December 29, 2018 | Leave a comment भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व तृतीय – अध्याय २७ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (प्रतिसर्गपर्व — तृतीय भाग) अध्याय २७ सूत जी बोले— मंगलमूत उदयसिंह की सत्ताईसवें वर्ष की अवस्था के आरम्भ में भादों मास के कृष्णपक्ष की दशमी के दिन रानी मलना अधिक चिंतित होने के कारण जननायक को बुलाकर दुःखी होकर उनसे कहने लगी-कच्छप देश के निवासी एवं गौतम कुलभूषण ! प्रिय, तुम इसी समय हरिनागर पर बैठकर कान्यकुब्ज (कन्नौज) से छोटे भाई समेत पुत्र आह्लाद (आल्हा) को जो मेरे अत्यन्त प्यारे बच्चे हैं, शीघ्र बुलालाओ ! इसे सुनकर उन्होंने इनकी बातों पर विशेष ध्यान देकर उस दुःखी रानी मलना को नमस्कार कर वहाँ से प्रस्थान किया। किन्तु राजा परिमल की उन दुःखद बातों का स्मरण कर रानी मलना रुदन करने लगी। चेतना प्राप्त होने पर प्राण विसर्जन के लिए तैयार होकर कहने लगी-हा रामांश आह्लाद (आल्हा) और कृष्णांश सुन्दर प्यारे उदयसिंह ! मुझ हत भागिनी को छोड़कर देवकी को साथ लेकर तुम लोग कहाँ चले गये । उस समय परिमल पुत्र (जननायक) ने रानी को अनेक प्रकार के आश्वासन प्रदान किया और पश्चात् कन्नौज की यात्रा की । ऋषियों ने कहा-रोमहर्षण ! आपने जननायक को परिमल का पुत्र बताया है, अतः हमें यह जानने की इच्छा है कि ये कौन है, और क्या किया है? बताने की कृपा करें। सूत जी बोले-परिमल के पिता का नाम प्रद्योत था, जो दिल्ली के निवासी एवं राजा अनंग के मंत्री थे, यह मैं पहले ही बता चुका हूँ । मुने ! उन्हीं की परिमला नामक पुत्री थी, जो दुःशला के अंश से उत्पन्न तथा रम्भा की भाँति कोमल वदना थी। उसके विवाहार्थ उसके पिता ने स्वयम्बर किया। उस स्वयम्बर में कच्छप प्रदेश के अधीश्वर के पुत्र कमलापति ने उसका सविधान पाणिग्रहण कर उसे लेकर सप्रेम अपने घर को प्रस्थान किया। उन्हीं दोनों के समागम से यह जननायक नामक पुत्र हुआ, जो रणकुशल शूर एवं खड्ग युद्ध में अत्यन्त निपुण है। सिन्धुतीर निवासी राजाओं पर विजय प्राप्त कर उनसे छठा अंश कर प्राप्त किया।९-१४। एक बार राजा पृथ्वीराज ने कर ग्रहण करने के निमित्त अपनी सेनाओं समेत कच्छप देश को प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचने पर उन दोनों (जननायक) और पृथ्वीराज में घोर संग्राम आरम्भ हुआ। वह सूर्यवंशीय एक मास के अन्त में पृथ्वीराज से पराजित हुआ। पश्चात् उस राष्ट्र का त्यागकर वे सपरिवार महावती (महोबा) चले आये। उस समय राजा परिमल ने उन्हें ग्राम प्रदान किया। जिसमें निवास करते हुए वे भूतल में अपने इस नाम से ख्याति प्राप्त हैं। वही कच्छप देशीय (जननायक) परिमल की आज्ञा से कन्नौज जा रहे हैं। उनके यात्रा करने के उपरांत महीपति (माहिल) के अनुमोदन करने पर पृथ्वीराज ने चामुण्ड (चौढा) को आज्ञा प्रदान की कि एक लाख सैनिकों समेत तुम जननायक को बाँध लो इसे शिरोधार्य कर सेनानायक चामुण्ड (चौढा) ने वेत्रवती (बेतवा) नामक नदी के तटपर पहुँचकर सूर्यवंशीय जननायक को रोक लिया। उपरांत उस बाहुशाली एवं संयमी वीर ने अपने खड्ग द्वारा सौ वीरों के शिरच्छेदन करने के पश्चात् आकाश मार्ग से जाकर गजराज पर बैठे हुए सेनापति (चौढ़ा) के मुकुट को अपने हाथ में ले लिया। उस समय लज्जित होकर नम्रतापूर्वक चामुण्ड (चौढा) ने उनसे कहा-आप क्षत्रिय जाति के हैं मेरे तथा अन्य व्राह्मणों के वृत्तिदाता हैं। अतःवीर! मुझे मुकुट देने की कृपा करके चिरजीवी एवं सुखी रहें । इसे सुनकर सनम्र होकर उन्होंने उस शुभमुकुट को लौटा दिया। अनन्तर राजा वामन द्वारा सुरक्षित उनके कुठार नगर में पहुँचकर वहाँ एक वटवृक्ष की छाया में अतिभ्रान्त होने के नाते निर्भय शयन किया। उस सुखप्रद स्थान में उस वीर के शयन करने पर वामन के अपने दूत द्वारा उनके वहाँ आगमन के कारण को जानकर अपने को छिपाते हुए साधारण वेष में आकर हरिनागर घोड़े का अपहरण कर लिया। उस दिव्य अश्व के अपहरण हो जाने पर घोड़े को न देखकर चिंतित होते हुए जननायक ने बहुत रुदन किया । पश्चात् घोड़े के चरण चिह्न देखते हुए वामन के पास पहुँचकर उनसे निर्भय होकर कहा-आप गौरवंश के भूषण हैं। किन्तु क्षत्रियों के हास्यास्पद होने की बात सदैव के लिए आपने इस भूतल में उत्पन्न कर दी है। मेरी प्रार्थना है कि आप राजनीतिज्ञ हैं, अतः अश्व मुझे लौटाकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करें अन्यथा उदयसिंह इस नगर समेत तुम्हारा विनाश कर देंगे । इसे सुनकर गौरवंशीय वामन ने भयभीत होकर अपने हृदय में भली भाँति निश्चित कर हरिनागर उन्हें लौटा दिया । परन्तु स्वर्ण, भाँति-भाँति के रत्नों से विभूषित उस प्रतोद (कोड़े) को लोभवश न लौटा सके, प्रत्युत झूठी शपथ करने लगे। उनके शपथ से कुंठित होकर परिमल पुत्र (जननायक) ने कहा-राजन् ! यह प्रतोद (कोड़े) का लोभ आपके दुर्ग का विनाश कर देगा। इतना कहकर वह वीर उत्तम कन्नौजपुरी में पहुँचा कि हस्तिनी पर लैठे हुए लक्षण (लाखन) ने अभिमान वश कहा-घोड़े पर बैठकर निर्भीक तथा उत्तम क्षत्रिय की भाँति तुम कौ हो। उन्होंने कहा-महाराज-चन्द्रवंशी (परिमल) ने मुझे भेजा है। शरणागत वत्सल ! मैं आपके ही समीप आया हूँ। महीपति (माहिल) के अनुमोदन करने पर पृथवीराज ने रौद्र अस्त्रों द्वारा चन्द्रवंशीय कुल का विध्वंश करना निश्चिय किया है। अतः आप अपनी सेना समेत आह्लाद (आल्हा) आदि के साथ चलने की कृपा करें। महाराज ! इस मय चलकर आप उन मृतकों को प्राणदान दीजिये। एसा कहने पर लक्षण (लाखन) ने जयचन्द्र से प्रणाम पूर्वक पृथ्वीराज के महावती (महोवा) में चढ़ाई करने आदि सभी बातें कह सुनाया। इसे सुनकर जयचन्द्र ने जननायक को बुलाकर कहा-राजा परिमल अत्यन्त क्रूर है, क्योंकि मुझे अपने स्वामी का संबंध स्थगितकर उन्होंने मेरे शत्रु दिल्लीपति पृथ्वीराज से प्रेम संबंध स्थापित किया है। उन्हें ही अपना प्रिय संबंध समझकर इन रक्षकों का भी परित्याग कर दिया। इसलिए इस भूतल में जैसा करे वैसा फल भोगना पड़ता है। (इसमें मैं क्या कर सकता हूँ) इस सुनकर नम्रतापूर्वक उदयसिंह ने कहा-राजन् ! परिमल तो अतिशुद्ध है किन्तु महीपति (माहिल) की बात मानकर वे आपसे पृथक् होकर पृथ्वीराज के वश में हुए हैं। इसलिए प्रार्थना है कि आप सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता है, उस अपराध को क्षमा करें। महाराज की आज्ञा हो। हम लोग उन्हीं के यहाँ निवास करना चाहते हैं। इसे सुन राजा जयचन्द्र ने कहा-उदयसिंह ! मेरे यहाँ के रहने का मूल्य प्रदानकर परिवार समेत शीघ्र जा सकते हो, अन्यथा असम्भव है। इसे सुनकर हँसते हुए सर्वमोहन उदयसिंह ने कहा-मैंने जो चारों ओर भीषण दिग्विजय किया है, उसका कर देने की कृपा करें। पश्चात् आप अपना निवासकर (गृह-किराया) चुका लें । उदयसिंह के इस प्रकार कहने पर अत्यन्त लज्जित होते हुए राजा ने अपेन सात लाख सैनिकों को उनके साथ जाने का आदेश दिया। वीर उदयसिंह ने अपने सभी परिवार एवं लक्षण (लाखन) को भी साथ ले राजा के सामने जाकर उन्हें प्रणाम करके वहाँ से प्रस्थान किया । मार्ग में चलते हुए सर्वप्रथम कुठार नगर के दुर्ग को घेर लिया। उनका आगमन जानकर राजा वामन ने सहर्ष उस प्रतोद (कोड़े) को उन्हें प्रदान किया । बलवान् लक्षण (लाखन) ने दश सहस्र सेना समेत आये हुए उन वामन को पीछे आने के लिए आदेश प्रदान कर स्वयं यमुना नदी के उत्तम तटपर पहुँचने के लिए शीघ्र प्रस्थान किया। वहाँ यमुना जल को पारकर वीर लक्षण (लाखन) ने साठ सहस्र सैनिक समेत उपस्थित राजा गंगासिंह को आगे चलने के लिए आदेश देते हुए स्वयं वेत्रवती (वेतवा) नदी के सुरम्य तट पर पहुँचने के लिए प्रस्थान किया। सेनाओं समेत वहाँ पहुँचने पर समस्त शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित वे वीर क्षत्रियगण वहाँ निवास करने लगे। उसी बीच एक लक्ष सैनिकों समेत वीर चामुण्ड (चौढ़ा) ने भीषण गर्जना करने एवं शत्रुध्वंस करने वाली तोपों को वहाँ रखकर युद्ध आरम्भ कर दिया था। एक पहर तक दोनों ओर की भीषण तोपों की गोलाबारी, युद्ध होने के उपरांत, अपने शूरवीरों को पराजित होते देखकर बली रक्तबीज ने हाथी पर बैठे शीघ्र वहाँ पहुँचकर अपने वाणों द्वारा तालन.के सैनिकों को आघात करना आरम्भ किया। उस आघात से आहत होने पर कुछ सैनिक स्वर्गीय हुए और कुछ इधर उधर भागने लगे, क्योंकि वे सब चामुण्ड (चौड़ा) द्वारा अत्यन्त पीड़ित हो रहे थे । अपनी सेना को भग्न होते देखकर तालन ने अपने परिध अस्त्र के प्रहार द्वारा गजसमेत चामुण्ड को भूमिपर गिरा दिया । उस समय वीर चामुण्ड (चौढ़ा) ने खड्ग युद्ध द्वारा परिध अस्त्र वाले तालन को पराजित कर आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहा कि उसी समय उस शत्रु सेना (लाखन) के निहन्ता के दोनों भुजाओं में वीर लक्षण (लाखन) ने वहाँ आकर शीघ्र अपने भल्लास्त्र द्वारा प्रहार किया। उस समय वह रक्तबीज सहस्र की संख्या में दिखाई देने लगा, जो खड्ग एवं शक्ति आदि अस्त्रों से मुसज्जित होकर युद्ध में दुर्मदान्ध क्षत्रियों को ठहरो-ठहरो कहकर ललकार रहे थे । रक्तबीज के उन अनेक रूपों को देखकर आह्लाद (आल्हा) आदि वीरगण भयभीत होकर महाबली ब्रह्मानन्द के पास पहुँच गये। ब्रह्मानन्द ने उन्हें देखकर अपने पिता के पास जाकर उनसे लक्ष्मण (लाखन) के आगमन का वृत्तान्त कहा मुने ! उसे सुनकर राजा परिमल प्रेम-व्याकुल होकर आह्लाद (आल्हा) के पास पहुँचकर आतुरतावश गद्गद वाणी द्वारा रुदन करने लगे। उस समय कल्याणमुखी देवी देवकी ने प्रेम विभोर राजा से कहा- हम लोग आपके सम्मुख दीन एवं आपकी सेवा पूर्व की भाँति सदैव करने के लिए तैयार हैं । श्रीमान ने ही हमारा त्याग किया था अतः हमलोग अन्य राजा के आश्रित होने के लिए (इधर-उधर) विचर रहे थे। किन्तु यह सब पूर्वजन्म के पापों का दुष्परिणाम था उसे क्षमा करने की कृपा करें। उसे सुनकर राजा परमानन्द मग्न होकर आह्लाद (आल्हा) को मंत्रिपद और समस्त सेनाओं का आधिपत्य उदयसिंह को प्रदान किया । उसके पाँचवें दिन पृथ्वीराज ने जिन्हें चामुण्ड (चौढ़े) के बल का अधिक गर्व था, वहाँ पहुँचकर उनकी नगरी को चारों ओर से घेर लिया। उन दोनों में एक मास तक भयानक युद्ध होने के उपरांत प्रातः काल के निर्मल समय में लक्ष सेनाध्यक्ष उदयसिंह ने चामुण्ड के पास पहुँचकर उनके पृथक्-पृथक् रूपों का शिरच्छेदन कर दिया, जो सहस्र की संख्या में विद्यमान थे। उनके शिरच्छेदन करने पर वे वीरगण लक्ष की संख्या में दिखाई देने लगे । उस समय उन चामुण्डों से पीड़ित होकर इनकी सेना व्याकुल हो उठी। मुने ! उस समय भयभीत होकर उदयसिंह भी मंगलकारिणी देवी शारदा जी की स्तुति करने लगे उदर्यासंह बोले-ब्रह्मलोक की निवासिनी उस मातृ शारदा को नमस्कार है, जिसने शब्द मात्र से निर्मित इस सम्पूर्ण विश्व को विस्तृत किया है। उस चामुण्डा देवी को मैं नमस्कार कर रहा हूँ, जिसने रक्तबीज के हननार्थ चामुण्डा का रूप धारण किया है । (देवी) मैं आपकी शरण में उपस्थित हूँ, मेरी रक्षा कीजिये । इस स्तुति को सुनकर सभी कुछ करनेवाली एवं वरदहस्ता भगवती ने उदयसिंह के खड्ड़ में निवासकर रक्तबीज के सभी रूपों को भस्म कर दिया। उस शत्रु के लक्षरूपों के भस्म हो जाने पर केवल चामुण्ड (चौढ़ा) भूमि पर स्थित रह गया। उस समय उदयसिंह ने उसे बाँधकर ब्रह्मानन्द के पास भेज दिया। उसे सुनकर राजा पृथ्वीराज ने अत्यन्त भयभीत होकर राजा परिमल के पास जो प्रेम विभोर एवं दया की मूर्ति थे, पहुँचकर उनसे कहा-आप मेरे अपराध को क्षमा करने की कृपा करें। महीपति (माहिल) की बातों में आकर मैने ऐसा किया था, जिसके कारण मुझे महान् भय उपस्थित हो गया है। वीर ! आज से आपका हमारा कलह समाप्त होकर प्रेम के रूप में परिणत हो गया, आप हमारे सम्बन्धी हैं और हम आपके सेवक । इसे सुनकर राजा परिमल ने उनसे कहा-रत्नभानु के पुत्र, जिनकी लक्षण (लाखन) नाम से ख्याति है, और जो शरणप्रद हैं, शरण में जाइये। वे विष्णु जी के भक्त एवं अत्यन्त दयालु हैं। इसे सुनकर वली पृथ्वीराज ने ब्राह्मण वेष धारणकर लक्षण (लाखन) के सम्मुख भूमि में उनको साष्टांग दण्डवत् किया। उस समय वीर लक्षण (लाखन) ने भी उनके ऊपर अपार स्नेह प्रकट किया, पश्चात् अपनी सात लाख सेना समेत कान्यकुब्ज (कन्नौज) के लिए प्रस्थान भी किया। अनन्तर उस फाल्गुनमास के अवसर पर सभी लोग अपने-अपने घर चले गये । इन लोगों ने चैत्रमास के आरम्भ में बलखानि (मलखान) के निमित्त गयाश्राद्ध करके उसके शुक्लपक्ष में अपने घर पहुँचकर सहस्र वैदिक ब्राह्मणों को भोजन कराया। (अध्याय २७) Related