शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 24
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
चौबीसवाँ अध्याय
दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिव का घोर संग्राम, भगवान् शिव द्वारा चक्र से जलन्धर का शिरश्छेदन, जलन्धर का तेज शिव में प्रविष्ट होना, जलन्धर-वध से जगत् में सर्वत्र शान्ति का विस्तार

व्यासजी बोले — ब्रह्माजी के श्रेष्ठ पुत्र परम बुद्धिमान् हे सनत्कुमारजी ! आपने इस परम अद्भुत कथा का श्रवण कराया । इसके बाद क्या हुआ, उस युद्ध में वह दैत्य जलन्धर किस प्रकार मारा गया, इसे कहिये ॥ १ ॥

सनत्कुमार बोले — जब वह दैत्यपति जलन्धर पार्वती को न देखकर युद्धभूमि में लौट आया और गान्धर्वी माया विलीन हो गयी, तब वृषभध्वज भगवान् शंकर चैतन्य हुए । माया के अन्तर्धान हो जाने पर भगवान् शंकर को ज्ञान हुआ, तदनन्तर संहार करनेवाले शंकर लौकिक गति का आश्रय लेकर अत्यधिक क्रुद्ध हुए ॥ २-३ ॥

शिवमहापुराण

इसके बाद शिवजी विस्मितमन तथा क्रुद्ध होकर जलन्धर से युद्ध करने के लिये चल दिये । उस दैत्य ने भी शिवजी को पुनः आता हुआ देखकर उनपर बाणों की वर्षा करना प्रारम्भ कर दिया ॥ ४ ॥

प्रभु शिवजी ने बलशाली उस जलन्धर के द्वारा छोड़े गये उग्र बाणों को अपने श्रेष्ठ बाणों से बड़ी शीघ्रता से काटकर गिरा दिया । त्रिभुवन-संहारकर्ता शिव के लिये यह कोई अद्भुत बात नहीं हुई । तदनन्तर अद्भुत पराक्रमवाले शंकरजी को देखकर जलन्धर ने उन्हें मोहित करने के लिये माया की पार्वती बनायी ॥ ५-६ ॥

शिवजी ने रथ पर स्थित, बँधी हुई, विलाप करती हुई एवं शुम्भ तथा निशुम्भ के द्वारा मारी जाती हुई पार्वती को देखा । तब उस स्थितिवाली पार्वती को देखकर लौकिक गति प्रदर्शित करते हुए शिवजी सामान्यजनों की तरह अत्यन्त व्याकुल हो उठे ॥ ७-८ ॥ उस समय अनेक प्रकार की लीलाओं में प्रवीण शंकरजी के अंग शिथिल हो गये और अपना पराक्रम भूलकर वे दुखी होकर मुख नीचे करके मौन हो गये ॥ ९ ॥

उसके बाद जलन्धर ने पुंख तक धंसनेवाले तीन बाणों से वेगपूर्वक शिवजी के सिर, हृदय तथा उदरप्रदेश पर प्रहार किया । तब महालीला करनेवाले तथा ज्ञानतत्त्ववाले भगवान् रुद्र ने क्षणभर में अग्निज्वाला के समूह से युक्त अत्यन्त भयंकर रौद्ररूप धारण कर लिया । उनके इस अतिमहारौद्ररूप को देखकर महादैत्यगण सम्मुख खड़े रहने में असमर्थ हो गये और दसों दिशाओं में भागने लगे ॥ १०-१२ ॥

हे मुनीश्वर ! उस समय वीरों में विख्यात महावीर जो शुम्भ एवं निशुम्भ थे, वे भी रण में स्थित न रह सके । जलन्धर के द्वारा रची गयी माया क्षणभर में विलुप्त हो गयी । उस संग्राम में चारों ओर महान् हाहाकार होने लगा । तब उन दोनों को भागते हुए देखकर क्रुद्ध हुए रुद्र ने धिक्कारकर उन शुम्भ-निशुम्भ को इस प्रकार शाप दिया — ॥ १३-१५ ॥

रुद्र बोले — तुम दोनों दैत्य महान् दुष्ट हो, तुम दोनों पार्वती को दण्ड देनेवाले हो, मेरा महान् अपराध करनेवाले हो और इस संग्राम से भाग रहे हो ॥ १६ ॥ युद्ध से भागनेवाले को नहीं मारना चाहिये, अतः मैं तुम दोनों का वध नहीं करूँगा, किंतु गौरी मेरे युद्ध से भागे हुए तुम दोनों का वध अवश्य करेंगी । अभी शंकरजी यह बात कह ही रहे थे कि जलती हई अग्नि के समान समुद्रपुत्र जलन्धर अत्यधिक क्रुद्ध हो उठा ॥ १७-१८ ॥

उसने बड़े वेग के साथ शिवजी पर तीक्ष्ण बाणों की वर्षा करना प्रारम्भ कर दिया, जिससे पृथ्वीतल बाणों के अन्धकार से ढंक गया ॥ १९ ॥ अभी रुद्र उसके बाणों को काटने में लगे ही थे कि इतने में उस बलशाली ने परिघ से वृषभ पर प्रहार किया ॥ २० ॥ उस प्रहार से आहत हुआ वृषभ रणभूमि से पीछे की ओर हटने लगा । शंकरजी के द्वारा खींचे जानेपर भी वह युद्धभूमि में स्थित न रह सका । हे मुनीश्वर ! उस समय महारुद्र ने सभी के लिये अति दुःसह अपना तेज लोक में दिखाया — यह सत्य है । उन प्रभु रुद्र ने अत्यधिक क्रुद्ध होकर रौद्ररूप धारण कर लिया और वे सहसा प्रलयकाल की अग्नि के समान अत्यन्त भयंकर हो गये ॥ २१–२३ ॥

मेरुशृंग के समान अचल उस दैत्य को अपने आगे स्थित देखकर तथा उसे दूसरे से अवध्य जानकर वे स्वयं उस दैत्य को मारने के लिये उद्यत हो गये ॥ २४ ॥ जगत् की रक्षा करनेवाले उन महाप्रभु ने ब्रह्मा के वचन की रक्षा करते हुए और हृदय में दया का भाव रखते हुए उस दैत्य के वध के लिये मन में निश्चय किया ॥ २५ ॥ उस समय क्रोध करके अपनी लीला से त्रिशूलधारी भगवान् शंकर ने महासमुद्र में अपने पैर के अँगूठे से शीघ्र ही भयानक तथा अद्भुत रथ-चक्र का निर्माण किया ॥ २६ ॥

उन्होंने उस महासमुद्र में अत्यन्त जाज्वल्यमान रथचक्र का निर्माण करके तथा यह स्मरणकर कि निश्चय ही इससे तीनों लोकों का वध किया जा सकता है, वे दक्ष, अन्धक, त्रिपुर तथा यज्ञ का विनाश करनेवाले भगवान् शंकर हँसते हुए बोले — ॥ २७ ॥

महारुद्र बोले — हे जलन्धर ! मैंने महासमुद्र में अपने पैर के अँगूठे से इस चक्र का निर्माण किया है, यदि तुम बलवान् हो तो इस चक्र को पानी के बाहर करके मुझसे युद्ध करने के लिये ठहरो, अन्यथा भाग जाओ ॥ २८ ॥

सनत्कुमार बोले — उनके उस वचन को सुनकर जलन्धर की आँखें क्रोध से जलने लगी और वह अपने क्रोधभरे नेत्रों से शंकरजी को जलाता हुआ-सा उनकी ओर देखकर कहने लगा — ॥ २९ ॥
जलन्धर बोला — हे शंकर ! मैं रेखा के समान इस चक्र सुदर्शन को उठाकर गणोंसहित तुम्हारा एवं देवताओं के साथ समस्त लोकों का वधकर गरुड़ के समान अपना भाग ग्रहण करूँगा । हे महेश्वर ! मैं इन्द्रसहित चर-अचर सभी का नाश करने में समर्थ हूँ । इस त्रिलोकी में ऐसा कौन है, जो मेरे बाणों के द्वारा अभेद्य हो ? ॥ ३०-३१ ॥ मैंने अपनी बाल्यावस्था में ही तपस्या के प्रभाव से भगवान् ब्रह्मा को भी जीत लिया था और वे बलवान् ब्रह्मा मुनियों एवं देवताओं के साथ मेरे घर में हैं ॥ ३२ ॥

हे रुद्र ! मैंने चराचरसहित सम्पूर्ण त्रिलोकी को क्षणमात्र में जला दिया और अपनी तपस्या से भगवान् विष्णु को भी जीत लिया है, फिर मैं तुम्हें क्या समझता हूँ ? ॥ ३३ ॥ इन्द्र, अग्नि, यम, कुबेर, वायु, वरुण आदि भी मेरे पराक्रम को उसी प्रकार नहीं सह सकते, जिस प्रकार सर्प गरुड़ की गन्ध को भी सहन नहीं कर सकते ॥ ३४ ॥ हे शंकर ! स्वर्ग तथा भूलोक में मेरे लिये कोई वाहन नहीं मिला, मैंने समस्त पर्वतों पर जाकर सभी गणेश्वरों को परास्त किया है । मैंने अपनी खुजली मिटाने के लिये पर्वतराज हिमालय, मन्दर, शोभामय नीलपर्वत तथा सुन्दर मेरु पर्वत को अपने बाहुदण्ड से घिस डाला है ॥ ३५-३६ ॥

मैंने हिमालय पर्वत पर लीला करने हेतु अपनी भुजाओं से गंगाजी को रोक दिया था । मेरे भृत्यों ने शत्रु देवताओं पर विजय प्राप्त की है । मैंने बड़वानल का मुख अपने हाथों से पकड़कर जब बन्द कर दिया, उसी क्षण सम्पर्ण जगत् जलमय हो गया था । मैंने ऐरावत आदि हाथियों को समुद्र के जल पर फेंक दिया तथा रथसहित भगवान् इन्द्र को सैकड़ों योजन दूर फेंक दिया ॥ ३७-३९ ॥
मैंने विष्णुजी के सहित गरुड़ को भी नागपाश में बाँध लिया तथा उर्वशी आदि अप्सराओं को अपने कारागार में बन्दी बना लिया । हे रुद्र ! त्रिलोकी पर विजय प्राप्त करनेवाले मुझ सिन्धुपुत्र महाबलवान् महादैत्य जलन्धर को तुम नहीं जानते ॥ ४०-४१ ॥

सनत्कुमार बोले — उस समय महादेव से ऐसा कहकर उस समुद्रपुत्र [जलन्धर]-ने युद्ध में मारे गये दानवों का स्मरण नहीं किया और न तो वह [इधर-उधर] हिला-डुला ही । उस दुर्विनीत एवं मदान्ध दैत्य ने दोनों बाहुओं को ठोककर अपने बाहुबल से तथा कटु वचनों से रुद्र का अपमान किया ॥ ४२-४३ ॥ उस दुष्ट के द्वारा कहे गये अमंगल वचन को सुनकर महादेव हँसे तथा बहुत क्रोधित हो गये ॥ ४४ ॥

उन्होंने अपने पैर के अँगूठे से जिस सुदर्शन नामक चक्र का निर्माण किया था, उसको अपने हाथ में ले लिया और उससे उसको मारने के लिये रुद्र उद्यत हो गये ॥ ४५ ॥ भगवान् शिव ने प्रलयकाल की अग्नि के सदृश एवं करोड़ों सूर्यों के समान देदीप्यमान उस सुदर्शनचक्र को उसपर फेंका । आकाश तथा भूमि को प्रज्वलित करते हुए उस चक्र ने वेग से जलन्धर के पास आकर बड़े-बड़े नेत्रोंवाले उसके सिर को वेगपूर्वक काट दिया ॥ ४६-४७ ॥

उस सिन्धुपुत्र दैत्य का शरीर एवं सिर भूतल को नादित करता हुआ रथ से पृथ्वी पर गिर पड़ा और चारों ओर महान् हाहाकार होने लगा ॥ ४८ ॥ काले पहाड़ के समान उसका शरीर दो टुकड़े होकर उसी प्रकार गिर पड़ा, जैसे वज्र के प्रहार से अति विशाल पर्वत दो टुकड़े होकर समुद्र में गिर पड़ता है ॥ ४९ ॥

हे मुनीश्वर ! उसके भयंकर रक्त से सारा जगत् व्याप्त हो गया और उससे पृथ्वी [लाल हो जाने से] विकृत हो गयी । शिवजी की आज्ञा से उसका सम्पूर्ण रक्त एवं मांस महारौरव [नरक]-में जाकर रक्त का कुण्ड बन गया ॥ ५१ ॥ उसके शरीर से निकला हुआ तेज शंकर में उसी प्रकार समा गया, जिस प्रकार वृन्दा के शरीर से उत्पन्न तेज गौरी में प्रविष्ट हो गया था । जलन्धर को मरा हुआ देखकर उस समय देव, गन्धर्व तथा नागगण अत्यन्त प्रसन्न हो उठे और शंकरजी को साधुवाद देने लगे ॥ ५२-५३ ॥

सभी देव, सिद्ध एवं मुनीश्वर भी प्रसन्न हो गये और पुष्पवृष्टि करते हुए उच्च स्वर में उनका यशोगान करने लगे । देवांगनाएँ प्रेम से विह्वल होकर अति आनन्दपूर्वक नृत्य करने लगी और मनोहर रागयुक्त शब्दों से किन्नरों के साथ सुन्दर पदों को गाने लगीं ॥ ५४-५५ ॥ हे मुने! उस समय वृन्दापति जलन्धर के मर जाने पर सभी ओर पवित्र तथा सुखद स्पर्शवाली दिशाएँ प्रसन्न हो गयीं, [शीतल, मन्द, सुगन्ध] तीनों प्रकार की वायु चलने लगी । चन्द्रमा शीतलता से युक्त हो गया, सूर्य परम तेज से तपने लगा, शान्त अग्नि जलने लगी और आकाश निर्मल हो गया । इस प्रकार हे मुने ! अनन्तमूर्ति सदाशिव के द्वारा उस समुद्रपुत्र जलन्धर के मारे जानेपर सम्पूर्ण त्रैलोक्य अत्यधिक शान्तिमय हो गया ॥ ५६-५८ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में जलन्धरवधोपाख्यान के अन्तर्गत जलन्धरवधवर्णन नामक चौबीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २४ ॥

 

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