October 13, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-056 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ छप्पनवाँ अध्याय नरान्तक का काशीपुरी पर आक्रमण करने के लिये प्रस्थान अथः षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः नरान्तकनिर्गमनं ब्रह्माजी बोले — तदुपरान्त वे दोनों दूत रौद्रपुर नामक नगर में स्थित नरान्तक के सभाभवन में जा पहुँचे । वह मनोहर सभाभवन मणि-मुक्ता आदि से विभूषित और हजारों स्तम्भों से शोभायमान था । उसकी लम्बाई-चौड़ाई सौ-सौ योजन की थी। उस नाना आश्चर्यों से परिपूर्ण रमणीक सभाभवन में अनेक शूर-वीर बैठे थे ॥ १-२॥ वहाँ विविध प्रकार की मणियों से जटित सुन्दर आसन पर वह नरान्तक बैठा था और उसी के समीप उत्तम आसनों पर उसके दो मन्त्री बैठे थे। जो कि बलवानों में श्रेष्ठ और [शरीर की विशालता के कारण] गगनचुम्बी मस्तकों वाले थे। तभी वे शूर और चपल नामक दूत नरान्तक [-के निकट गये और उस ] – को प्रणामकर [उसके] बहुत-से गुणों का वर्णन करने लगे ॥ ३-४ ॥ दूतों ने कहा — [हे महाराज!] दूत को चाहिये कि वह जो कुछ भी अच्छा-बुरा विवरण हो, उसे बतलाये, ऐसा न करने पर वह अपराधी होता है और उसे स्वामी के दारुण कोप का भाजन बनना पड़ता है । दूत की बात को सुनकर स्वामी को विचारपूर्वक अपना परम हित सिद्ध करना चाहिये ॥ ५१/२ ॥ हम लोग [आपके आदेशानुसार] विनायक का अपकार करने के लिये उस नगर में गये और अत्यन्त गुप्त रीति से बालक विनायक [-का वध करने हेतु अवसर]-की प्रतीक्षा करते हुए रहने लगे ॥ ६१/२ ॥ तब सर्वप्रथम विघण्ट और दन्तुर, जो बालक के रूप में थे तथा विनायक को मारना चाह रहे थे; उन्होंने- विनायक का आलिंगन किया तो उसने दोनों को भस्म कर दिया। तदुपरान्त बालक को उड़ाकर मारने के उद्देश्य से पतंग और विधूल वायुरूप धारणकर जा पहुँचे, तो विनायक ने उनका मस्तक फोड़कर वध कर दिया । तब शिला के रूप में प्रबलासुर आया तो विनायक ने उसके सैकड़ों टुकड़े कर डाले ॥ ७–९ ॥ मार्ग में गधे का रूप धारणकर काम और क्रोध नामक असुर बालक को मारने के लिये खड़े थे, बालक ने उन दोनों को [ वहीं ] भूतल पर पीस डाला ॥ १० ॥ तदुपरान्त विशाल हाथी का रूप धारण करके कुण्डिन्य (कुण्ड) नामक असुर वहाँ रास्ता रोककर खड़ा हो गया तो उस बलशाली कुमार ने कुण्डासुर का गण्डस्थल विदीर्णकर उसे क्षणभर में मार डाला ॥ १११/२ ॥ इसके बाद [विनायक को ] मारने के लिये जृम्भिणी (नामक राक्षसी) धर्मदत्त के घर पहुँची, वहाँ (स्थित) विनायक ने उसके सिर पर नारियल से प्रहार किया, तो वह भी मर गयी। फिर ज्वालासुर, व्याघ्रतुण्डासुर और तीसरा विदारणासुर — ये तीनों बालक को मारने के लिये आये । तब पहले असुर ज्वाल ने उस पुरी को जलाना आरम्भ किया और तीसरा असुर विदारण वायुरूप धारणकर ज्वालासुर की सहायता करने लगा ॥ १२-१४ ॥ [उन तीनों में दूसरा जो] व्याघ्रतुण्ड था, वह सभी प्राणियों का भक्षण करने को उद्यत था । तब अनन्त मायाओं वाले उस बालक ने तीनों को मार डाला ॥ १५ ॥ तदुपरान्त ज्योतिषी के रूपमें मेघनाद नामक असुर आया तो विनायक ने उसको अँगूठी से प्रहार करके मार डाला। यह बड़े आश्चर्य की बात थी। फिर कूप और कन्दर नामवाले दो मायावी असुर भी बलपूर्वक मारे गये। तत्पश्चात् बालक को मारने के लिये अम्भ, अन्धक तथा तुंग नामक असुर आ पहुँचे। एक (अन्धक) -ने पहाड़ बनकर अँधेरा फैला दिया, दूसरा (अम्भ) मूसलाधार वर्षा करने लगा और तीसरा (तुंग) ऊँची चोटीवाला बालक के ऊपर कूद पड़ा ॥ १६–१८ ॥ तब विशाल पक्षी का रूप धारण करके [उस विनायक ने] तीनों को ही बहुत दूर फेंक दिया। फिर उन असुरों का बदला लेने के लिये भ्रमरा नाम की एक राक्षसी सुन्दर युवती के रूप में आयी। वह बालक को खाना चाहती थी। तब उस विघ्नराज ने राक्षसी के वक्ष पर आरूढ़ होकर उसके प्राण हर लिये ॥ १९-२० ॥ तत्पश्चात् विद्युत्-रूप धारणकर हम दोनों बालक को मारने की इच्छा से उसके पास गये तो उस बलिष्ठ ने अपने हाथों से हमें पकड़ लिया। फिर सारी कार्ययोजना को पूछकर उस दयालु ने हमें छोड़ दिया। उसको सारा वृत्तान्त बताकर हमलोग स्वामी (आप) – के समीप उपस्थित हुए हैं ॥ २१-२२ ॥ एक बार उस नगर में सभी लोगों ने अकेले विनायक को भोजन के लिये [एक ही साथ ] निमन्त्रित किया और उसी समय निर्धन शुक्ल ने भी निमन्त्रण दिया। तब सर्वप्रथम उन विभु ने द्रवीभूत वह भात तेल मिलाकर खा लिया और फिर वे अनन्त स्वरूप बनाकर सबके घरों में भोजन करने गये ॥ २३-२४ ॥ वे प्रत्येक घर में काशिराज के साथ भोजन करते रहे, परंतु मोहवश काशिराज उनकी लीला को समझ नहीं सके। हे स्वामिन्! इस प्रकार की सामर्थ्य तो न कहीं देखी गयी है और न सुनी ही गयी है। अतः इस समय जो आपके लिये हितकर हो, उसीको भलीभाँति सम्पन्न किया जाय। हमको तो यही जान पड़ता है कि विनायक को जीतने वाला [कोई] पुरुष तीनों लोकों में ही नहीं है। ॥ २५-२६१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — उन दोनों की ऐसी बातें सुनकर नरान्तक [क्रोध के कारण] जलने लगा। संसार को मानो खा जाने के लिये फैलाये हुए अपने मुख से वह आग उगलने लगा और भयानक भ्रुकुटि को टेढ़ी करके नरान्तक बोला — बन्दर कितना ही उछल-कूद करता हो, पर वह सिंह का कभी अनिष्ट नहीं कर पाता। अजगर में निगलने की शक्ति तो होती है, परंतु वह भूमि को नहीं निगल सकता ॥ २७–२९ ॥ हमें तो आपकी बातें सुनकर मन में आश्चर्य-सा हो रहा है। जुगनू तभी तक चमकता है, जब तक कि चन्द्रमा नहीं दीखता और चन्द्रमा भी तभी तक प्रकाशित होता है, जबतक सूर्य नहीं दृष्टिगत होता। सूर्य का तेज भी तभी तक ही है, जबतक कि राहु नहीं दीख पड़ता ॥ ३०-३१ ॥ [वैसे ही] यह बालक भी तभी तक महान् है, जबतक कालरूप मुझको वह नहीं देख लेता। अब तुम लोग काशिराज के साथ उस बालक को मरा हुआ ही जानो। वह वहीं जाने वाला है, जहाँ उसके द्वारा मारे गये दैत्य गये हैं ॥ ३२१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — ऐसा कहकर वह उठ खड़ा हुआ और दिशाओं को गुँजाते हुए गरजने लगा ॥ ३३ ॥ नरान्तक के गर्जन की ध्वनि से पूरित सारी पृथ्वी काँप उठी। इसके बाद उसने सभी वीरों को आज्ञा दी कि ‘तैयार हो जाओ। कवच धारण करके [मैं स्वयं भी ] काशिराज की नगरी जा रहा हूँ।’ उसके इस प्रकार कहते ही [लड़ने के लिये ] तैयार सेना आ गयी ॥ ३४-३५ ॥ वह चतुरंगिणी सेना अत्यन्त भीषण, ध्वजों से समन्वित तथा [शत्रुओं का] सर्वविध [पराक्रम] शमन करने वाली थी । उस समय सेना के [प्रयाण से उठी हुई ] धूल से सारा दिग्-दिगन्त आच्छादित-सा हो गया ॥ ३६ ॥ सूर्य के [धूल से] ढँक जाने के कारण कुछ भी दिखायी नहीं दे रहा था । सिन्दूर लगाने से रक्ताभ ललाट वाले, संख्यातीत पैदल सैनिक उछल-उछलकर दौड़ते हुए युद्धाभ्यास कर रहे थे। खुले हुए बालों वाले कुछ दूसरे सैनिक हाथों में खड्ग तथा भुशुण्डी लिये हुए थे । [विनायक के हाथों] मारे गये दैत्यों का प्रिय करने की इच्छा वाले कुछ दैत्य हाथों में भिन्दिपाल तथा मुसल लिये थे। कुछ सैनिक हाथों में ढाल, शिलाखण्ड, वृक्ष, खट्वांग, शक्ति तथा पाश लिये हुए [चल रहे ] थे ॥ ३७–३९१/२ ॥ [पैदल सैनिकों के पीछे-पीछे] उस समय घण्टा-ध्वनि से शोभायमान गजसेना चल रही थी । [हाथियों का वह समूह ] सिन्दूर से अरुणिम गण्डस्थल वाला तथा दाँतों और झूल आदि के आवरण से युक्त होने के कारण शोभायमान था। वह चलता हुआ ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानो भाँति-भाँति की धातुओं (गेरू, शिलाजतु आदि) – से समन्वित पर्वतों का समूह जा रहा हो ॥ ४०-४१ ॥ चिंग्घाड़ते और अपने दाँतों को बजाते हुए वे हाथी मानो पहाड़ों को छिन्न-भिन्न-सा करना चाह रहे थे। यदि [ उनको नियन्त्रित करने वाले] महावत न रहते तो वे सबका विध्वंस ही कर डालते। उस समय [गजों के गण्डस्थल से बहते हुए] मदजल ने [दिशाओं को ढक लेने वाली] धूल को शान्त कर दिया ॥ ४२१/२ ॥ तदुपरान्त [नरान्तक की सेना के] घुड़सवार निकले । उनके सिर मुकुट की भाँति शोभायमान शिरस्त्राणों से युक्त थे और उनके हाथों में चाकू, ढाल, कृपाण, धनुष तथा बाण शोभा पा रहे थे। [ नरान्तक की सेना के हाथियों की ] चिंग्घाड़ और [घोड़ों की] हिनहिनाहट ने आकाश को अतिशय गुणयुक्त कर दिया अर्थात् आकाश उन शब्दों से भर – सा गया ॥ ४३-४४ ॥ वे सैनिक कवच, शिरस्त्राण, त्रिशूल [ आदि युद्धोपकरणों]-से समन्वित थे और उन्होंने अपने हाथों में गदा, मुद्गर, पट्टिश, विशाल फरसा आदि आयुधों को धारण कर रखा था। कुछ सैनिक हाथों में चक्र, तोमर, भाला, तलवार, पाश, अंकुश आदि लिये हुए थे। उनके घोड़े नानाविध अलंकारों और चामरों से अलंकृत थे। उन अश्वों में वायुकी-सी तीव्रता और मन के समान गतिशीलता थी, उनकी चेष्टाओं से जान पड़ता था कि वे मानों आकाश को ही आक्रान्त कर लेंगे ॥ ४५-४६१/२ ॥ इसके पश्चात् अपने मन्त्रियों को साथ लेकर रथारूढ़ महारथी नरान्तक ने प्रस्थान किया। उसका रथ स्वर्ण, रजत तथा मुक्तामणियों से जटित, अनेकों अलंकृत घोड़ों से युक्त, नानाविध आयुधों से पूर्ण, सैकड़ों धनुषों और बाणों से समन्वित, छोटी-छोटी घण्टियों से सज्जित और सुवर्णनिर्मित धुरी, ध्वज तथा विशाल पहियों से युक्त था ॥ ४७-४८ ॥ वह नरान्तक स्वर्णाभूषण, मौक्तिकमालिका, अँगूठी, तथा खड्गादि से विभूषित था । उसकी विशाल काया कृष्णवर्ण की थी और उसके हाथ में वीरोचित विजयकंकण बँधा हुआ था। विशाल मुकुट से शोभायमान नरान्तक के कानों में कुण्डल झिलमिला रहे थे और उसने अपने शरीर में केसर, अगुरु, कस्तूरी तथा कर्पूर से युक्त सुगन्धित लेप लगा रखा था ॥ ४९-५० ॥ उसने पवित्र होकर उन अस्त्रों का स्मरण किया, जिनका कहीं भी प्रयोग नहीं किया गया था । वीरोचित आवेश के कारण उसका शरीर वैसे ही फूल गया, जैसे [वातप्रकोप आदि] रोग के कारण रोगी का शरीर फूल जाता है । नाना प्रकार के वाद्यों की ध्वनि से दिशाओं और दिक्कोणों को गुंजित करते हुए अनेकों वीर सैनिक विनायक को जीतने के लिये गरजते हुए दीख रहे थे ॥ ५१-५२ ॥ हाथियों के चिंग्घाड़, घोड़ों की हिनहिनाहट, सैनिकों की ललकार और रथों के पार्श्वभाग की घर्घराहट से बड़ा भीषण नाद हुआ, उसे सुनकर भयभीत देवगण पर्वत-कन्दराओं में प्रविष्ट हो गये । इस प्रकार से वह नरान्तक काशिराज के नगर में जा पहुँचा ॥ ५३ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड के अन्तर्गत ‘नरान्तक का निर्गमन’ नामक छप्पनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५६ ॥ Content is available only for registered users. 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