March 10, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 99 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) निन्यानबेवाँ अध्याय गर्गजी का आगमन और वसुदेवजी से पुत्रों के उपनयन के लिये कहना, उसी प्रसङ्ग में मुनियों और देवताओं का आना, वसुदेवजी द्वारा उनका सत्कार और गणेश का अग्र-पूजन श्रीनारायण कहते हैं — नारद! इसी समय तपस्वी गर्गजी, जो सदा संयम में तत्पर रहने वाले और यदुवंशियों के कुल पुरोहित थे, वसुदेवजी के आश्रम पर पधारे। उनके सिर पर जटा थी तथा हाथ में दण्ड और छत्र सुशोभित थे । वे शुक्ल यज्ञोपवीत धारण किये हुए थे। उनके दाँत और वस्त्र श्वेत थे तथा वे ब्रह्मतेज से उद्दीप्त हो रहे थे। उन्हें आया देख वसुदेव और देवकी ने सहसा उठकर भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और बैठने के लिये रत्नसिंहासन दिया। फिर मधुपर्क, कामधेनु और अग्निशुद्ध वस्त्र प्रदान करके चन्दन और पुष्पमाला द्वारा उनकी भक्तिभाव सहित पूजा की। इसके बाद यत्नपूर्वक उन्हें मिष्टान्न, उत्तम अन्न और मधुर पिष्टक का भोजन कराया और सुवासित पान का बीड़ा दिया । तदनन्तर गर्गजी ने बलदेव सहित श्रीकृष्ण को देखकर उन्हें मन-ही-मन प्रणाम किया और पतिव्रता देवकी तथा वसुदेवजी से कहा । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय गर्गजी बोले — वसुदेव ! जरा, बलरामसहित अपने शुद्धाचारी एवं श्रेष्ठ पुत्र श्रीकृष्ण की ओर तो देखो। अब इनकी अवस्था उपनयन संस्कार के योग्य हो गयी है; अतः मेरी इस बात पर ध्यान दो । वसुदेवजी ने कहा — गुरो ! आप यदुवंशियों के पूज्य देव हैं, अतः उपनयन के योग्य ऐसा शुद्ध एवं शुभ मुहूर्त नियत कीजिये, जो सत्पुरुषों के लिये भी प्रशंसनीय हो । गर्गजी बोले — वसु-तुल्य वसुदेव! परसों वह शुभ मुहूर्त है; उस दिन चन्द्रमा और तारा अनुकूल हैं। वह दिन सत्पुरुषों को भी मान्य है; अतः उसी मुहूर्त में तुम उपनयन संस्कार कर सकते हो। इसके लिये यत्नपूर्वक सभी सामग्री एकत्रित करो और सभी भाई-बन्धुओं को निमन्त्रण-पत्र भी भेज दो। गर्गजी के वचन सुनकर वसूपम वसुदेवजी ने सभी जाति-बन्धुओं के पास मङ्गल-पत्रिका भेज दी। फिर दूध, दही, घी, मधु और गुड़ की छोटी-छोटी मनोहर नदियाँ तैयार करायीं और नाना प्रकार के उपहारों की राशि तथा मणि, रत्न, सुवर्ण, मुक्ता, माणिक्य, हीरे, अनेक तरह के आभूषण और वस्त्रों की ढेरियाँ लगवा दीं। इधर भक्तवत्सल श्रीकृष्ण ने भी भक्तिपूर्वक देवगणों, मुनीन्द्रों, श्रेष्ठ सिद्धों और भक्तों का मन-ही-मन स्मरण किया । तदनन्तर उस शुभ दिन के प्राप्त होने पर वे सभी उपस्थित हुए । मुनिश्रेष्ठ, बान्धव, बहुत-से नरेश, देवकन्याएँ, नागकन्याएँ, राजकुमारियाँ, विद्याधरियाँ और बाजा बजाने वाले गन्धर्व भी आये । ब्राह्मण, भिक्षुक, भट्ट, यति, ब्रह्मचारी, संन्यासी, अवधूत और योगी लोग भी पधारे। उस शुभ कर्म में स्त्रियों के भाई-बन्धु, अपने बन्धुओं का समुदाय, नाना का तथा उनके बन्धुओं का कुटुम्ब – ये सभी सम्मिलित हुए। फिर भीष्म, द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा, द्विजवर कृपाचार्य, पत्नी और पुत्रों सहित धृतराष्ट्र, हर्ष और शोक में भरी हुई पुत्रों सहित विधवा कुन्ती तथा विभिन्न देशों में उत्पन्न हुए योग्य राजा और राजकुमार भी आये । नारद! अत्रि, वसिष्ठ, च्यवन, महातपस्वी भरद्वाज, याज्ञवल्क्य, भीम, गार्ग्य, महातपस्वी गर्ग, वत्स, पुत्र सहित धर्म, जैगीषव्य, पराशर, पुलह, पुलस्त्य, अगस्त्य, सौभरि सनक, सनन्दन, तीसरे सनातन, भगवान् सनत्कुमार, वोढु, पञ्चशिख, दुर्वासा, अङ्गिरा, व्यास, व्यासनन्दन शुकदेव, कुशिक, कौशिक, परशुराम, ऋष्यशृङ्ग, विभाण्डक, शृङ्गी, वामदेव, गुण के सागर गौतम, क्रतु, यति, आरुणि, शुक्राचार्य, बृहस्पति, अष्टावक्र, वामन, पारिभद्र, वाल्मीकि, पैल, वैशम्पायन, प्रचेता, पुरुजित्, भृगु, मरीचि, मधुजित्, प्रजापति कश्यप, देवमाता अदिति, दैत्य-जननी दिति, सुमन्तु, सुभानु, एक, कात्यायन, मार्कण्डेय, लोमश, कपिल, पराशर, पाणिनि, पारियात्र, मुनिवर पारिजात, संवर्त, उतथ्य, नर, मैं (नारायण), विश्वामित्र, शतानन्द, जाबालि, तैतिर, योगियों और ज्ञानियों के गुरु ब्रह्मांशभूत सान्दीपनि, उपमन्यु, गौरमुख, मैत्रेय, श्रुतश्रवा, कठ, कच, करथ, धर्मज्ञ भरद्वाज — ये सभी मुनि शिष्योंसहित वसुदेवजी के आश्रम पर पधारे। उन्हें आया देखकर वसुदेवजी ने दण्ड की भाँति भूमि पर लेटकर सबकी चरण-वन्दना की इसी समय अपने वाहन हंस पर सवार हो प्रसन्नमुख वाले ब्रह्मा, रत्ननिर्मित विमान पर आरूढ़ हो पार्वती सहित शंकर, स्वयं नन्दी, महाकाल, वीरभद्र, सुभद्रक, मणिभद्र, पारिभद्र, कार्तिकेय, गणेश्वर, गजराज ऐरावत पर बैठे हुए महेन्द्र, धर्म, चन्द्रमा, सूर्य, कुबेर, वरुण, पवन, अग्नि, संयमनीपुरी के स्वामी यम, जयन्त, नलकूबर, सभी ग्रह आठों वसु, गणों सहित ग्यारहों रुद्र, बारहों आदित्य, शेषनाग तथा अनेकानेक देवगण भी आये । वसुदेवजी ने भक्तिपूर्वक भूमि पर सिर रखकर उन सबकी वन्दना की और भक्तिवश मस्तक झुकाकर परम भक्ति के साथ उन ऋषिगणों, देवेन्द्रों तथा देवगणों का स्तवन आरम्भ किया । उस समय उनका शरीर हर्ष से पुलकायमान हो रहा था। वसुदेवजी बोले — जो परब्रह्म, परम धाम, परमेश्वर, परात्पर, लोकों के प्रतिपालक, वेदों के उत्पादक, सृष्टिकर्ता, सृष्टि के कारण और सनातन देव हैं; वे स्वयं ब्रह्मा, जो देवताओं, मुनीन्द्रों और सिद्धेन्द्रों के गुरु के गुरु हैं, स्वप्न में भी जिनके चरणकमल का क्षणमात्र के लिये दर्शन मिलना परम दुर्लभ है, जिनके स्मरणमात्र से सभी अनिष्ट दूर भाग जाते हैं, वे भगवान् शिव; जिनके स्मरण से मनुष्य सम्पूर्ण संकटों से पार होकर कल्याण का भागी हो जाता है, सर्वप्रथम जिनकी पूजा होती है, जो देवताओं के अगुआ और श्रेष्ठ हैं, कलशों पर भक्तिपूर्वक मन्त्रों द्वारा जिनका आवाहन करने से मङ्गल होता है, जो विघ्नों के विनाशक हैं, वे स्वयं साक्षात् भगवान् गणेश, देवताओं के पूज्य भगवान् कार्तिकेय – ये सब मेरे घर आये हैं । देवताओं की पूजनीया परात्परा सर्वश्रेष्ठा महालक्ष्मी ने भी मेरे गृह में पदार्पण किया है। जो लोकों की आदिरूपिणी, सर्वशक्तिस्वरूपा, मूलप्रकृति, ईश्वरी, परात्परों में भी परमश्रेष्ठ और परब्रह्मस्वरूपिणी हैं; शरत्काल में भक्तिपूर्वक जिनके चरणों की समाराधना करके मनुष्य अपना अभीष्ट सिद्ध कर लेता है; जो परमाद्या, कृपामयी और कृपापरवश हो भारत-भूमि पर आविर्भूत हुई हैं; उन भक्तवत्सला साक्षात् माता पार्वती का सम्पूर्ण देवताओं और गणों के साथ मेरे मन्दिर में शुभागमन हुआ है। दुर्गे ! चूँकि आप मेरे घर पधारी हैं, अतः मैं धन्य और कृतार्थ हो गया । मेरा जीवन सफल हो गया। इस प्रकार वसुदेवजी ने गले में वस्त्र बाँधकर हर्षपूर्वक क्रमशः परस्पर सभी देवों, मुनिवरों और विप्रों की स्तुति की और उन्हें पृथक्-पृथक् श्रेष्ठ रत्न सिंहासनों पर बैठाया। फिर क्रमश: अलग-अलग उनकी विधिवत् पूजा की। तत्पश्चात् भक्तिभावित हृदय से रत्न, मूँगा, मणि, मोती, माणिक्य, हीरा, भूषण, वस्त्र, सुगन्धित चन्दन और पुष्पमालाओं द्वारा ब्रह्मा आदि देवताओं, मुनिसमूहों, ब्राह्मणों और पुरोहित गर्गजी का एक-एक करके वरण किया । तदनन्तर उस शुभ कर्म के अवसर पर सभी के मध्यभाग में स्थित एक रमणीय रत्नसिंहासन पर गणेशजी का पूजा के लिये वरण किया और जिसमें सात तीर्थों का जल, पुष्प-चन्दनयुक्त शीतल, सुवासित स्वर्गगङ्गा का जल, पुष्कर का पुण्यमय जल और समुद्र का जल भरा था, उस सुवर्णकलश से तथा शुद्ध पञ्चामृत और पञ्चगव्य से भक्तिभाव सहित मन्त्रोच्चारणपूर्वक गणेश को स्नान कराया। फिर अग्निशुद्ध वस्त्र, रत्नों के आभूषण, पारिजात-पुष्पों की माला, गन्ध, चन्दन, पुष्प, रत्नों की माला और अंगूठी निवेदित की । नारद! तत्पश्चात् जो समस्त देवताओं के अधिपति, शुभकारक, विघ्नों के विनाशक, शान्त, ऐश्वर्यशाली और सनातन हैं; उन पार्वतीनन्दन गणेश की वसुदेवजी ने स्तुति की। (अध्याय ९९ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद भगवदुपनयने गणेशाभिषेको नाम नवनवतितमोऽध्यायः ॥ ९९ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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