध्यान करे। मस्तक पर फूल चढ़ाकर विद्वान् पुरुष फिर ध्यान करे। नारद! मैं सामवेदोक्त ध्यान बता रहा हूँ, सुनो। इसे ब्रह्माजी ने सबसे पहले महात्मा सनत्कुमार को बताया था । बालं नीलांबुजाभमतिशयरुचिरं स्मेरवक्त्रांबुजं तं ब्रह्मेशानंतधर्मैः कतिकतिदिवसैः स्तूयमानं परं यत् । ध्यानासाध्यमृषीन्द्रैर्मुनिगणमनुजैः सिद्धसंघैरसाध्यं योगींद्राणामचिंत्यमतिशयमतुलं साक्षिरूपं भजेऽहम् ॥ २१ ॥ ध्यान मैं श्याम – मेघ के समान अभिराम आभा वाले साक्षिस्वरूप बालमुकुन्द का भजन करता हूँ, जो अत्यन्त सुन्दर हैं तथा जिनके मुखारविन्द पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही है। ब्रह्मा, शिव, शेषनाग और धर्म — ये कई-कई दिनों तक उन परमेश्वर की स्तुति करते रहते हैं। बड़े-बड़े मुनीश्वर भी ध्यान के द्वारा उन्हें अपने वश में नहीं कर पाते हैं। मनु, मनुष्यगण तथा सिद्धों के समुदाय भी उन्हें रिझा नहीं पाते हैं। योगीश्वरों के चिन्तन में भी उनका आना सम्भव नहीं हो पाता है । वे सभी बातों में सबसे बढ़कर हैं; उनकी कहीं तुलना नहीं है । इस प्रकार ध्यान करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक पुष्प चढ़ावे और समस्त उपचारों को क्रमशः अर्पित करके व्रती पुरुष व्रत का पालन करे। अब प्रत्येक उपचार का क्रमशः मन्त्र सुनो। आसन आसनं सर्वशोभाढ्यं सद्रत्नमणिनिर्मितम् । विचित्रं च विचित्रेण गृह्यतां शोभनं हरे ॥ २३ ॥ हरे ! उत्तम रत्नों एवं मणियों द्वारा निर्मित, सम्पूर्ण शोभा से सम्पन्न तथा विचित्र बेलबूटों से चित्रित यह सुन्दर आसन सेवामें अर्पित है। इसे ग्रहण कीजिये । वसन वसनं वह्निशौचं च निर्मितं विश्वकर्मणा । प्रतप्तस्वर्णखचितं चित्रितं गृह्यतां हरे ॥ २४ ॥ श्रीकृष्ण ! यह विश्वकर्मा द्वारा निर्मित वस्त्र अग्नि तपाकर शुद्ध किया गया है। इसमें तपे हुए सुवर्ण के तार जड़े गये हैं । आप इसे स्वीकार करें। पाद्य पादप्रक्षालनार्थं च स्वर्णपात्रस्थितं जलम् । पवित्रं निर्मलं चारु पाद्यं च गृह्यतां हरे ॥ २५ ॥ गोविन्द ! आपके चरणों को पखारने के लिये सोने के पात्र में रखा हुआ यह जल परम पवित्र और निर्मल है। इसमें सुन्दर पुष्प डाले गये हैं । आप इस पाद्य को ग्रहण करें । मधुपर्क या पञ्चामृत मधुसर्पिर्दधिक्षीरं शर्करासंयुतं परम् । स्वर्णपात्रस्थितं देयं स्नानार्थं गृह्यतां हरे ॥ २६ ॥ भगवन्! मधु, घी, दही, दूध और शक्कर – इन सबको मिलाकर तैयार किया गया मधुपर्क या पञ्चामृत सुवर्ण के पात्र में रखा गया है। इसे आपकी सेवामें निवेदन करना है। आप स्नान के लिये इसका उपयोग करें। अर्ध्य दूर्वाक्षतं शुक्लपुष्पं स्वच्छतोयसमन्वितम् । चंदनागुरुकस्तूरीसहितं गृह्यतां हरे ॥ २७ ॥ हरे ! दूर्वा, अक्षत, श्वेत पुष्प और स्वच्छ जल से युक्त यह अर्घ्य सेवामें समर्पित है। इसमें चन्दन, अगुरु और कस्तूरी का भी मेल है। आप इसे ग्रहण करें । आचमनीय सुस्वादु स्वच्छतोयं च वासितं गंधवस्तुना । शुद्धमाचमनीयं च गृह्यतां परमेश्वर ॥ २८ ॥ परमेश्वर ! सुगन्धित वस्तु से वासित यह शुद्ध, सुस्वादु एवं स्वच्छ जल आचमन के योग्य है । आप इसे ग्रहण करें । स्नानीय गंधद्रव्यसमायुक्तं विष्णो तैलं सुवासितम् । आमलक्या द्रवं चैव स्नानीयं गृह्यतां हरे ॥ २९ ॥ श्रीकृष्ण ! सुगन्धित द्रव्यसे युक्त एवं सुवासित विष्णुतैल तथा आँवले का चूर्ण स्नानोपयोगी द्रव्य के रूप में प्रस्तुत है । इसे स्वीकार करें । शय्या सद्रत्नमणिसारेण रचितां सुमनोहराम् । छादितां सूक्ष्मवस्त्रेण शय्यां च गृह्यतां हरे ॥ ३० ॥ श्रीहरे ! उत्तम रत्न एवं मणियों के सारभाग से रचित, अत्यन्त मनोहर तथा सूक्ष्म वस्त्र से आच्छादित यह शय्या सेवामें समर्पित है। इसे ग्रहण कीजिये । गन्ध चूर्णं च वृक्षभेदानां मूलानां द्रवसंयुतम् । कस्तूरीद्रवसंयुक्तं गन्धं च गृह्यतां हरे ॥ ३१ ॥ गोविन्द ! विभिन्न वृक्षोंके चूर्णसे युक्त, नाना प्रकार के वृक्षों की जड़ों के द्रव से पूर्ण तथा कस्तूरी-रस से मिश्रित यह गन्ध सेवामें समर्पित है । इसे स्वीकार करें। पुष्प पुष्पं सुगंधियुक्तं च संयुक्तं कुंकुमेन च । सुप्रियं सर्वदेवानां सांप्रतं गृह्यतां हरे ॥ ३२ ॥ परमेश्वर ! वृक्षों के सुगन्धित तथा सम्पूर्ण देवताओं को अत्यन्त प्रिय लगनेवाले पुष्प आपकी सेवामें अर्पित हैं। इन्हें ग्रहण कीजिये । नैवेद्य गृह्यतां स्वस्तिकोक्तं च मिष्टद्रव्यसमन्वितम् । सुपक्वफलसंयुक्तं नैवेद्यं गृह्यतां हरे ॥ ३३ ॥ गोविन्द ! शर्करा, स्वस्तिक नामवाली मिठाई तथा अन्य मीठे पदार्थों से युक्त यह नैवेद्य सेवामें समर्पित है। यह सुन्दर पके फलों से संयुक्त है । आप इसे स्वीकार करें। लड्डुकं मोदकं चैव सर्पिः क्षीरं गुडं मधु । नवोद्धृतं दधि तक्रं नैवेद्यं गृह्यतां हरे ॥ ३४ ॥ हरे ! शक्कर मिलाया ठंढा और स्वादिष्ट दूध, सुन्दर पकवान, लड्डू, मोदक, घी मिलायी हुई खीर, गुड़, मधु, ताजा दही और तक्र – यह सब सामग्री नैवेद्य के रूप में आपके सामने प्रस्तुत है । आप इसे आरोगें । ताम्बूल शीतलं शर्करायुक्तं क्षीरस्वादुसुपक्वकम् । तांबूलं भोगसारं च कर्पूरादिसमन्वितम् । भक्त्या निवेदितमिदं गृह्यतां परमेश्वर ॥ ३५ ॥ परमेश्वर ! यह भोगों का सारभूत ताम्बूल कर्पूर आदि से युक्त है। मैंने भक्तिभाव से मुखशुद्धि के लिये निवेदन किया है। आप कृपापूर्वक इसे ग्रहण करें । अनुलेपन चन्दनागुरु कस्तूरीकुंकुमद्रवसंयुतम् । अबीरचूर्णं रुचिरं गृह्यतां परमेश्वर ॥ ३६ ॥ परमेश्वर! चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम के द्रव से संयुक्त सुन्दर अबीर-चूर्ण अनुलेपन के रूपमें प्रस्तुत है । कृपया ग्रहण कीजिये । धूप तरुभेदरसोत्कर्षो गंधयुक्तोऽग्निना सह । सुप्रियः सर्वदेवानां धूपोऽयं गृह्यतां हरे ॥ ३७ ॥ हरे ! विभिन्न वृक्षोंके उत्कृष्ट गोंद तथा अन्य सुगन्धित पदार्थों के संयोग से बना हुआ यह धूप अग्नि का साहचर्य पाकर सम्पूर्ण देवताओं के लिये अत्यन्त प्रिय हो जाता है । आप इसे स्वीकार करें। दीप घोरांधकारनाशैकहेतुरेव शुभावहः । सुप्रदीपो दीप्तिकरो दीपोऽयं गृह्यतां हरे ॥ ३८ ॥ गोविन्द ! अत्यन्त प्रकाशमान एवं उत्तम प्रभाका प्रसार करनेवाला यह सुन्दर दीप घोर अन्धकारके नाशका एकमात्र हेतु है । आप इसे ग्रहण करें। जलपान पवित्रं निर्मलं तोयं कर्पूरादिसमायुतम् । जीवनं सर्वबीजानां पानार्थं गृह्यतां हरे ॥ ३९ ॥ हरे ! कर्पूर आदि से सुवासित यह पवित्र और निर्मल जल सम्पूर्ण जीवों का जीवन है। आप पीने के लिये इसे ग्रहण करें । आभूषण नानापुष्पसमायुक्तं ग्रथितं सूक्ष्मतंतुना । शरीरभूषणवरं माल्यं च प्रतिगृह्यताम् ॥ ४० ॥ गोविन्द ! नाना प्रकार के फूलोंसे युक्त तथा महीन डोरे में गुँथा हुआ यह हार शरीर के लिये श्रेष्ठ आभूषण है। इसे स्वीकार कीजिये । पूजोपयोगी दातव्य द्रव्यों का दान करके व्रत के स्थान में रखा हुआ द्रव्य श्रीहरि को ही समर्पित कर देना चाहिये। उस समय इस प्रकार कहे — फलानि तरुबीजानि स्वादूनि सुंदराणि च । वंशवृद्धिकराण्येव गृह्यतां परमेश्वर ॥ ४२ ॥ ‘परमेश्वर ! वृक्षोंके बीजस्वरूप ये स्वादिष्ट और सुन्दर फल वंशकी वृद्धि करनेवाले हैं। आप इन्हें ग्रहण कीजिये ।’ आवाहित देवताओं में से प्रत्येक का व्रती पुरुष पूजन करे। पूजन के पश्चात् भक्तिभाव से उन सबको तीन-तीन बार पुष्पाञ्जलि दे । सुनन्द, नन्द और कुमुद आदि गोप, गोपी, राधिका, गणेश, कार्तिकेय, ब्रह्मा, शिव, पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती, दिक्पाल, ग्रह, शेषनाग, सुदर्शनचक्र तथा श्रेष्ठ पार्षदगण — इन सबका पूजन करके समस्त देवताओं को पृथ्वी पर दण्डवत् प्रणाम करे । तदनन्तर ब्राह्मणों को नैवेद्य देकर दक्षिणा दे तथा जन्माध्याय में बतायी गयी कथा का भक्तिभाव से श्रवण करे। उस समय व्रती पुरुष रात में कुशासन पर बैठकर जागता रहे। प्रातः काल नित्यकर्म सम्पन्न करके श्रीहरि का सानन्द पूजन करे तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर भगवन्नामों का कीर्तन करे । नारदजी ने पूछा — वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ नारायण- देव ! व्रतकाल की सर्वसम्मत वेदोक्त व्यवस्था क्या है ? यह बताइये। साथ ही वेदार्थ तथा प्राचीन संहिता का विचार करके यह भी बताने की कृपा कीजिये कि व्रत में उपवास एवं जागरण करने से क्या फल मिलता है अथवा उसमें भोजन कर लिया जाय तो कौन-सा पाप लगता है ? भगवान् नारायण ने कहा- अष्टमी कर्क्षसंयुक्ता रात्र्यर्थे यदि दृश्यते । स एव मुख्यकालश्च तत्र जातः स्वयं हरिः ॥ ५१ ॥ जयं पुण्यं च कुरुते जयंती तेन संस्मृता । तत्रोपोष्य व्रतं कृत्वा कुर्याज्जागरणं बुधः ॥ ५२ ॥ यदि आधी रात के समय अष्टमी तिथि का एक चौथाई अंश भी दृष्टिगोचर होता हो तो वही व्रत का मुख्य काल है। उसी में साक्षात् श्रीहरि ने अवतार ग्रहण किया है। वह जय और पुण्य प्रदान करती है; इसलिये ‘जयन्ती’ कही गयी है। उसमें उपवास- व्रत करके विद्वान् पुरुष जागरण करे। यह समय सबका अपवाद, मुख्य एवं सर्वसम्मत है, ऐसा वेदवेत्ताओं का कथन है । पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने भी ऐसा ही कहा था। जो अष्टमी को उपवास एवं जागरणपूर्वक व्रत करता है, वह करोड़ों जन्मों में उपार्जित पापों से छुटकारा पा जाता है; इसमें संशय नहीं है। वर्जनीया प्रयत्नेन सप्तमीसहिताष्टमी । सा सर्क्षाऽपि न कर्तव्या सप्तमीसहिताष्टमी ॥ ५५ ॥ सप्तमीविद्धा अष्टमी का यत्नपूर्वक त्याग करना चाहिये । रोहिणी नक्षत्र का योग मिलने पर भी सप्तमीविद्धा अष्टमी को व्रत नहीं करना चाहिये; क्योंकि भगवान् देवकीनन्दन अविद्ध-तिथि एवं नक्षत्र में अवतीर्ण हुए थे । यह विशिष्ट मङ्गलमय क्षण वेदों और वेदाङ्गों के लिये भी गुप्त है। व्यतीते रोहिणीऋक्षे व्रती कुर्याच्च पारणाम् । तिथ्यंते च हरिं स्मृत्वा कृत्वा देवार्चनं व्रती ॥ ५७ ॥ रोहिणी नक्षत्र बीत जाने पर ही व्रती पुरुष को पारणा करनी चाहिये । तिथि के अन्त में श्रीहरि का स्मरण तथा देवताओं का पूजन करके की हुई पारणा पवित्र मानी गयी है । वह मनुष्यों के समस्त पापों का नाश करने वाली होती है । सर्वेष्वेवोपवासेषु दिवा पारणमिष्यते । अन्यथा फलहानिः स्यात्कृते धारणपारणे ॥ ५९ ॥ न रात्रौ पारणं कुर्यादृते वै रोहिणीव्रतात् । निशायां पारणं कुर्याद्वर्जयित्वा महानिशाम् ॥ ६० ॥ पूर्वाह्णे पारणं शस्तं कृत्वा विप्रसुरार्चनम् । सर्वेषां संमतं कुर्यादृते वै रोहिणी व्रतम् ॥ ६१ ॥ सम्पूर्ण उपवास-व्रतों में दिन को ही पारणा करने का विधान है। वह उपवास-व्रत का अङ्गभूत, अभीष्ट फलदायक तथा शुद्धि का कारण है। पारणा न करने पर फल में कमी आती है। रोहिणीव्रत के सिवा दूसरे किसी व्रत में रात को पारणा नहीं करनी चाहिये । महारात्रि को छोड़कर दूसरी रात्रि में पारणा की जा सकती है। ब्राह्मणों और देवताओं की पूजा करके पूर्वाह्नकाल में पारणा उत्तम मानी गयी है । रोहिणी व्रत सबको सम्मत है । उसका अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये । बुधसोमसमायुक्ता जयंती यदि लभ्यते । न कुर्याद्गर्भवासं च तत्र कृत्वा व्रतं व्रती ॥ ६२ ॥ उदये चाष्टमी किंचिन्नवमी सकला यदि । भवेद्बुधेंदुसंयुक्ता प्राजापत्यर्क्षसंयुता ॥ ६३ ॥ अपिवर्षशतेनापि लभ्यते वा न लभ्यते । व्रतं तत्र व्रती कुर्यात्पुंसां कोटिं समुद्धरेत् ॥ ६४ ॥ यदि बुध अथवा सोमवार से युक्त जयन्ती मिल जाय तो उसमें व्रत करके व्रती पुरुष गर्भ में वास नहीं करता है । यदि उदयकाल में किञ्चिन्मात्र कुछ अष्टमी हो और सम्पूर्ण दिन-रात में नवमी हो तथा बुध, सोम एवं रोहिणी नक्षत्र का योग प्राप्त हो तो वह सबसे उत्तम व्रत का समय है। सैकड़ों वर्षोंमें भी ऐसा योग मिले या न मिले, कुछ कहा नहीं जा सकता। ऐसे उत्तम व्रत का अनुष्ठान करके व्रती पुरुष अपनी करोड़ों पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है । जो सम्पत्ति से रहित भक्त मनुष्य हैं, वे व्रतसम्बन्धी उत्सव के बिना भी यदि केवल उपवासमात्र कर लें तो भगवान् माधव उन पर उतने से ही प्रसन्न हो जाते हैं। भक्तिभाव से भाँति-भाँति के उपचार चढ़ाने तथा रात में जागरण करने से दैत्यशत्रु श्रीहरि जयन्ती-व्रत का फल प्रदान करते हैं । जो अष्टमी-व्रत के उत्सव में धनका उपयोग करने में कंजूसी नहीं करता, उसे उत्तम फल की प्राप्ति होती है। जो कंजूसी करता है, वह उसके अनुरूप ही फल पाता है । विद्वान् पुरुष अष्टमी और रोहिणी में पारणा न करे; अन्यथा वह पारणा पूर्वकृत पुण्यों को तथा उपवास से प्राप्त होने वाले फल को भी नष्ट कर देती है, तिथि आठ गुने फल का नाश करती है और नक्षत्र चौगुने फल का। अतः प्रयत्नपूर्वक तिथि और नक्षत्र के अन्त में पारणा करे । यदि महानिशा प्राप्त होने पर तिथि और नक्षत्र का अन्त होता हो तो व्रती पुरुष को तीसरे दिन पारणा करनी चाहिये । आदि और अन्त के चार-चार दण्ड को छोड़कर बीच की तीन पहर वाली रात्रि को त्रियामा रजनी कहते हैं । उस रजनी के आदि और अन्त में दो संध्याएँ होती हैं। जिनमें से एक को दिनादि या प्रातः संध्या कहते हैं और दूसरी को दिनान्त या सायंसंध्या । शुद्धा जन्माष्टमी तिथि को जागरणपूर्वक व्रत का अनुष्ठान करके मनुष्य सौ जन्मों के किये हुए पापों से छुटकारा पा जाता है। इसमें संशय नहीं है। जो मनुष्य शुद्धा जन्माष्टमी में केवल उपवासमात्र करके रह जाता है, व्रतोत्सव या जागरण नहीं करता, वह अश्वमेध यज्ञ के फल का श्रीकृष्णजन्माष्टमी के दिन भोजन करने वाले नराधम घोर पापों और उनके भयानक फलों के भागी होते हैं। जो उपवास करने में असमर्थ हो, वह एक ब्राह्मण को भोजन करावे अथवा उतना धन दे दे, जितने से वह दो बार भोजन कर ले अथवा प्राणायाम- – मन्त्रपूर्वक एक सहस्र गायत्री का जप करे । मनुष्य उस व्रत में बारह हजार मन्त्रों का यथार्थरूप से जप करे तो और उत्तम है । वत्स नारद! मैंने धर्मदेव के मुख से जो कुछ सुना था, वह सब तुम्हें कह सुनाया । व्रत, उपवास और पूजा का जो कुछ विधान है और उसके न करने पर जो कुछ दोष होता है; वह सब यहाँ बता दिया गया । ( अध्याय ८) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे नारायणनारदसंवादे श्रीकृष्णजन्मखण्डे कृष्णजन्माष्टमीव्रतपूजोपवासनिरूपणं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ See AlSo:- श्रीकृष्ण-जन्माष्टमीव्रत की कथा एवं विधि Content is available only for registered users. 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