शिवमहापुराण – शतरुद्रसंहिता – अध्याय 10
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
शतरुद्रसंहिता
दसवाँ अध्याय
नृसिंहचरित्रवर्णन

नन्दीश्वर बोले— [हे सनत्कुमार!] दक्ष प्रजापतिके यज्ञको विध्वंस करनेवाले वीरभद्र नामक [ गणाध्यक्ष ]- को परमात्मा प्रभु शिवजीका अवतार जानना चाहिये, उनका सम्पूर्ण चरित सतीके चरित्रमें कहा गया है। आपने भी उसे अनेक प्रकारसे सुन लिया है, इसीलिये यहाँ विस्तारसे नहीं कहा गया ॥ १-२ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! इसके पश्चात् आपके स्नेहवश अब प्रभु शंकरके शार्दूल नामक अवतारको कह रहा हूँ, उसको सुनिये ॥ ३ ॥ भगवान् सदाशिवने देवताओंके कल्याणार्थ जलती हुई अग्निके समान कान्तियुक्त अत्यन्त अद्भुत शरभ रूपको धारण किया था ॥ ४ ॥ हे मुनिसत्तमो ! श्रेष्ठ भक्तोंके हितसाधक अपरिमित शिवावतार हुए हैं, उनकी संख्याकी गणना नहीं की जा सकती है ॥ ५ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


आकाशके तारोंकी, पृथ्वीके धूलिकणोंकी तथा वर्षाकी बूँदोंकी गणना अनेक कल्पोंमें अनेक जन्म लेकर कोई बुद्धिमान् पुरुष भले ही कर ले, परंतु शिवजीके अवतारोंकी गणना कदापि नहीं की जा सकती है, मेरा यह कथन सत्य समझें । फिर भी जैसा मैंने सुना है, अपनी बुद्धिके अनुसार दिव्य तथा परम ऐश्वर्यसूचक उस शरभ-चरित्रको कह रहा हूँ ॥ ६–८ ॥ हे मुने! जब आपलोगोंद्वारा जय-विजय [ नामक द्वारपालों ] – को शाप दिया गया, तब वे दोनों कश्यपके द्वारा दितिके गर्भसे पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए ॥ ९ ॥ प्रथम हिरण्यकशिपु तथा छोटा भाई महाबली हिरण्याक्ष था, वे दोनों पहले भगवान् विष्णुके देवर्षि- पार्षद थे, जो [आपलोगोंसे शापित होकर ] दितिके पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए ॥ १० ॥ पूर्वकालमें पृथ्वीका उद्धार करनेहेतु ब्रह्माजीद्वारा प्रार्थना किये जानेपर भगवान् विष्णुने वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वध किया ॥ ११ ॥

हे मुने! अपने प्राणोंके समान [ प्रिय] उस वीर भाईको मारा गया सुनकर हिरण्यकशिपुने विष्णुपर अत्यधिक क्रोध किया ॥ १२ ॥ तत्पश्चात् हिरण्यकशिपुने दस हजार वर्षतक तप करके सन्तुष्ट हुए ब्रह्माजीसे यह वरदान प्राप्त किया कि आपकी सृष्टिमें कोई भी मुझे न मार सके ॥ १३ ॥ वह हिरण्यकशिपु शोणितपुर नामक पुरमें जाकर चारों तरफसे देवताओंको बुलाकर त्रिलोकीको अपने वशमें करके निष्कण्टक राज्य करने लगा ॥ १४ ॥ हे मुने! सभी धर्मोंको नष्ट करनेवाला तथा ब्राह्मणोंको पीड़ित करनेवाला पापी हिरण्यकशिपु देवताओं तथा ऋषियोंको सताने लगा ॥ १५ ॥ हे मुने! तदनन्तर विष्णुवैरी दैत्यराजने अपने हरिभक्त पुत्र प्रह्लादसे भी जब विशेषरूपसे द्वेष करना प्रारम्भ कर दिया, तब सभामण्डपके खम्भे सन्ध्याके समय अत्यन्त क्रोधित होकर भगवान् विष्णु नृसिंहशरीरसे प्रकट हुए ॥ १६-१७ ॥ हे मुनिशार्दूल! भगवान् नृसिंहका विकराल तथा भयदायक शरीर सब प्रकारसे महादैत्योंको सन्त्रस्त करता हुआ अग्निके समान जाज्वल्यमान हो उठा ॥ १८ ॥ नृसिंहने उसी क्षण सभी दैत्योंका संहार कर डाला और तब [दैत्योंके संहारको देखकर ] हिरण्यकशिपुने उनसे अत्यन्त भयानक युद्ध किया ॥ १९ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! मुहूर्त भरतक उन दोनोंमें विकराल, सबको भयभीत करनेवाला तथा लोमहर्षक युद्ध होता रहा ॥ २० ॥ सायंकाल होनेपर लक्ष्मीपति देवेश नृसिंहने आकाशमें स्थित देवताओंके देखते-देखते हिरण्यकशिपुको देहलीपर खींच लिया और अपनी गोदमें उसे लेकर नखोंसे शीघ्र स्वर्गनिवासियोंके समक्ष उसका उदर विदीर्णकर मार डाला ॥ २१-२२ ॥

इस प्रकार नृसिंहरूपधारी विष्णुके द्वारा हिरण्यकशिपुके मारे जानेपर जगत् में चारों तरफ शान्ति स्थापित हो गयी, परंतु इससे देवताओंको विशेष आनन्द प्राप्त नहीं हुआ ॥ २३ ॥ देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगीं, प्रह्लाद आश्चर्यचकित हो गये, विष्णुके उस अद्भुत रूपको देखकर लक्ष्मीजी भी अत्यन्त विस्मित हो गयीं ॥ २४ ॥ यद्यपि हिरण्यकशिपु मार डाला गया, किंतु भगवान् नृसिंहके क्रोधकी ज्वाला शान्त नहीं हुई, इसी कारण देवताओंको उत्तम सुख प्राप्त नहीं हो रहा था ॥ २५ ॥ उस ज्वालासे सम्पूर्ण संसार व्याकुल हो उठा, देवता भी दुखी हुए। ‘अब क्या होगा’ – ऐसा कहते हुए वे भयके कारण दूर चले गये । नृसिंहके क्रोधसे उत्पन्न ज्वालासे व्याकुल हुए ब्रह्मा आदिने उस ज्वालाकी शान्तिहेतु प्रह्लादको श्रीहरिके पास भेजा। सभीने मिलकर जब प्रार्थना की, तब प्रह्लाद वहाँ गये ॥ २६–२८॥ कृपानिधि नृसिंहने उन्हें [अपने] हृदयसे लगा लिया, जिससे उनका हृदय तो शीतल हो गया, परंतु क्रोधकी ज्वाला शान्त न हुई ॥ २९ ॥ इसपर भी जब नृसिंहके क्रोधकी ज्वाला शान्त नहीं हुई, तब दुःखको प्राप्त हुए देवता [ भगवान् ] शंकरकी शरणमें गये ॥३०॥ वहाँ जाकर ब्रह्मा आदि सभी देवता तथा मुनिगण संसारके सुखके लिये शिवजीकी स्तुति करने लगे ॥ ३१ ॥

देवता बोले- हे देवदेव ! हे महादेव ! हे शरणागतवत्सल! शरणमें आये हुए हम सभी देवताओं तथा लोकोंकी रक्षा कीजिये ॥ ३२ ॥ हे सदाशिव ! आपको नमस्कार है, आपको नमस्कार है, आपको नमस्कार है। पूर्वकालमें जब भी हमलोगोंपर दुःख पड़ा, तब आपने ही हमलोगोंकी रक्षा की है । जब समुद्रमन्थन किया गया और देवताओंके द्वारा रत्नोंको आपसमें बाँट लिया गया, हे शम्भो ! तब आपने विषको ही ग्रहण कर लिया । हे नाथ! उस समय आपने हमारी रक्षा की और ‘नीलकण्ठ’ इस नामसे प्रसिद्ध हुए। यदि आप विषपान न करते, तो सभी लोग भस्म हो जाते ॥ ३३–३५ ॥ हे प्रभो! यह प्रसिद्ध ही है कि जब जिस किसीको दुःख प्राप्त होता है तब आपके नाममात्रके स्मरणसे ही उसका समस्त दुःख दूर हो जाता है ॥ ३६ ॥ हे सदाशिव ! इस समय नृसिंहके क्रोधकी ज्वालासे पीड़ित हमलोगोंकी रक्षा कीजिये। हे देव ! आप उसे शान्त करनेमें समर्थ हैं—यह पूर्णरूपसे निश्चित है ॥ ३७ ॥

नन्दीश्वर बोले – देवताओं द्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर भक्तवत्सल भगवान् शिव उन्हें परम अभय प्रदान करके प्रसन्नचित्त होकर कहने लगे — ॥३८॥

शंकर बोले- हे ब्रह्मादि देवताओ! आपलोग निडर होकर अपने-अपने स्थानपर जायँ, आपलोगोंका जो दुःख है, उसे मैं सब प्रकारसे दूर करूँगा – यह मेरा व्रत है ॥ ३९ ॥ जो भी मेरी शरणमें आता है, उसका दुःख नष्ट हो जाता है; क्योंकि शरणागत मुझे प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैं, इसमें संशय नहीं है ॥ ४० ॥

नन्दीश्वर बोले- तब यह सुनकर वे देवता परम आनन्दित हुए और वे जैसे आये थे, प्रसन्नतापूर्वक शिवजीका स्मरण करते हुए वैसे ही चले गये ॥ ४१ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहिताके शार्दूल-अवतारमें नृसिंहचरितवर्णन नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥

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