श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-059
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
उनसठवाँ अध्याय
काशिराज की नरान्तक से मुक्ति
अथः एकोनषष्टितमोऽध्यायः
राजमोक्षणं

मुनि बोले — बालरूपधारी विनायक ने उस पुरुष को कैसे उत्पन्न किया था, जिसने नरान्तक की सेना का भक्षण किया और जो नरान्तक को [विनायक के समीप] ले आया था। यह बात मुझे स्पष्ट रूप से बतलाइये, इस विषय में मुझे अत्यधिक सन्देह हो रहा है ॥ ११/२

ब्रह्माजी बोले — जो परब्रह्म गुणों से परे है, वही ब्रह्म-विष्णु-शिवात्मक विनायक के रूप में सगुण-साकार होकर भास रहा है। वे विनायकदेव पृथ्वी का भार हरने, दुष्टों का विनाश करने और स्वधर्म अर्थात् वेदानुमोदित धर्ममर्यादा के रक्षण के लिये अनन्तानन्त रूपों को धारण करते हैं ॥ २-३१/२

वे ही अपनी शक्ति से विश्व की रचना करते हैं, पालन करते हैं और संहार करते हैं । वे [ यद्यपि स्वतन्त्र हैं, तथापि ] लोक [ – व्यवहार की सिद्धि] – के लिये [उत्पत्ति- ‘विनाशादि की] निमित्तभूता पराशक्ति नियति का अनुवर्तन करते हैं। इस विषय में सन्देह नहीं करना चाहिये, क्योंकि वे विभु अनेकानेक मायाओं के आश्रय हैं ॥ ४-५ ॥ उनकी ही इच्छा से इस जगत् की सर्वविध प्रवृत्तियाँ होती हैं। अब मैं उनकी माया का तुमसे विस्तारपूर्वक वर्णन करूँगा ॥ ६ ॥

नरान्तक के द्वारा बन्दी बनाये गये मन्त्रिपुत्र और काशिराज जबतक राजधानी पहुँचते, उतने समय तक वह कालपुरुष दैत्यराज के द्वारा संरक्षित उस सेना का भक्षण करता रहा। तदुपरान्त जब विनायक ने उस कालपुरुष को मुख में रख लिया तो उसी समय राजा और मन्त्रिपुत्र भी विनायक के मुख में चले गये। उन सबने विनायकदेव के उदरदेश में समस्त विश्व का अवलोकन किया ॥ ७–९ ॥ विनायकदेव के उदर में भ्रमण करते हुए उन लोगों ने पर्वत, वृक्ष, सरिता, सागर, वापी तथा तडागों से समन्वित, मनुष्यों से भरी हुई सप्तद्वीपवती पृथिवी को देखा। देवता, गन्धर्व, मुनिजन, सिद्धगण, यक्ष, निशाचर, सर्प और अप्सराओं से शोभायमान स्वर्गादि ऊर्ध्ववर्ती लोकों को देखा और पाताल आदि सात अधोलोकों को भी उस समय देखा ॥ १०–१११/२

इस प्रकार विनायक के उदरदेश में स्थित विविध कोष्ठों (उदर के अन्तराल ) – में भाँति-भाँति के ब्रह्माण्ड- समूहों को उन्होंने देखा । उनका चित्त विस्मयाविष्ट हो गया था। तदुपरान्त उन्होंने उद्विग्न होकर देवदेव विनायक की शरण ली और मनोयोगपूर्वक वे विनायकदेव से प्रार्थना करने लगे — ‘हे कृपानिधे ! उद्विग्न चित्त से भटकते हुए हम लोगों पर आप अनुग्रह कीजिये ‘ ॥ १२-१४ ॥ तब बालरूपधारी विभु विनायक ने [उनके अन्तःकरण में प्रकट होकर] काशिराज और मन्त्रिपुत्रों को मार्ग दिखलाया । फिर रोमांचित हुए विनायकदेव के रोमकूपों से वे लोग बाहर निकल आये तथा पूर्व की भाँति काशिराज ने अपने नगर को सर्वथा सुरक्षित देखा । राजा ने बालरूप में क्रीड़ा करते हुए कश्यपपुत्र उन विनायक को देखकर और उन्हीं की अनुकम्पा से विचार-सामर्थ्य प्राप्त करके बड़ी ही प्रसन्नता से उनका स्तवन किया — ॥ १५-१६१/२

राजा बोले — हे नाथ! मैंने आपके कुक्षिदेश में स्थित होकर आपकी परम माया का परिचय पा लिया है। आप ही देवता, मनुष्य, दिशा, [विविध प्रकारके] स्वर्गों, सरिताओं और पाताल आदि अधोलोकों को उत्पन्न करने वाले हैं; क्योंकि आपके रोमकूपों में कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड विद्यमान है। [आपके उदरदेश में] भटकते हुए मैंने आपके अनुग्रह से उन सबको देखा है ॥ १७–१९ ॥ हे विश्वकर्ता ! आपके आश्चर्यजनक क्रियाकलाप मैंने बहुत बार देखे हैं। मैं युद्ध करने के लिये गया था और [ उस युद्धभूमि में मेरे साथ ] सेना भी आयी थी। मेरी सेना नरान्तक सैन्यबल को शीघ्र ही जीत लिया था और बाद में मन्त्रिपुत्रों के साथ मैंने नरान्तक को संकटापन्न कर दिया, किंतु उसने एकाएक मेरी सेना को परास्त करके क्षणभर में मुझे भी बन्दी बना लिया ॥ २०-२११/२

तदुपरान्त मैंने अपने समस्त नगर को दग्ध होते देखा और बाद में उस कालपुरुष को भी देखा, जिसने नरान्तक की अनेक प्रकार की सेना को क्षणभर में खा लिया था । वह पुरुष नरान्तक को पकड़कर आपके समीप आया और इसके पश्चात् वह कालपुरुष और हम सभी लोग आपके उदर में प्रविष्ट हो गये। हे प्रभो ! मैंने वहाँ भी आपका दर्शन किया। वहीं पर हमने समग्र विस्तार के साथ सम्पूर्ण जम्बूद्वीप का भी दर्शन किया था ॥ २२–२४ ॥ हे जगदीश्वर! ऐसे ही हमने उदर के दूसरे अन्तराल में विस्तृत भूमण्डल को देखा। इस [विश्वप्रपंच को देखने]-के कारण उद्विग्न हम लोग आपके शरणापन्न हुए ॥ २५ ॥ तदुपरान्त आपकी आज्ञा से रोमांचद्वार अर्थात् स्वाभाविक आनन्दवश उद्घटित रोमकूपों से हम बाहर निकल आये । तदुपरान्त [ बाहर भी] हमें अपना विशाल प्रासाद और बालरूपधारी आप दृष्टिगोचर हुए ॥ २६ ॥ हे देव ! हे विभो ! यह कैसा आश्चर्यजनक मायाजाल है ? वह पुरुष कौन है, जिसने [नरान्तक की] विशाल सेना का भक्षण किया था ? वह दैत्य नरान्तक किसके द्वारा पकड़ा गया था और किसने दैत्य को बचाया था तथा हम लोगों को [बाहर] निकलने के लिये किसने रोमांचद्वार दिखलाया था ? हे देव! मुझ भक्त के इस प्रकार के सन्देह को आप यत्नपूर्वक दूर कीजिये ॥ २७-२८१/२

ब्रह्माजी बोले — जब इस प्रकार का प्रश्न उन बुद्धिमान् नरेश ने किया तो विनायकदेव ने कृपापूर्वक उनके मस्तक पर अपना करतल रखा । तत्काल ही राजा दिव्यज्ञान से सम्पन्न हो गये और उन काशिराज ने बड़े ही भक्तिभाव से देवदेव विनायक का स्तवन किया — ॥ २९-३०१/२

राजा बोले — हे कश्यपात्मज ! आप ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा सूर्य हैं । पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, दिशाएँ, पर्वतोंसहित वृक्षराशि, सिद्धगण, गन्धर्वगण, यक्ष-राक्षसादि, मुनिगण और मनुष्य ये सभी आपका ही स्वरूप हैं। हे सर्वदेवेश्वर ! आप ही चेतनाचेतनात्मक स्थावर-जंगम-जगद्रूप हैं। जन्म-जन्मान्तर की पुण्यराशि के कारण ही आप दृष्टिगोचर हुए हैं ॥ ३१-३३१/२

ब्रह्माजी बोले — जब काशिराज ऐसा कह रहे थे, तभी विनायकने उनको पुनः मोहित कर दिया। तब वे नरेश [पुनः वात्सल्यविवश हो गये और युद्ध से सकुशल लौटे,] वेदना आदि से शून्य उन विनायक का अभिनन्दन करने लगे। तभी राजा के दर्शनार्थ हर्षोल्लास से भरे नगरवासी भी [वहाँ] आ पहुँचे ॥ ३४-३५ ॥ नगरवासियों ने राजा को पुनः पुनः प्रणाम करके [उपहार के रूप में] वस्त्र और आभूषण अर्पित किये तथा राजा ने भी वस्त्र आदि विविध उपहार उनको दिलवाये ॥ ३६ ॥ उन सभी नागरिकों को विदा करके राजा अपनी माता के समीप उपस्थित हुए [ और उनसे बोले — ] हे मातः! आपके अनुग्रह से ही आपके चरणयुगल का दर्शन कर पा रहा हूँ। मुझे तो दैत्यराज ने बन्दी बना लिया था, पर देवदेव विनायक ने बचा लिया। तब हर्षित जननी ने दीर्घकाल के उपरान्त आये हुए [अपने पुत्र] उन नरेश को हृदय से लगा लिया ॥ ३७-३८ ॥

तदुपरान्त दोनों अमात्यों (मन्त्रिपुत्रों) – ने उन राजमाता को प्रणाम करके कहा — आपके ही पुण्यों का प्रभाव है, जो कि हमलोग आपके चरणकमल का दर्शन कर पा रहे हैं । विनायक की माया ने हमें मोहित कर लिया था और उसी के प्रभाव से हम मुक्त भी हो सके ॥ ३९१/२

जब सभी लोग लौट गये तो काशिराज वहाँ से अपनी धर्मपत्नी महारानी अम्बा के निकट गये और हर्ष से गद्गद वाणी से कहने लगे — ॥ ४०१/२

राजा बोले — दैत्यने हमे बन्दी बना लिया था, [जिसके कारण] हम बड़े संकट में पड़ गये थे, परंतु इन विनायक ने अपनी माया से हमें मुक्त कराया और अपने नगर में पहुँचा दिया ॥ ४११/२

ब्रह्माजी बोले — विविध प्रकार के वाद्यों के घोष से, भाँति-भाँति की पताकाओं से, नानाविध महोत्सवों से और विनायकदेव की सामर्थ्यं के कारण [नरान्तक के चंगुल से छूटकर राजधानी] लौटे हुए सभी [स्त्री-पुरुषादि] लोगों से वह नगर शोभायमान हो रहा था ॥ ४२-४३ ॥ कुमार, कुमारियाँ, विवाहित स्त्रियाँ, उनके पति, पिता, माताएँ, पुत्रगण और भाई — ये सभी परस्पर मिलकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और एक-दूसरे को हृदय से लगाने लगे। उन्होंने [इस अवसर पर] अनेकविध दान- पुण्य किये। वे सभी [उल्लासपूर्वक ] खान-पान, दर्शन- भाषणादि करने लगे ॥ ४४-४५ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड के अन्तर्गत ‘राजमोक्षण’ नामक उनसठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५९ ॥

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