September 27, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 43 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः तैंतालीसवाँ अध्याय हिरण्यकशिपु की तपस्या, ब्रह्मा से वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंह द्वारा उसका वध और प्रह्लाद को राज्यप्राप्ति व्यासजी बोले — हे सर्वज्ञ ! हे सनत्कुमार ! देवताओं से द्रोह करनेवाले उस हिरण्याक्ष के मार दिये जाने पर उसके ज्येष्ठ भ्राता महान् असुर [हिरण्यकशिपु]ने क्या किया ? हे मुनीश्वर ! मुझे इस वृत्तान्त को सुनने के लिये महान् कौतूहल हो रहा है । हे ब्रह्मपुत्र ! कृपा करके मुझे उसे सुनाइये, आपको नमस्कार है ॥ १-२ ॥ शिवमहापुराण ब्रह्माजी बोले — व्यासजी के वचन को सुनकर सनत्कुमार शिव के चरणकमलों का स्मरण करके कहने लगे — ॥ ३ ॥ सनत्कुमार बोले — हे व्यास ! वराहरूप धारण करनेवाले [भगवान् विष्णु के द्वारा भाई हिरण्याक्ष का वध कर दिये जाने पर हिरण्यकशिपु क्रोध एवं शोक से सन्तप्त हो उठा । इसके बाद विष्णु से वैर में रुचि रखनेवाले उस हिरण्यकशिपु ने प्रजाओं को कष्ट देने के लिये निर्दयी वीर असुरों को आज्ञा दी ॥ ४-५ ॥ तब वे निर्दयी असुर अपने स्वामी की आज्ञा प्राप्तकर देवताओं तथा प्रजाओं को कष्ट देने लगे ॥ ६ ॥ इस प्रकार जब दुष्ट बुद्धिवाले उन असुरों ने लोक का उत्पीड़न प्रारम्भ किया, तब देवतालोग स्वर्ग छोड़कर अलक्षित होकर पृथ्वी पर घूमने लगे ॥ ७ ॥ हिरण्यकशिपु ने भी भाई के मर जाने से दुःखित होकर उसे तिलांजलि आदि प्रदानकर उसकी स्त्री आदि को सान्त्वना प्रदान की ॥ ८ ॥ इसके बाद वह दैत्यराज अपने को अजर, अमर, अजेय और प्रतिद्वन्द्वीरहित जानकर एकच्छत्र राज्य करने लगा ॥ ९ ॥ वह मन्दराचल की गुफा में पैर के अँगूठेमात्र को पृथ्वी पर टेककर दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर आकाश की ओर देखते हुए अत्यन्त कठोर तप करने लगा ॥ १० ॥ इस प्रकार जब वह असुर तप कर रहा था, तब सभी बलवान् देवताओं ने समस्त दैत्यों को जीतकर अपना-अपना पद पुनः प्राप्त कर लिया ॥ ११ ॥ [तपस्या करते हुए] उस हिरण्यकशिपु के सिर से धूमसहित तपोमय अग्नि प्रकट हुई । वह तिरछे, ऊपर, नीचे तथा चारों ओर से फैलकर सभी लोकों को तपाने लगी । उससे तप्त होकर देवगण स्वर्गलोक छोड़कर ब्रह्मलोक चले गये । उसकी तपस्या से विकृत मुखवाले उन देवताओं ने ब्रह्माजी से सारा वृत्तान्त कहा ॥ १२-१३ ॥ हे व्यास ! उन देवताओं के द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर स्वयम्भू ब्रह्माजी भृगु, दक्ष आदि को अपने साथ लेकर उस दैत्येन्द्र के आश्रम पर गये । उसके बाद अपनी तपस्या से सारे लोकों को सन्तप्तकर उस दैत्यराज ने वर देने के लिये आये हुए ब्रह्माजी को देखा । पितामह ब्रह्मा ने भी उससे कहा — वर माँग लो । तब विधाता का मधुर वचन सुनकर वह बुद्धिमान् यह वचन कहने लगा — ॥ १४-१५ ॥ हिरण्यकशिपु बोला — हे भगवन् ! हे प्रजेश ! हे पितामह ! हे देव ! शस्त्र, अस्त्र, पाश, वज्र, सूखे वृक्ष, पहाड़, जल, अग्नि तथा शत्रुओं के प्रहार से और देव, दैत्य, मुनि, सिद्ध तथा आपके द्वारा रचित सृष्टि के किसी भी जीव से मुझे मृत्यु का भय न हो, हे प्रजेश ! अधिक क्या कहूँ, स्वर्ग में, पृथ्वी पर, रात एवं दिन में, ऊपर-नीचे कहीं भी मेरी मृत्यु न हो ॥ १६-१७ ॥ सनत्कुमार बोले — उस दैत्य के इस प्रकार के वचन को सुनकर मन में विष्णु को प्रणाम करके दया से युक्त होकर ब्रह्माजी उससे बोले — हे दैत्येन्द्र! मैं [तुमपर] प्रसन्न हूँ, तुम सब कुछ प्राप्त करो ॥ १८ ॥ [हे दैत्येन्द्र !] अब तुम तपस्या करना छोड़ो; क्योंकि तुम्हारा मनोरथ परिपूर्ण हो गया । उठो, छियानबे हजार वर्ष तक दानवों का राज्य करो । यह वाणी सुनकर वह हर्षित हो गया । उसके अनन्तर ब्रह्माजी के द्वारा अभिषिक्त वह दैत्य प्रमत्त होकर सभी धर्मों को नष्ट करके और देवताओं को भी युद्ध में जीतकर तीनों लोकों को नष्ट करने का विचार करने लगा ॥ १९-२० ॥ तब उस दैत्यराज से पीड़ित हुए इन्द्रादि सभी देवता भय से व्याकुल हो पितामह की आज्ञा प्राप्त करके क्षीरसागर में गये, जहाँ विष्णु शयन करते हैं ॥ २१ ॥ उन्होंने विष्णु को अपने लिये सुखदायक जानकर अनेक प्रकार के वचनों से उनकी स्तुति करके प्रसन्न हुए विष्णु से अपना सारा दुःख निवेदित किया ॥ २२ ॥ तब प्रसन्न विष्णु ने उनका समस्त दुःख सुनकर उन्हें अनेक वरदान दिये और शय्या से उठकर अग्नि के समान तेजस्वी उन्होंने अपने अनुरूप नाना प्रकार की वाणियों से आश्वासन देते हुए कहा कि हे देवताओ ! आपलोग प्रसन्न होकर अपने-अपने स्थान को जायँ; मैं उस दैत्य का वध अवश्य करूँगा ॥ २३-२४ ॥ हे मुनीश ! विष्णु का वचन सुनकर इन्द्र आदि सभी देवता अत्यन्त प्रसन्न हो गये और हिरण्याक्ष के भाई को मरा हुआ मानकर अपने-अपने लोक को चले गये ॥ २५ ॥ तदनन्तर महाजटायुक्त, विकराल, तीखे दाँतस्वरूप आयुधवाले, तीक्ष्ण नखोंवाले, सुन्दर नासिकावाले, पूर्णतः खुले हुए मुखवाले, करोड़ों सूर्य के समान जाज्वल्यमान, अत्यन्त भयंकर, अधिक क्या कहें प्रलयकालीन अग्नि के समान प्रभाववाले वे महात्मा विष्णु जगन्मय नृसिंह का रूप धारण करके सूर्य के अस्त होते समय असुरों की नगरी में गये ॥ २६-२७ ॥ अद्भुत पराक्रमवाले नृसिंह प्रबल दैत्यों के साथ युद्ध करते हुए उन्हें मारकर शेष दैत्यों को पकड़कर घुमाने लगे और उन्होंने उन असुरों को पटककर मार डाला ॥ २८ ॥ दैत्यों ने उन अतुल प्रभाववाले नृसिंह को देखा और उन्होंने पुनः युद्ध करना प्रारम्भ किया । हिरण्यकशिपु के प्रह्लाद नामक पुत्र ने नृसिंह को देखकर राजा से कहा — यह मृगेन्द्र जगन्मय विष्णु तो नहीं हैं ? ॥ २९ ॥ प्रह्लाद बोले — ये भगवान् अनन्त नृसिंह का रूप धारणकर आपके नगर में प्रविष्ट हुए हैं, अतः आप युद्ध छोड़कर उनकी शरण में जाइये, मैं इस सिंह की विकराल मूर्ति को देख रहा हूँ ॥ ३० ॥ [हे दैत्येन्द्र !] इनसे बढ़कर इस जगत् में और कोई योद्धा नहीं है, अतः इनकी प्रार्थना कर आप राज्य करें । तब अपने पुत्र की बात सुनकर दुरात्मा उससे बोला — हे पुत्र ! क्या तुम डर गये हो ? ॥ ३१ ॥ पुत्र से इस प्रकार कहकर दैत्यों के स्वामी उस राजा ने महावीर श्रेष्ठ दैत्यों को आज्ञा दी कि हे वीरो ! इस विकृत भृकुटी तथा नेत्रवाले नृसिंह को पकड़ लो ॥ ३२ ॥ तब उसकी आज्ञा से पकड़ने की इच्छावाले दैत्यश्रेष्ठ उस सिंह की ओर जाने लगे, किंतु वे क्षणभर में इस प्रकार दग्ध हो गये, जैसे रूप की अभिलाषावाले पतिंगे अग्नि के समीप जाते ही जल जाते हैं । उन दैत्यों के दग्ध हो जाने पर वह दैत्यराज स्वयं सभी अस्त्र, शस्त्र, शक्ति, पाश, अंकुश, अग्नि आदि के द्वारा नृसिंह से संग्राम करने लगा ॥ ३३-३४ ॥ हे व्यास ! इस प्रकार शस्त्र धारणकर गर्जनाकर क्रोधपूर्वक परस्पर युद्ध करते हुए उन दोनों महावीरों का ब्रह्मा के एक दिन के बराबर समय व्यतीत हो गया ॥ ३५ ॥ उसके बाद अनेक भुजाओं को धारणकर चारों ओर से युद्ध करते हुए उन नृसिंह को देखकर वह दैत्य पुनः उनसे सहसा भिड़ गया ॥ ३६ ॥ तब वह महादैत्य नाना प्रकार के शस्त्रास्त्रों से अत्यन्त दुःसह संग्राम करके उन शस्त्रास्त्रों के क्षीण हो जाने पर शूल लेकर नृसिंह पर झपट पड़ा ॥ ३७ ॥ इसके बाद नृसिंह ने पर्वत के समान अपनी अनेक कठोर भुजाओं से उसे पकड़ लिया और भुजाओं के मध्य दोनों जानुओं पर उस दानव को रखकर मर्मभेदी नखांकुरों से उसके हृत्कमल को फाड़कर उसे लहूलुहान करके उसके सभी अंगों को चूर्ण कर डाला । प्राणों से रहित हो जाने पर वह उस समय काष्ठ के समान हो गया ॥ ३८-३९ ॥ उस देवशत्रु के मारे जानेपर अद्भुत पराक्रमवाले विष्णु प्रसन्न होकर प्रणाम किये हुए प्रह्लाद को बुलाकर उसे राज्य पर अभिषिक्त करने के अनन्तर अन्तर्धान हो गये । हे विप्र ! तब अत्यन्त हर्षित पितामहादि समस्त देवता अपना कार्य पूर्ण कर चुके स्तुत्य भगवान् विष्णु को एवं उस दिशा की ओर प्रणामकर अपने-अपने धाम को चले गये । [हे व्यास!] मैंने प्रसंगवश रुद्र से अन्धक का जन्म, वराह से हिरण्याक्ष की मृत्यु, नृसिंह से उसके भाई हिरण्यकशिपु का वध एवं प्रह्लाद की राज्यप्राप्ति —इन सबका वर्णन किया ॥ ४०-४२ ॥ हे द्विजवर्य ! अब आप शिवजी से प्राप्त अन्धक के पराक्रम, शिव से उसके युद्ध तथा बाद में उसकी शिवजी से गणाधिपत्य की प्राप्ति को मुझसे सुनिये ॥ ४३ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में गणाधिपत्यप्राप्ति-अन्धकजन्म हिरण्यनेत्र-हिरण्यकशिपुवधवर्णन नामक तैंतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४३ ॥ Related