श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-046
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
छियालीसवाँ अध्याय
भगवान् शिव द्वारा ढुण्ढिराज गणेश से काशी जाने की प्रार्थना करना, दुण्डिराज का एक मायावी ज्योतिषी के रूप में काशी जाना तथा वहाँ के स्त्री-पुरुषों एवं राजा दिवोदास को भी अपनी भविष्यवाणियों से मोहित करना
अथः षट्चत्वारिंशोऽध्यायः
बालचरिते ज्योतिर्विद्रूपदर्शनं

मुनि गृत्समद बोले — अविमुक्तक्षेत्र काशी के वियोग से अत्यन्त सन्तप्त भगवान् शिव ने सब प्रकार के अर्थों का अन्वेषण करनेवाले ढुण्डिराज को प्रणाम करके बड़े ही कातरभाव से उनसे प्रार्थना की ॥ १ ॥

भगवान् शिव बोले — [हे ढुण्ढे!] आप पृथ्वी, जल, तेज आदि पाँच महाभूतों के कारणों के भी कारण हैं। आप चिदानन्दघन, विश्व के द्वारा ध्येय तथा वेदान्त के द्वारा गोचर होने वाले हैं। आप ही प्रधान (प्रकृति) भी हैं और आप ही पुरुष भी हैं। सत्त्वादि तीनों गुणों में विभाग करने वाले आप ही हैं। आप समस्त विश्व में व्याप्त रहने वाले हैं, आप ही विश्व के निधि तथा विश्व की रक्षा करने में तत्पर रहते हैं ॥ २-३ ॥ आप नाना प्रकार के अवतार धारण करते हैं और पृथ्वी के भार को हलका करने के लिये उद्यत रहते हैं । आप देवताओं की रक्षा, दैत्यों के निधन तथा द्विजों, धर्मों, दुखीजनों और शरणागतों की रक्षा करने में समर्थ हैं। ब्रह्मस्वरूप आपने अपनी इच्छा से ही मेरी पुत्रता को स्वीकार किया है। फिर आपको छोड़कर काशी के विरह से दुखित मैं अन्य किसकी शरण में जाऊँ ? ॥ ४–५१/२

दुण्ढिराज बोले — हे सदाशिव! आप सर्वविद्या-विशारद देवादि को ही वहाँ क्यों भेजते हैं? आप तो सर्वदर्शी हैं, फिर भी आप मोह को प्राप्त हो रहे हैं ! ॥ ६१/२

शिव बोले — हे गजानन ! राजा दिवोदास के कार्यों में विघ्न उपस्थित करने के लिये तथा मेरे कार्य की सिद्धि के लिये आप इसी समय अविमुक्तक्षेत्र काशी में जायँ और वहाँ जाकर लोगों को मोहित करें, जिससे राजा का पुण्य क्षीण हो जाय ॥ ७-८ ॥

दुण्ढि बोले — हे महादेव ! मैं शीघ्र ही जाता हूँ, आप चिन्ता न करें। मैं आपका कार्य सिद्ध करूँगा । काशीनिवासी जनों के पाप के भागी बने राजा दिवोदास को मैं काशी से बाहर करूँगा, जिससे आप शीघ्र ही अपनी पुरी का दर्शन कर सकेंगे ॥ ९१/२

मुनि गृत्समद बोले — इस प्रकार कह करके सम्पूर्ण विद्याओं तथा कलाओं के निधान, विभु, ढुण्डिराज गजानन ने भगवान् शिव, पार्वती, कार्तिकेय, देवर्षि नारद तथा गुरु को प्रणाम करके और उनकी प्रदक्षिणा करके काशी के लिये प्रस्थान किया ॥ १०-११ ॥ वाराणसी पहुँचकर ढुण्ढिराज ने सर्वत्र दिवोदास का पुण्य ही देखा । तब उनका कोई भी पाप न देखकर उन्होंने शीघ्र ही एक ज्योतिषी का रूप धारण कर लिया। उस समय उनकी कान्ति चमकते हुए स्वर्ण की भाँति थी । देह अत्यन्त दिव्य थी। वे मोतियों की मालाओं से विभूषित थे। उन्होंने नाभि में महान् रत्नों से सुशोभित करधनी पहनी हुई थी ॥ १२-१३ ॥ उन्होंने पीले वस्त्रों का परिधान धारण कर रखा था । शरीर पर दिव्य गन्धों का अनुलेपन किया हुआ था । उनका शरीर कामदेव से भी अधिक सुन्दर था और वे कामिनियों को मोहित करने वाले थे ॥ १४ ॥

वहाँ जो पतिव्रता स्त्रियाँ थीं, वे भी उन ज्योतिर्विद् द्विज के प्रति आकृष्ट हो गयी थीं। ज्योतिर्विद् बने वे दुण्डिराज सबके द्वारा मन में चिन्तित बात को बतला देते थे। अतएव पतिव्रता स्त्रियाँ अपने बालकों, पतियों, भाइयों तथा अन्य सुहृज्जनों को छोड़कर [अकेले ही] अपना प्रश्न पूछने के लिये उनके समीप में आयीं ॥ १५-१६ ॥ वे लोगों को अपनी माया के प्रभाव से स्वप्न दिखलाते थे और फिर उनका उत्तर भी बतला देते थे। वे अपनी सेवा करने वाले जनों को बहुत-से उत्तम वर प्रदान कर देते थे। उनके वरदान के प्रभाव से असाध्य कुष्ठ भी नष्ट हो जाता था और पूर्णरूप से वन्ध्या स्त्रियाँ भी वर की सामर्थ्य से पुत्रवती होने लगीं ॥ १७-१८ ॥ हाथ देखकर वे लोगों के भाग्य तथा उनके कर्मों को बता देते थे। जिस-जिसके द्वारा जो-जो भी भोजन किया हुआ रहता था और जो-जो वह आगे खायेगा; वह सब वे सही-सही तत्क्षण बता देते थे ॥ १९ ॥ उन्हें देखकर काशीनगरी के सभी लोग आश्चर्य- चकित और अत्यन्त प्रसन्नता से भरे हुए थे । वे परस्पर यह कहते थे कि इस प्रकार का ब्राह्मण हमने नहीं देखा, जो कि सब कुछ जानने वाला हो और गुणों का खजाना हो। लोग उनके विषय में यह कहते थे कि ऐसा व्यक्ति न कोई पहले हुआ और न कोई भविष्य में होगा ॥ २०१/२

उनपर पूर्ण विश्वास करके लोग धन तथा रत्नों द्वारा उनकी पूजा करने लगे। मुट्ठी में बन्द वस्तुओं के विषय में वे तत्क्षण ही बता देते थे । प्रश्न पूछने के लिये आये हुए धनहीन तथा पुरुषार्थरहित व्यक्ति के मन की बात को वे जान जाते थे और उससे कहते कि तुम तीन दिन के अन्दर ही धनवान् व्यक्ति हो जाओगे और फिर सच में ऐसा ही होता भी था ॥ २१-२३ ॥ दूर गयी हुई तथा खोयी हुई वस्तु के विषय में वे जैसा कहते थे, ठीक वैसा ही होता था । विप्ररूपधारी उन ढुण्डिराज गजानन के इस प्रकार की भविष्यवाणियाँ करने की बात को लोगों द्वारा कहते हुए जब दो-तीन महीने बीत गये तो यह समाचार राज दिवोदास के कानों तक भी पहुँचा ॥ २४१/२

राजा की रानियाँ तथा अन्य भी पतिव्रतपरायणा स्त्रियाँ, जो कि अभी तक पति के अतिरिक्त अन्य किसी देवता को भी नहीं मानती थीं, वे भी अब पति की आज्ञा लिये बिना ही ‘हमारे पुत्र होगा या कन्या होगी’ इस विचार को जानने के लिये उन ज्योतिर्विद् ब्राह्मण को देखने के लिये निकल पड़ीं। सखियों ने उन्हें यह कहकर रोका कि वे ज्योतिषी दुण्ढि यहीं आ जायँगे ॥ २५-२७ ॥

तदनन्तर उन रानियों ने उन ज्योतिषी को बुलवाया और उन्हें वे एकान्त स्थान में ले गयीं। उन्हें रमणीय आसन पर बैठाकर राजपत्नियों ने उनका भलीभाँति पूजन किया। उनके दर्शन से अत्यन्त विह्वल हुई उन रानियों ने उनके दोनों चरणों को प्रक्षालित किया और उनके शरीर पर कस्तूरी चन्दन का भलीभाँति विलेपन किया ॥ २८-२९ ॥ हाथों से पान का बीड़ा दिया। उन रानियों ने उनसे बहुत-उनके समीप जाकर किसी रानी ने उन्हें स्वयं अपने से प्रश्न पूछे और उन्होंने उन सभी प्रश्नों का सही-सही उत्तर दिया। इस प्रकार उनपर विश्वास हो जाने पर वे सभी अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गयीं। वे घर के कामों को करना छोड़कर तत्पर होकर प्रतिदिन उनका दर्शन-पूजन करने लगीं ॥ ३०-३१/२

‘इस प्रकार का भूत, वर्तमान तथा भविष्य का ज्ञाता ज्योतिषी हमने इससे पूर्व कभी नहीं देखा।’ इस प्रकार कहती हुई वे सभी उन श्रेष्ठ ज्योतिर्विद् की प्रशंसा करने लगीं। तदनन्तर राजा दिवोदास के उठकर वहाँ पहुँचने से पहले उन सभी ने क्षणभर में शीघ्र ही उन्हें विदा कर दिया ॥ ३२-३३ ॥ वे स्त्रियाँ पतिभाव का परित्याग करके उन्हीं ज्योतिर्विद् का सदा चिन्तन किया करती थीं। राजा दिवोदास ने भी उन ज्योतिषी के विषय में जानकर उनको बुलाकर उन्हें प्रणाम किया ॥ ३४ ॥ अपने राजसिंहासन पर उन्हें विराजमानकर विष्टर आदि से उनकी पूजा की और बड़े ही आदरपूर्वक उन्हें गौ, अर्घ्य, धन तथा वस्त्र समर्पित किये ॥ ३५ ॥

राजा ने उनसे जो-जो भी बात पूछी, उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक वह सब ठीक-ठीक बता दिया । अब तो राजा दिवोदास अपने अभीष्ट देव को भूल गये और उनका ही स्मरण-ध्यान करने लगे ॥ ३६ ॥ राजा ने एकान्त में उनसे अनेकों प्रकार के प्रश्न पूछे । तब विश्वास हो जाने पर उनसे आदरपूर्वक प्रार्थना की कि [हे ब्रह्मन् !] मैं आपको अनेकों ग्राम, धन-धान्य प्रदान करूँगा, आप मेरे समीप ही ठहरिये; क्योंकि मैंने आपके बहुत-से चमत्कारों को देखा है ॥ ३७-३८ ॥

तदनन्तर प्रपंच से अर्थात् राजा द्वारा दिये गये प्रलोभनों से रहित होकर दुण्ढि ने कहा — मैं स्त्री, पुत्र कन्या तथा मकान आदि को छोड़कर वाराणसी आया हूँ। मेरी ग्राम, धन-धान्य में कोई रुचि नहीं है, मैं सर्वथा आसक्तिरहित हूँ। मैं एक बात आपको बताता हूँ, उसे आप अपने मन में बैठा लें ॥ ३९-४० ॥ आज से सत्रहवें दिन जो कोई भी पुरुष आपके पास आयेगा और वह आपसे जो कुछ भी कहे, उस बात आप बिना कुछ विचार किये कर लें ॥ ४१ ॥ हे राजन्! इससे तुम्हारा परम कल्याण होगा, इसमें संशय नहीं है। इस बात से ही आप समझ लें कि मैंने आपके द्वारा देने योग्य ग्रामों, धन-धान्य तथा धन-सम्पत्ति को प्राप्त कर लिया ॥ ४२ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘काशिराज का वशीकरण’ नामक छियालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४६ ॥

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