श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-060
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
साठवाँ अध्याय
भगवान् विनायक और नरान्तक का युद्ध
अथः षष्टितमोऽध्यायः
श्रीगणेशनरान्तकयुद्धवर्णनं

ब्रह्माजी बोले — तदुपरान्त (कालपुरुष के द्वारा पकड़े जाने पर) विनायक के [पराक्रमपूर्ण] क्रिया-कलाप देखकर नरान्तक बुद्धि से सोचने लगा कि मैंने [आज] इसका अद्भुत तेज देख लिया है ॥ १ ॥ जब काशिराज पकड़े गये तो इसने कालपुरुष को उत्पन्न किया और उसने सब प्रकार से मेरी समस्त सेना का भक्षण कर डाला ॥ २ ॥ [बाद में] मन्त्रिपुत्रों के साथ काशिराज इसके उदर में प्रविष्ट हुए और बिना दैहिक क्षति हुए सकुशल बाहर लाये गये। राजा ने [इसके उदरदेश में समग्र] विश्व का दर्शन भी किया ॥ ३ ॥ इससे यह बात निश्चित हो जाती है कि यह मुझे भोग और मोक्ष दोनों दे सकता है। [इसलिये विनायक से विरोध करना भी कल्याणकारी है, ] अतएव मैं इसका वध करूँगा, अथवा [ यदि मैं इसे न मार सका तो ] यह मुझे मार डालेगा। [दोनों ही दशाओं में मेरा लाभ है ] ऐसा निश्चय करके वह विनायक से कहने लगा — ॥ ४१/२

दैत्य बोला — तुमने इन्द्रजाल का चमत्कार अनेक प्रकार से मुझे दिखाया है, किंतु मैं नरान्तक उससे नहीं डरता; क्योंकि मैं स्वयं ही मायावी हूँ। जिसके निःश्वास मात्र से बड़े-बड़े पहाड़ गिर जाते हैं, [उस] मुझ नरान्तक के केवल भ्रुकुटि-विक्षेप से ब्रह्माण्ड अत्यधिक काँपने लगता है। जिसके करतल के प्रहार से [समूचे] भूमण्डल के दो भाग हो जाते हैं, उसके साथ तुझ बालक का संग्राम किस प्रकार हो सकेगा? जो बाघ के सामने जाय, वह सुखी कैसे हो सकेगा ? ॥ ५–८ ॥

ब्रह्माजी बोले — नरान्तक की ऐसी बातें सुनकर वे बालरूपधारी परमात्मा विनायक कहने लगे —॥ ९ ॥

विनायक बोले — अरे मूढ़ ! तू किसलिये डींग हाँक रहा है। जिस पराक्रम का तू बार-बार वर्णन कर रहा है, वह उस समय कहाँ गया था, जब तेरी सम्पूर्ण सेना खायी जा रही थी ॥ १० ॥ शूर-वीर तो शौर्य दिखलाते हैं, वे शत्रुके पराक्रम की निन्दा करने वाली बातें नहीं कहते और [जो तुमने यह कहा कि मैं बालक हूँ, तो ऐसी बात नहीं है, ] छोटा-सा बिच्छू भी क्षणभर में सिंह को मार डालता है। छोटा-सा दीपक भी घनघोर अँधेरे को नष्ट कर देता है और एक छोटे-से अंकुश से मतवाला हाथी नियन्त्रित हो जाता है। [वास्तव में] जिसकी मृत्यु निकट होती है, वह इसी प्रकार सन्निपातग्रस्त के सदृश भाषण करता है ॥ ११-१२१/२

ब्रह्माजी बोले — विनायकदेव की ऐसी बातें सुनकर दैत्यराज अत्यधिक भय से काँप उठा [फिर उसने अपने चित्त को सुस्थिर किया] और बादलों के जैसी घोर गर्जना करने लगा। वह अपने गर्जनघोष से भूमण्डल को डराता, रुलाता और कँपाता हुआ विनायक को मारने की इच्छा से अतिशय आवेश में आकर वैसे ही दौड़ा, जैसे कोई पतिंगा दीपक की लौ को बुझाने के लिये शीघ्रता से दौड़ने लगे ॥ १३–१५ ॥ उसकी भ्रुकुटी तीन स्थानों पर टेढ़ी हो गयी थी और वह मुख से आग उगल रहा था। नरान्तक को इस प्रकार से आते देख काशिराज ने त्वरापूर्वक अपने धनुष की प्रत्यंचा चढ़ायी और कान तक बाण खींचकर, बन्धन से छुड़ाये गये उस निर्लज्ज दैत्य से शान्तिपूर्वक बोले — ॥ १६-१७ ॥

दैत्येन्द्र! प्राणों का त्याग मत करो। जीवित रहोगे तो अपना अभ्युदय देख सकोगे। तुम यहाँ से लौट जाओ, अन्यथा मारे जाओगे ॥ १८ ॥

ब्रह्माजी बोले — राजा के इन वचनों को सुनकर क्रोध से जलता हुआ दैत्य कहने लगा — ‘तुम जैसे लोगों का भक्षण करने के कारण ही मुझे नरान्तक कहा जाता है। यदि जीना चाहते हो तो इसी समय मेरी शरण में आ जाओ’ ॥ १९१/२

तब राजा ने मरने की इच्छा वाले उस नरान्तक से फिर कहा — ‘ अरे मूढ़ ! विनाशकाल में बुद्धि विपरीत हो जाती है। जब समय विपरीत होता है तो मित्र भी शत्रु बन जाते हैं। वरप्राप्ति के अभिमानवश तुमने अनेकों बार पापपूर्ण कृत्य किये हैं और वरदान के ही प्रभाव से तुमने वज्र को भी कुछ नहीं समझा ॥ २०-२२ ॥ इस समय तुम जैसे पापियों का वध करने और प्रबल भूभार का हरण करने के लिये ही ये कश्यपपुत्र विनायक अवतीर्ण हुए हैं । तुम्हारी पापराशि के कारण वरदान का जो पुण्यबल था, वह शिथिल हो चुका है । ‘ ॥ २३१/२

[राजा की] ऐसी बात सुनकर दैत्यराज मन-ही-मन काँप उठा [ तदुपरान्त] उसने दौड़कर राजा के हाथ से धनुष- बाण छीन लिया और बलपूर्वक भूतल पर पटक दिया, जिससे उसके सैकड़ों खण्ड हो गये। फिर नरान्तक ने मुष्टिका से राजा पर प्रहार किया, जिससे वे वैसे ही भूतल पर गिर पड़े, जैसे वज्र के प्रहार से पर्वत गिर जाता है ॥ २४-२६ ॥ यह देखकर अपने गर्जनघोष से सम्पूर्ण आकाश-मण्डल एवं दसों दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए महाबली विनायक अंकुश लेकर दौड़े। उस समय समस्त भूमण्डल काँप उठा और सभी के नेत्रों को दृष्टिहीन बना देने वाले परशु तेज से सारी दिशाएँ मानो धधकने लगीं। उन्होंने उस परशु से दैत्य के मस्तक पर वैसे ही तीव्र प्रहार किया, जैसे इन्द्र पर्वत पर वज्राघात करते हैं। उनके आघात करते ही दैत्यराज भूतल पर गिर पड़ा ॥ २७–२९ ॥

जैसे शिला के आघात से मर्मस्थल के विदीर्ण होने से व्यक्ति को मूर्च्छा होती है, वैसी ही प्रबल मूर्च्छा उसको परशु के आघात से हुई। कुछ काल के बाद वह दैत्य उठ खड़ा हुआ और दोनों हाथों में दो पर्वतों को उठाकर विनायक को मारने की इच्छा से उनपर फेंक दिया। तब उन विनायक ने सुखपूर्वक पर्वतों को परशु के आघात से सैकड़ों खण्डकर चूर-चूर कर दिया ॥ ३०-३१ ॥ इसके पश्चात् दैत्यराज माया से विविध रूप धारण करने लगा। वह जो-जो रूप धारण करता, विनायक भी तत्काल उसी-उसी रूप में प्रकट हो जाते और उन रूपों के द्वारा शीघ्रता से महादैत्य के अहंकार को चूर्ण कर देते । असुर के द्वारा प्रयुक्त शस्त्रों का उन्हीं शस्त्रों से और नानाविध अस्त्रों का वैसे ही अस्त्रों से विनायकदेव निवारण कर रहे थे ॥ ३२-३३ ॥

तदुपरान्त उन दोनों में परस्पर मल्लयुद्ध होने लगा । वे चरणों से चरणों को, हाथों से हाथों को, घुटनों से घुटनों को और वक्ष:स्थल से वक्ष:स्थल को आहत करते हुए [रक्तरंजित हो गये और उस दशा में वे ] फूलों से लदे पलाशवृक्ष-से जान पड़ते थे। [इस प्रकार द्वन्द्वयुद्ध करते-करते] वे भूतल पर गिर पड़े ॥ ३४-३५ ॥ तदुपरान्त वे दोनों बली योद्धा उठकर एक-दूसरे को कोहनी से मारने लगे। फिर रक्त से लथपथ होकर उन्होंने पृष्ठभाग से पृष्ठभाग को, ललाट  से ललाट को और टखनों से टखनों को आहत किया ॥ ३६१/२

इसके पश्चात् नरान्तक ने भगवान् शिव का स्मरण करके [पर्वतों सहित] वृक्षों की [मायामयी] सृष्टि की और वृक्षों से भरे वे पर्वत विनायक को मारने की इच्छा से उनपर फेंके, किन्तु उनको समीप आने से पहले ही उन विनायक ने छिन्न-भिन्न कर डाला ॥ ३७-३८ ॥ [वृक्षों से युक्त] उन पर्वतों को जब विनायक ने कमल, पाश, अंकुश और प्रचण्ड प्रहार करने वाले परशु से ध्वस्त कर दिया तो उस दैत्य ने एक दूसरी वैसी ही पर्वत-वर्षा की। उसके निवारित होने पर पुनः वर्षा की और जब दैत्य ने फिर [मायामयी पर्वत-] वर्षा की तो विनायक ने उसे भी निरस्त कर दिया ॥ ३९१/२

इधर काशिराज विनायक को मरा जानकर दूर चले आये । तब [लीलावश] विनायक व्यथित हो उठे और मन में सोचने लगे कि इस दैत्य के पराक्रम की तो कोई सीमा ही नहीं है तथा इसपर विजय पाने का कोई उपाय भी नहीं दीखता ॥ ४०-४१ ॥ कब देवगण शत्रुहीन होकर अपने-अपने लोकों को प्राप्त करेंगे। यह नरान्तक तो आज देवान्तक अर्थात् देवताओं का भी विनाशक बना हुआ है ॥ ४२ ॥

जब विनायक इस प्रकार बारम्बार चिन्ता कर रहे थे, तभी उनके [एकाएक] कालदण्ड के समान प्रचण्ड बाण आ-आकर गिरने लगे और उनके समक्ष स्वर्णनिर्मित तरकस में पिनाक नामक धनुष भी आ गिरा, जो अपने तेज से दिशाओं और विदिशाओं (ईशान आदि कोणों) – को उद्भासित कर रहा था ॥ ४३–४४ ॥ छिटकती हुई कान्तिवाले उस शैव धनुष को देखकर वे हर्षयुक्त हो गये और उन्होंने देवताओं के मनोरथ को सिद्ध तथा दैत्य को पराजित समझा। विनायक ने उच्चस्वर से प्रचण्ड घोष करके धनुष और बाणों को ग्रहण कर लिया और पिनाक को [अपनी बाहुरूपी तुला में] तौला। तदुपरान्त उस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ायी ॥ ४५-४६ ॥ विनायकदेव ने दोनों ओर [अपने कन्धों में] तरकस व्यवस्थित किये और भूमि पर घुटने टिकाकर धनुष की टंकार [की, जिसे] सुनकर तीनों लोक काँप उठे । अपने बायें और दायें दोनों हाथों से [धनुष पर बाण रखकर ] उन्होंने धनुष को खींचा और दैत्य को लक्ष्य करके दोनों बाण छोड़ दिये। चिनगारियाँ बरसाते, आकाश को चमकाते, प्राणिसमूह का संहार करते और गरजते हुए वे बाण सहसा दैत्य की भुजाओं के ऊपर जा गिरे ॥ ४७-४९ ॥

उन बाणों ने दैत्य की भुजाओं को वैसे ही गिरा दिया, जैसे उल्का ने वृक्ष को गिराया हो अथवा इन्द्र ने वज्र के आघात से पर्वतशिखरों को ढहा दिया हो ॥ ५० ॥ उन विशाल भुजाओं में से एक तो नरान्तक के दरवाजे पर जा गिरी और दूसरी बरतनों को तोड़ती-फोड़ती उसके पिता के दरवाजे पर । [भुजाओं को काट देने के बाद] विनायक ने दैत्य के दो और भुजाएँ देखीं। फिर वह दैत्य मुँह को फैलाये हुए काल की भाँति [उनकी ओर] दौड़ा। उसने हाथों और पैरों से बहुत सारे वृक्ष विनायक पर फेंके और बाद में तो वह घनघोर वृक्षवर्षा ही करने लगा ॥ ५१–५३ ॥ उस समय सघन अन्धकार छा गया, जिसके कारण कुछ भी ज्ञात नहीं हो पा रहा था । तब दैत्यराज की ऐसी शक्ति देख विनायक उससे कहने लगे ॥ ५४ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड के अन्तर्गत ‘विनायक और नरान्तक के युद्ध का वर्णन’ नामक साठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६० ॥

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