October 4, 2024 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण — उमासंहिता — अध्याय 26 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥ श्रीशिवमहापुराण उमासंहिता छब्बीसवाँ अध्याय योगियोंद्वारा कालकी गतिको टालनेका वर्णन देवी बोलीं- हे देव! आपने यथार्थरूपसे कालज्ञानका वर्णन किया, योगिजन जिस प्रकार कालका वंचन करते हैं, आप उसे विधिपूर्वक कहिये । काल सभी प्राणियोंके सन्निकट घूमता है, किंतु योगी आये हुए कालको भी वंचित कर देता है, जिससे उसकी मृत्यु नहीं होती है । हे देव ! मेरे ऊपर कृपा करके आप इसका वर्णन करें। हे सर्वसुखद ! योगियोंके हितके लिये इसका वर्णन करें ॥ १-३ ॥ शिवजी बोले – हे देवि ! हे शिवे ! तुमने मुझसे जो पूछा है, उसे मैं सभी मनुष्योंके हितार्थ संक्षेपमें कहूँगा, तुम सुनो। पृथ्वी, जल, तेज, वायु एवं आकाश- इनका समायोग ही पांचभौतिक शरीर है ॥ ४-५ ॥ आकाशतत्त्व सर्वव्यापी है तथा सभीमें सर्वत्र स्थित है। आकाशमें ही सभी लय हो जाते हैं एवं पुनः उसीसे प्रकट भी हो जाते हैं । हे सुन्दरि ! आकाशसे वियुक्त हो जानेपर पंचभूत अपने-अपने स्थानमें मिल जाते हैं, उस सन्निपातकी स्थिरता नहीं है ॥ ६-७ ॥ सभी ज्ञानी लोग तपस्या एवं मन्त्रके बलसे यह सब भलीभाँति जान लेते हैं । इसमें संशय नहीं है ॥ ८ ॥ महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥ देवी बोलीं- आकाशतत्त्व उस घोररूप कालके द्वारा नष्ट हो जाता है; क्योंकि काल कराल एवं त्रिलोकीका स्वामी है । आपने उस कालको भी जला दिया था, किंतु स्तोत्रोंद्वारा स्तुति किये जानेपर आप उसपर सन्तुष्ट हो गये और उसने पुनः अपना स्वरूप प्राप्त कर लिया ॥ ९ ॥ आपने वार्तालापके माध्यमसे उससे कहा कि तुम लोगोंसे अदृश्य रहकर विचरण करोगे । उस समय आपने उसे महान् प्रभाववाला देखा और आप प्रभुके वरके प्रभावसे वह पुनः उठ खड़ा हुआ ॥ १० ॥ हे महेश ! क्या इस जगत् में कोई साधन है, जिससे काल मारा जा सके, उसे मुझको बताइये; आप योगियोंमें श्रेष्ठ, प्रभावशाली तथा स्वतन्त्र हैं और परोपकारके लिये शरीर धारण किये हुए हैं ॥ ११ ॥ शंकरजी बोले- हे देवि ! बड़े-बड़े देवताओं, दैत्यों, यक्षों, राक्षसों, सर्पों एवं मनुष्योंसे भी काल नहीं मारा जा सकता है, किंतु जो ध्यानपरायण देहधारी योगी होते हैं, वे सरलतापूर्वक कालको मार डालते हैं ॥ १२ ॥ सनत्कुमार बोले— तीनों लोकोंके गुरु शिवकी बात सुनकर पार्वतीने हँसकर कहा – आप मुझे सच – सच बताइये कि योगी किस प्रकार इस कालको अपने वशमें कर लेते हैं ? तब शिवजीने उनसे कहा – हे चन्द्रमुखी ! निष्पाप तथा एकाग्रचित्त जो योगीजन हैं, वे जिस प्रकार [ निमेषादि ] कलाओंवाले कालरूपी सर्पको शीघ्र ही नष्ट कर देते हैं, उसे तुम सुनो ॥ १३ ॥ शंकरजी बोले- हे वरारोहे ! यह पंचभूतात्मक शरीर सदा उनके रूप- रसादि गुणोंसे युक्त होकर उत्पन्न होता है और पुनः यह पार्थिव शरीर उन्हींमें विलीन भी हो जाता है ॥ १४ ॥ आकाशसे वायु उत्पन्न होता है, वायुसे तेज उत्पन्न होता है, तेजसे जल उत्पन्न होता है और जलसे पृथ्वी उत्पन्न होती है। ये क्रमशः पृथ्वी आदि पंचभूत एक-दूसरे में पूर्व – पूर्वके क्रमसे विलीन होते हैं। पृथ्वी पाँच गुणोंवाली कही गयी है । जल चार गुणोंवाला, तेज तीन गुणोंवाला तथा वायु दो गुणोंवाला है। इन पृथिवी आदिमें आकाशतत्त्व एकमात्र शब्द गुणवाला कहा गया है ॥ १५- १७ ॥ जब पंचमहाभूत शब्द, स्पर्श, रूप, रस और पाँचवाँ गन्ध—अपने-अपने इन गुणोंको त्याग देते हैं तो प्राणीकी मृत्यु हो जाती है और जब अपने-अपने गुणोंको ग्रहण करते हैं, तब उसीको जीवका प्रकट होना कहा जाता है । हे देवेशि ! इस प्रकार पाँचों भूतोंको ठीक-ठीक जानो ॥ १८-१९ ॥ अतः हे देवेशि ! कालको जीतनेकी इच्छावाले योगीको यत्नपूर्वक अपने-अपने कालमें उसके अंशभूत हुए गुणोंपर विचार करना चाहिये ॥ २० ॥ पार्वतीजी बोलीं- हे योगवेत्ता प्रभो ! योगी लोग ध्यानसे अथवा मन्त्रसे किस प्रकार कालको जीतते हैं, वह सब मुझसे कहिये ? ॥ २१ ॥ शंकरजी बोले- हे देवि ! सुनो, मैं योगियोंके हितके लिये इसे कहूँगा, जिस किसीको इस उत्कृष्ट ज्ञानका उपदेश प्रदान नहीं करना चाहिये । हे भामिनि ! इसका उपदेश श्रद्धालु, भक्त, बुद्धिमान्, आस्तिक, पवित्र तथा धर्मपरायण व्यक्तिको ही करना चाहिये ॥ २२-२३ ॥ योगीको चाहिये कि उत्तम आसनपर विराजमान हो प्राणायामके द्वारा योगका अभ्यास करे, विशेषकर सब लोगोंके सो जानेपर बिना दीपके अन्धकारमें ही योगाभ्यास करना चाहिये ॥ २४ ॥ एक मुहूर्ततक तर्जनी अँगुलीसे दोनों कान दबाकर बन्द रखे, ऐसा करनेसे [कुछ देर बाद] अग्निप्रेरित शब्द सुनायी पड़ने लगता है ॥ २५ ॥ इससे सन्ध्याके बाद खाया हुआ अन्न क्षणभरमें पच जाता है और वह ज्वर आदि समस्त रोग – उपद्रवोंको शीघ्र नष्ट कर देता है ॥ २६ ॥ जो योगी नित्य दो घड़ीपर्यन्त इस तरहके आकारका ध्यान करता है, वह काम तथा मृत्युको जीतकर अपनी इच्छासे इस लोकमें विचरण करता है और सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी होकर सम्पूर्ण सिद्धियोंको प्राप्त कर लेता है । वर्षाकालमें जिस प्रकार मेघ आकाशमें शब्द करते हैं, उसी प्रकारका यह शब्द है । उसे सुनकर योगी शीघ्र ही संसारबन्धनसे मुक्त हो जाता है। इसके बाद वह योगियोंद्वारा प्रतिदिन [ चिन्तन किया जाता हुआ शब्द ] सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म होता जाता है ॥ २७–२९ ॥ हे देवि ! इस प्रकार मैंने शब्दब्रह्मके ध्यानकी यह विधि तुमसे कह दी। जिस प्रकार धानको चाहनेवाला पुआलका त्याग कर देता है, वैसे योगीको सांसारिक बन्धनका पूर्णरूपसे त्याग कर देना चाहिये । इस शब्दब्रह्मको प्राप्तकर जो कोई भी लोग अन्य पदार्थोंकी इच्छा रखते हैं, वे मानो अपनी मुट्ठीसे आकाशका भेदन करना चाहते हैं और [इस अमृतोपम योगको पा करके भी ] भूख- प्यासकी अपेक्षा रखते हैं ॥ ३०-३१ ॥ [शब्दब्रह्म नामसे कहे गये ] परम सुख देनेवाले, मुक्तिके कारणस्वरूप, अन्तःकरणमें स्थित, अविनाशी तथा सभी उपाधियोंसे रहित इस परब्रह्मको जानकर मनुष्य मुक्त हो जाते हैं । जो इस शब्दब्रह्मको नहीं जानते, वे कालके पाशसे मोहित होकर मृत्युके वशमें होते हैं एवं वे पापी तथा कुबुद्धि हैं। वे संसारचक्रमें तभीतक भटकते रहते हैं, जबतक उन्हें धाम (सबका आश्रय ) प्राप्त नहीं हो जाता। परमतत्त्वके ज्ञात हो जानेपर मनुष्य जन्म- मृत्युरूपी बन्धनसे छूट जाते हैं ॥ ३२-३४ ॥ योगीको चाहिये कि वह निद्रा- आलस्यरूपी महाविघ्नकारी शत्रुको यत्नपूर्वक जीतकर सुखद आसनपर बैठ करके नित्यप्रति शब्दब्रह्मका अभ्यास करे । सौ वर्षकी आयुवाला वृद्ध मनुष्य इसे प्राप्त करके जीवनपर्यन्त इसका अभ्यास करे तो उसे आरोग्यलाभ होता है। उसकी वीर्यवृद्धि होती है और वह मृत्युको जीतकर अपने शरीरको स्थिर रखता है ॥ ३५-३६ ॥ इस प्रकारका विश्वास जब वृद्धमें देखा जाता है, तब युवकजनमें इसकी बात ही क्या ? यह शब्दब्रह्म न ॐकार है, न मन्त्र है, न बीज तथा न अक्षर ही है । हे देवि ! यह शब्दब्रह्म अनाहत तथा उच्चारणसे रहित होता है और यह परम कल्याणकारी है, हे प्रिये ! उत्तम बुद्धिवाले यत्नपूर्वक निरन्तर इसका ध्यान करते हैं ॥ ३७-३८ ॥ उसी अनाहत नादसे [ प्रकट होनेवाले] नौ प्रकारके शब्द कहे गये हैं, जिन्हें प्राणवेत्ताओंने परिलक्षित किया है। हे देवि ! उन्हें तथा नादसिद्धिको यत्नपूर्वक कहता हूँ — घोष, कांस्य, श्रृंग, घण्टा, वीणा, बाँसुरी, दुन्दुभि, शंखशब्द और नौवाँ मेघगर्जन – [ ये अनाहतसे प्रकट होनेवाले शब्द हैं। योगी ] इन नौ शब्दोंका त्यागकर तुंकारशब्दका अभ्यास करे । इस प्रकार ध्यान करनेवाला योगी पुण्यों एवं पापोंसे लिप्त नहीं होता है ॥ ३९-४१ ॥ हे देवि ! जब योगाभ्याससे युक्त योगी सुननेका यत्न करते हुए भी नहीं सुन पाये तो भी मृत्युके समीप आनेपर भी योगी रात-दिन इसी प्रकारका अभ्यास करता रहे, तब उससे सात दिनोंमें मृत्युको जीतनेवाला शब्द उत्पन्न होता है। हे देवि ! वह नौ प्रकारका होता है । मैं यथार्थरूपसे उसका वर्णन करता हूँ ॥ ४२-४३ ॥ पहला घोषात्मक नाद होता है, वह आत्माको शुद्ध करनेवाला, श्रेष्ठ, सभी प्रकारकी व्याधियोंको दूर करनेवाला, मनको वशीभूतकर अपने प्रति आकृष्ट करनेवाला तथा उत्तम होता है ॥ ४४ ॥ द्वितीय कांस्यका शब्द होता है, जो जीवोंकी गतिको रोकता है और विष तथा सभी भूतग्रहोंको दूर करता है, इसमें सन्देह नहीं है । तीसरा श्रृंगनाद है, उसका आभिचारिक कर्ममें प्रयोग करना चाहिये, शत्रुके उच्चाटन तथा मारणमें वह प्रयोग करनेयोग्य है ॥ ४५-४६ ॥ चौथा घण्टानाद होता है, जिसका साक्षात् परमेश्वर उच्चारण करते हैं। वह सभी देवगणोंको भी आकर्षित करनेवाला है, फिर भूलोकके मनुष्योंकी तो बात ही क्या है ? यक्षों तथा गन्धर्वोंकी कन्याएँ उस नादसे आकृष्ट होकर उस योगीको यथेच्छ महासिद्धि प्रदान करती हैं ॥ ४७-४८ ॥ पाँचवाँ नाद वीणा है, जिसे योगीलोग निरन्तर सुनते रहते हैं। हे देवि ! उससे दूर – दर्शनकी शक्ति प्राप्त होती है ॥ ४९ ॥ वंशीनादका ध्यान करनेवाले योगीको सभी तत्त्व प्राप्त हो जाते हैं। दुन्दुभिनादका ध्यान करनेवाला जरा एवं मृत्युसे रहित हो जाता है ॥ ५० ॥ हे देवेशि ! शंखनादका अनुसन्धान करनेसे इच्छानुसार रूपधारणका सामर्थ्य प्राप्त होता है और मेघके नादका ध्यान करनेसे योगीको कोई विपत्ति नहीं होती है ॥ ५१ ॥ हे वरानने ! जो एकाग्र मनसे नित्यप्रति ब्रह्मरूपी तुंकारका ध्यान करता है, उसे इच्छानुसार सब वस्तुएँ प्राप्त होती हैं और उसके लिये कुछ भी असाध्य नहीं होता है। वह सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा कामरूपी होकर [सर्वत्र ] भ्रमण करता है और विकारोंसे युक्त नहीं होता है, वह [साक्षात् ] शिव ही है, इसमें सन्देह नहीं ॥ ५२-५३॥ हे परमेश्वरि ! मैंने यह नौ प्रकारका शब्दब्रह्मस्वरूप तुमसे कहा, अब और क्या सुनना चाहती हो ? ॥ ५४ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें कालवंचनवर्णन नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २६ ॥ Please follow and like us: Related