भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १०७ से १०९
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – १०७ से १०९
सूर्यपदद्वय-व्रत, सर्वाप्ति-सप्तमा एव मार्तण्ड-सप्तमी की विधि

ब्रह्माजी बोले — धर्मज्ञ ! अब मैं जगद्धाता देवदेवेश्वर भगवान् सूर्यनारायण के पदद्वय-माहात्म्य का वर्णन करता हूँ, इसे आप सुनें
अंशुमाली सूर्यदेव ने संसार के कल्याण की कामना से अपने दोनों पादों को एक पादपीठ पर रखा है । उनके वामपाद को उत्तरायण और दक्षिणपाद को ‘दक्षिणायन के रूप में जानना चाहिये । सभी इन्द्र आदि देवगण इनके चरणों की वन्दना करते रहते हैं । हम और आप सूर्यदेव के दक्षिणपाद की अर्चना करते हैं । विष्णु तथा शङ्कर श्रद्धापूर्वक उनके वामपाद की पूजा करते हैं । जो मानव प्रत्येक सप्तमी को भगवान् सूर्यदेव की विधिवत् आराधना करता है, उसपर वे सदा संतुष्ट रहते हैं । om, ॐभगवान् विष्णु ने पूछा — गोलोक-स्वामी सूर्यनारायणकी आराधना किस प्रकार की जाती है ? उसका आप वर्णन करें ।

ब्रह्माजी बोले — उत्तरायण प्रारम्भ होने के दिन स्नान करके संयमित मन से घृत-दुग्ध आदि पदार्थों के द्वारा भगवान् सूर्य को स्नान कराना चाहिये । सुन्दर वस्त्रोपहार, पुष्प-धूप तथा अनुलेपनादि से उनकी विधिवत् पूजा कर ब्राह्मणों को भोजन और दक्षिणादि से संतुष्ट करना चाहिये । उसके बाद सूर्य-भक्ति-परायण व्यक्ति को उनके पदद्वय-व्रत का विधान ग्रहण करना चाहिये । तदनन्तर स्नान करके ‘चित्रभानु’ दिवाकर की वन्दना करनी चाहिये । खाते-चलते, सोते-जागते, प्रणाम करते, हवन और पूजन करते समय भगवान् चित्रभानु को ही जप करते हुए प्रतिदिन उनके नाम-कीर्तन का ही तबतक जप करना चाहिये, जबतक दक्षिणायन का समय न आ जाय । उनकी प्रार्थना इस प्रकार करनी चाहिये —

“परमात्ममयं ब्रह्म चित्रभानुमयं परम् ।
यमन्ते संस्मरिष्यामि स मे भानुः परा गतिः ॥”
(ब्राह्मपर्व १०७ । १७)
‘चित्रभानु परमात्ममय परम ब्रह्म हैं, जिसका अन्तकाल में मैं भली-भाँति स्मरण करूँगा, क्योंकि वे ही सूर्यनारायण मेरी परम गति है ।’

इस प्रकार स्तुति करके षण्मासिक भगवान् सूर्य के व्रत को तबतक करना चाहिये, जबकि दक्षिणायन पूर्ण रूप से न आ जाय । उसके पश्चात् यथाशक्ति ब्राह्मणों को भोजन कराकर भगवान् मार्तण्ड के सामने पुण्य-कथा और आख्यान का पाठ करना चाहिये । भक्तिपूर्वक यथाशक्ति वाचक और लेखक का पूजन भी करना चाहिये । इस प्रकार जो मनुष्य यह व्रत करता है, उसको इसी जन्म में सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है । यदि इस छः मास के बीच में ही व्रती की मृत्यु हो जाती है तो उसे पूर्ण उपवास का फल प्राप्त होता है । इसके अतिरिक्त उसे भगवान् सूर्यनारायण के चरणद्वय-पूजन का फल भी मिलता है ।

ब्रह्माजी पुनः बोले — माघ मासके कृष्ण पक्ष की सप्तमी को सर्वाप्ति-सप्तमी कहते हैं । इस व्रत से सभी अभीप्सित कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं । इस व्रत में पाखण्डी आदि दुराचारियों से वार्तालाप न करे और एकाग्र-मन से विनम्र होकर उन्हीं भगवान् सूर्य का पूजन करे ।
माघ आदि छः मासों में प्रत्येक संक्रान्ति को पारणा मानी गयी है । तदनुसार माघ आदि छः मासों में क्रमशः ‘मार्तण्ड’, ‘क’, ‘चित्रभानु’, ‘विभावसु’, ‘भग’ और ‘हंस’-ये छः नाम कहे गये हैं । पूरे छः मासों में घृत-दुग्धादि पञ्चगव्य पदार्थों को स्नान और प्राशन के लिये प्रशस्त एवं पापनाशक माना गया है ।

इस व्रत में तेल और क्षार पदार्थ ग्रहण न करे, रात्रि में जागरण करे । संसार में सब कुछ देनेवाली यह तिथि सर्वार्थावाप्ति-सप्तमी के नाम से विख्यात है । हे अनघ ! अब मैं कल्याण करने वाली मार्तण्ड-सप्तमी का वर्णन कर रहा हूँ ।

यह व्रत पौष मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को किया जाता है। इसके सम्यक् अनुष्ठान से अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती है । इस दिन व्रत रहकर भगवान् सूर्य का ‘मार्तण्ड’ नाम से पूजन एवं निरन्तर जप करना चाहिये । ब्राह्मण की भी विशेष श्रद्धाभक्ति से पूजा करनी चाहिये । इस प्रकार पवित्र मन से सभी मास में उपासना करके प्रत्येक मास में अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मणों को गौ आदि का दान देना चाहिये । दूसरे वर्ष में उपवासपूर्वक यथाशक्ति सूर्यनारायण के निमित्त गौ आदिका दान देने से व्रती साक्षात् भगवान् मार्तण्ड के लोकको प्राप्त करता है । इस मार्तण्ड नामक सप्तमी को नक्षत्रगण उपासना करके ही द्युलोक में प्रकाशित होते हुए आज भी स्थित दृष्ट होते हैं ।(अध्याय १०७-१०९)

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