December 13, 2018 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ७५ से ७८ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ७५ से ७८ देवर्षि नारद द्वारा सूर्य के विराट् रूप तथा उनके प्रभाव का वर्णन सुमन्तुजी बोले – राजन् ! भयंकर कुष्ठरोग का शाप प्राप्त कर दुःखित हो साम्ब ने अपने पिता भगवान् श्रीकृष्ण से पूछा – तात ! मेरा यह कष्ट कैसे दूर होगा ? कृपाकर इसका उपाय आप बतायें । भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा – वत्स ! तुम भगवान् सूर्य की आराधना करो, उससे तुम्हारा यह कुष्ठरोग दूर हो जायगा । तुम देवर्षि नारद द्वारा सूर्यनारायण के आराधना-विधान की शिक्षा प्राप्त करो । वे प्रसन्न होकर तुम्हें विस्तार से उनकी आराधना का विधान बतलायेंगे ।एक दिन नारदजी द्वारकापुरी में भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिये आये । उसी समय साम्ब ने अत्यन्त विनम्र भाव से जाकर उन्हें प्रणाम किया और हाथ जोड़कर प्रार्थना की । महामुने ! मैं आपकी शरण हूँ, आप मेरे ऊपर कृपाकर कोई ऐसा उपाय बतायें, जिससे मेरा शरीर कुष्ठरोग से मुक्त हो सके और मेरा कष्ट दूर हो जाय । नारदजी ने कहा – साम्ब ! सभी देव जिनकी स्तुति करते हैं , उन्हीं का तुम भी पूजन करो । उन्हीं की कृपासे तुम रोग से मुक्त हो जाओगे । साम्ब ने पूछा – महाराज ! देवगण किसका पूजन और स्तवन करते हैं ? आप ही उसे भी बतायें, जिससे मैं उनकी शरण में जा सकूँ । यह शापाग्नि मुझे दग्ध कर रही है । ऐसे कौन देवता हैं, जो कृपा करके मुझे इस विपत्ति से मुक्त करा सकेंगे ? नारदजी ने कहा – पुत्र ! समस्त देवताओं के पूज्य, नमस्कार करने योग्य और निरन्तर स्तुत्य भगवान् सूर्यनारायण ही हैं । तुम उनके प्रभाव को सुनो – किसी समय समस्त लोकों में विचरण करता हुआ मैं सूर्यलोक में पहुँचा । वहाँ मैंने देखा कि देवता, गन्धर्व, नाग, यक्ष, राक्षस और अप्सराएँ सूर्यनारायण की सेवा में लगे हुए हैं । गन्धर्व गीत गा रहे हैं और अप्सराएँ नृत्य कर रही हैं । राक्षस-यक्ष तथा नाग शस्त्र धारण करके उनकी रक्षा के लिये खड़े हैं । ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद मूर्तिमान् स्वरुप धारण कर स्वयं स्तुति कर रहे हैं और ऋषिगण भी वेदों की ऋचाओं से उनका स्तवन कर रहे हैं । मूर्तिरूप में प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल की तीनों सुन्दर रूप वाली संध्याएँ हाथ में वज्र तथा बाण धारण किये हुए सूर्यनारायण के चारों ओर स्थित हैं । प्रातः-संध्या रक्तवर्ण की है, मध्याह्न-संध्या चन्द्रमा के समान श्वेतवर्ण की एवं सायं-संध्या मंगल के समान वर्णवाली है । आदित्य, वसु, रूद्र, मरुत् तथा अश्विनीकुमार आदि सभी देवगण तीनों संध्याओं में उन भगवान् सूर्य का जय-जयकार करते रहते हैं । गरुड का ज्येष्ठ भ्राता अरुण उनका सारथि है । वह काल के अवयवों से निर्मित उनके रथ का संचालक है । हरे वर्ण के छन्दरूप सात अश्व उनके रथ में जुते हुए हैं । राज्ञी तथा निक्षुभा नामकी दो पत्नियाँ उनके दोनों ओर बैठी हुई हैं । सभी देवता हाथ जोडकर चारों ओर खड़े हैं । पिंगल, लेखक, दण्डनायक आदि गण तथा कल्माष नामक दो पक्षी द्वारपाल के रूप में उनकी सेवामें लगे हुए हैं । दिण्डी उनके सामने तथा ब्रह्मा आदि सभी देवता उनकी स्तुति कर रहे हैं । भगवान् सूर्यनारायण का ऐसा प्रभाव देखकर मैंने सोचा कि यही देव हैं, जो समस्त देवताओं के पूज्य हैं । साम्ब ! तुम उन्हीं की शरण में जाओ । साम्बने पूछा – महाराज ! मैं भलीभाँति यह जानना चाहता हूँ कि सूर्यनारायण सर्वगत कैसे हैं ? उनकी कितनी रश्मियाँ है ? कितनी मूर्तियाँ है ? राज्ञी तथा निक्षुभा नामकी ये दोनों भार्याएँ कौन है ? पिंगल, लेखक और दंडनायक वहाँ क्या कार्य करते हैं ? कल्माष, पक्षी कौन है ? उनके आगे स्थित रहनेवाला दिंडी कौन है ? और वे कौन-कौन देवता हैं, जो उनके चतुर्दिक खड़े रहते हैं ? आप इन सबका तत्त्वतः अच्छी तरहसे वर्णन करें, जिससे मैं भी सूर्यनारायण के प्रभाव को जानकर उनकी शरण में जा सकूँ । नारदजीने कहा – साम्ब ! अब मैं सूर्यनारायण के माहात्म्य वर्णन कर रहा हूँ । तुम उसे प्रेमपूर्वक सुनो – विवस्वान् देव अव्यक्त कारण, नित्य, सत् एवं असत्-स्वरुप हैं । जो तत्त्व-चिंतक पुरुष हैं, वे उनको प्रधान और प्रकृति कहा करते हैं । वे गन्ध, वर्ण तथा रस से हीन एवं शब्द और स्पर्श से रहित हैं । वे जगत् की योनि हैं तथा सनातन परब्रह्म हैं । वे सभी प्राणियों के नियन्ता हैं । वे अनादि, अनन्त, अज, सूक्ष्म, त्रिगुण, निराकार तथा अविज्ञेय हैं, उन्हें परमपुरुष कहा जाता है । उन्हीं महात्मा भगवान् सुर्य से यह सब जगत् परिव्याप्त है । उन परमेश्वर की प्रतिमा ज्ञान एवं वैराग्य लक्षणों वाली ब्राह्मी बुद्धि कही जाती है । उन अव्यक्त की जो भी इच्छा होती है, वही सब उत्पन्न होता है । वे ही सृष्टि के समय चतुर्मुख ब्रह्मा बन जाते हैं और प्रलय के समय कालरूप हो जाते हैं । पालन के समय वे ही पुरुष विष्णुरूप ग्रहण कर लेते हैं । स्वयम्भू पुरुष की ये तीनों अवस्थाएँ उनके तीन गुणों के अनुसार हैं । वे आदिदेव होने के कारण आदित्य तथा अजात होने के कारण अज कहे गये हैं । देवताओं में महान् होने से वे महादेव कहे गए हैं । समस्त लोकों के ईश होने तथा अधीश होने के कारण वे ईश्वर कहे गये हैं । बृहत् होने से ब्रह्मा तथा भवत्व होने से भव कहे जाते हैं । वे समस्त प्रजाओं की रक्षा और पालन करते हैं, इसलिये प्रजापति कहे गए हैं । पुर मे शयन करनेसे ‘पुरुष’, उत्पाद्य न होने और अपूर्व होने ‘स्वयम्भू’ नामसे प्रसिद्ध हैं । हिरण्याण्ड में रहने के कारण ये हिरण्यगर्भ कहे जाते हैं । ये दिशाओं के स्वामी, ग्रहों के ईश, देवताओं के भी देवता होने से देवदेव तथा दिवाकर भी कहे जाते हैं । तत्त्व-द्रष्टा ऋषियों ने अप् को नार कहा है, यह अप् इनका आश्रय है, इसीलिये ‘आप’ नारायण कहे गये हैं । ‘अर’ यह शीघ्रतावाचक शब्द है । ‘आप’ ही समुद्र रुप धारण करनेपर फिर उसमें शीघ्रता नहीं रहती, इसी के कारण उसे नार कहते हैं । प्रलयकाल में सभी स्थावर-जंगम नष्ट हो जाते हैं । जब सम्पूर्ण जगत् समुद्र के समान एकाकार हो जाता है, तब वे पुरुष नारायणरूप धारण करके उस समुद्र में शयन करते हैं । वे पुरुष वेदों में सहस्रों सिरों, सहस्रों भुजाओं, सहस्रों नेत्रों तथा सहस्रों चरणोंवाले कहे गये हैं । वे ही देवताओं में प्रथम देवता तथा जगत् की रक्षा करनेवाले हैं । नारदजी ने पुनः कहा – साम्ब ! सहस्र युग के समान अपनी रात्रि बिताकर प्रभात होते ही उन पुरुष ने जब सृष्टि रचने की इच्छा की, तब उन्होंने देखा कि सम्पूर्ण पृथ्वी जल में डूबी हुई है । तदनन्तर उन्होंने वराहरूप धारण करके महासागर में जल में निमग्न पृथ्वी का उद्धार किया । उससमय उनका वेदमय शरीर कम्पित हो उठा और रोमों में स्थित महर्षिगण उनकी स्तुति करने लगे । पुनः ब्रह्मा का रूप धारण करके वे सृष्टि की रचना करने लगे । उन्होंने सर्वप्रथम अपने ही समान अपने मनसे मुझ-सहित श्रेष्ठ दस मानसपुत्रों को उत्पन्न किया । जिनके नाम है – भृगु, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु. मरीचि, दक्ष एवं वसिष्ठ – इन प्रजापतियों की सृष्टि करने के बाद प्रजाओं की हित कामना से वे ही सूर्यनारायण देवी अदिति के पुत्र-रूप में स्वयं प्रादर्भुत हुए । मरीचि के पुत्र कश्यप हुए । दक्ष की कन्या अदिति का विवाह महर्षि कश्यप के साथ हुआ । उसने ‘भूर्भुवः स्वः’ से संयुक्त एक अण्ड उत्पन्न किया, जिससे द्वादशात्मा भगवान् सूर्य प्रकट हुए । इस सूर्यमण्डल का व्यास नौ हजार योजन है । सत्ताईस हजार योजन उसकी परिधि है । जिस प्रकार कदम्ब का पुष्प चारों ओर केशरों से व्याप्त रहता हैं, उसी प्रकार सूर्यमण्डल अपनी किरणों से परिव्याप्त रहता है । वह सहस्रों सिरवाला पुरुष जिसको परमात्मा कहते हैं, इस तेजोमय मण्डल के मध्य स्थित है । वह अपनी सहस्र किरणोंद्वारा नदी, समुद्र, ह्रद, कूप आदि से जल को ग्रहण कर लेता है । सूर्य की प्रभा (तेज) रात्रि के समय अग्नि में प्रवेश कर जाती है, इसीलिये रात्रि में अग्नि दूर से ही दिखायी देने लगती है । सूर्योदय के समय वही प्रभा पुनः सूर्य में प्रविष्ट हो जाती है । प्रकाशत्व और उष्णत्व – ये दोनों गुण सूर्य में तथा अग्नि में भी है । इसप्रकार सूर्य और अग्नि एक दुसरे को आप्यायित किया करते हैं । साम्ब ! हेति, किरण, गौ, रश्मि, गभस्ति, अभीषु, धन, उस्र, वसु, मरीचि, नाडी, दीधिति, साध्य, मयूख, भानु, अंशु, सप्तार्ची, सुपर्ण, कर तथा पाद – ये बीस भगवान् सूर्य की किरणों के नाम कहे गये हैं, जो संख्या में एक हजार हैं । इनमें से चार सौ किरणें वृष्टि करती हैं, जिसका नाम चन्दन है । इन किरणों का स्वरुप अमृतमय है । तीन सौ किरणें हिम को वहन करती हैं । उनका नाम चन्द्र है और वर्ण पीत है । शेष तीन सौ शुक्ल नामवाली किरणें धूप की सृष्टि करती हैं, ये सभी किरणें ओषधियों, स्वधा तथा अमृत के रूप में मनुष्यों, पितरों तथा देवताओं को सदा संतृप्त करती रहती हैं । ये द्वादशात्मा काल-स्वरुप सूर्यदेव तीनों लोकों में अपने तेज से तपते रहते हैं । ये ही ब्रह्मा विष्णु तथा शिव हैं । ऋक्, यजुः एवं साम – ये तीनों वेद भी ये ही हैं । प्रातःकाल में ऋग्वेद, मध्याह्नकाल में यजुर्वेद तथा संध्याकाल में सामवेद इनकी स्तुति करते हैं । ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के द्वारा इनका पूजन नित्य होता रहता है । जिस प्रकार वायु सर्वगत हैं, उसीप्रकार सूर्य की किरणें भी सर्वव्याप्त हैं । तीन सौ किरणों के द्वारा भूर्लोक प्रकाशित होता रहता है । इसके पश्चात् जो शेष किरणें हैं, वे तीन-तीन सौ की संख्या में शेष अन्य दोनों लोकों (भुवर्लोक और स्वर्लोक) को प्रकाशित करती हैं । एक सौ किरणों से पाताल प्रकाशित होता है । ये नक्षत्र, ग्रह तथा चन्द्रमादि ग्रहों के अधिष्ठान हैं । चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र तथा तारागणों में सूर्यनारायण का ही प्रकाश है । इनकी एक सहस्र किरणों में ग्रहसंज्ञक सात किरणें मुख्य है, जिन्हें सुषुम्णा, हरिकेश, विश्वकर्मा, सूर्य, रश्मि, विष्णु और सर्वबन्धु कहा जाता है । सम्पूर्ण जगत् के मूल भगवान् आदित्य ही हैं । इन्द्र आदि देवता इन्हीं से उत्पन्न हुए हैं । देवताओं तथा जगत् का सम्पूर्ण तेज इन्हीं का है । अग्नि में दी गयी आहुति सूर्यनारायण को ही प्राप्त होती है । इसलिये आदित्य से ही वृष्टि उत्पन्न होती है । वृष्टि से अन्न उत्पन्न होता है तथा अन्न से प्रजा का पालन होता है । ध्यान करने वाले लोगों के लिये ध्यानरूप और मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा से आराधना करने वाले लोगों के लिये ये मोक्षस्वरुप हैं । क्षण, मुहूर्त, दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर तथा युग की कल्पना सूर्यनारायण के बिना सम्भव नहीं है । काल-नियम के बिना अग्निहोत्रादि कर्म नहीं हो सकते । ऋतु-विभाग के बिना पुष्प-फल तथा मूल की उत्पत्ति सम्भव नहीं है । उनके न रहने से तो जगत् के सम्पूर्ण व्यवहार ही नष्ट हो जाते हैं । सूर्यनारायण के सामान्य द्वादश नाम इसप्रकार हैं – आदित्य, सविता, सूर्य, मिहिर, अर्क, प्रतापन, मार्तण्ड, भास्कर, भानु, चित्रभानु, दिवाकर और रवि । विष्णु, धाता, भग, पूषा, मित्र, इन्द्र, वरुण, अर्यमा, विवस्वान्, अंशुमान्, त्वष्टा तथा पर्जन्य – ये द्वादश आदित्य हैं । चैत्रादि बारह महीनों में ये द्वादश आदित्य उदित रहते हैं । चैत्र में विष्णु, वैशाख में अर्यमा, ज्येष्ठ में विवस्वान्, आषाढ़ में अंशुमान्, श्रावण में पर्जन्य, भाद्रपद में वरुण, आश्विन में इन्द्र, कार्तिक में धाता, मार्गशीर्ष में मित्र, पौष में पूषा, माघ में भग और फाल्गुन में त्वष्टा नाम के आदित्य तपते हैं । उत्तरायण में सूर्य-किरणें वृद्धि को प्राप्त करती हैं और दक्षिणायन में वह किरण-वृद्धि घटने लगती है । इस प्रकार सूर्य-किरणें लोकोपकार में प्रवृत्त रहती हैं । जैसे स्फटिक में विभिन्न रंगों के प्रविष्ट होने से अनेक वर्ण का दिखायी देता हैं, जैसे एक ही मेघ आकाश में अनेक रूपों का हो जाता है तथा गुण-विशेष से जैसे आकाश में गिरा हुआ जल भूमि के रस-वैशिष्ट्य से अनेक स्वाद और गुणवाला हो जाता है, जिस प्रकार एक ही अग्नि ईंधन-भेद के कारण अनेक रूपों में विभक्त हो जाती है, जैसे वायु पदार्थों के संयोग से सुगन्धित और दुर्गन्धयुक्त हो जाती है, जैसे गृह्याग्नि के भी अनेक नाम हो जाते हैं, उसीप्रकार एक सूर्यनारायण ही ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि अनेक रूप धारण करते हैं, इसलिये इनकी ही भक्ति करनी चाहिये । इसप्रकार जो सूर्यनारायण को जानता है, वह रोग तथा पापों से शीघ्र ही मुक्त हो जाता है । पापी पुरुष की सूर्यनारायण के प्रति भक्ति नहीं होती । इसलिये साम्ब ! तुम सूर्यनारायण की आराधना करो, जिससे तुम इस भयंकर व्याधि से मुक्त होकर सभी कामनाओं को प्राप्त कर लोगे । (अध्याय ७५ से७८) See Also :- 1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १-२ 2. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय 3 3. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४ 4. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५ 5. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६ 6. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ७ 7. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ८-९ 8. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १०-१५ 9. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १६ 10. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १७ 11. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १८ 12. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १९ 13. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २० 14. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१ 15. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २२ 16. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २३ 17. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २४ से २६ 18. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २७ 19. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २८ 20. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २९ से ३० 21. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३१ 22. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३२ 23. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३३ 24. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३४ 25. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३५ 26. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३६ से ३८ 27. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३९ 28. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४० से ४५ 29. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४६ 30. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४७ 31. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४८ 32. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४९ 33. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५० से ५१ 34. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५२ से ५३ 35. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५४ 36. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५५ 37. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५६-५७ 38. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५८ 39. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५९ से ६० 40. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६१ से ६३ 41. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६४ 42. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६५ 43. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६६ से ६७ 44. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६८ 45. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६९ 46. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ७० 47. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ७१ 48. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ७२ से ७३ 49. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ७४ Related