October 17, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-066 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ छाछठवाँ अध्याय देवान्तक का अघोरमन्त्र से हवनकर दिव्य अश्व पाना और उस पर आरूढ़ हो रणक्षेत्र में जाना तथा सिद्धियों की सम्पूर्ण सेना का संहार कर डालना अथः षट्षष्टितमोऽध्यायः सिद्धिपराजय ब्रह्माजी कहते हैं — शारदा और रौद्रकेतु ने अपने पुत्र देवान्तक को रात में अकेले [लौटा हुआ] देखकर उसका आलिंगनकर उससे बातें की ॥ १ ॥ उस समय वह अपना मुख ढक ले रहा था तथा लज्जा से युक्त एवं अत्यन्त विह्वल था । वह कुछ भी बोल नहीं रहा था और प्रबल वायु के झोंके से कम्पायमान वृक्ष की भाँति काँप रहा था ॥ २ ॥ [ देवान्तक के ] पिता ने कहा — तुम अपने विषय में क्यों नहीं बता रहे हो? मूक की भाँति क्यों चुप हो ? तुम्हारी अभिलषित वस्तु यदि तीनों लोकों के लिये दुर्लभ हो, तो उसे भी मैं अपने प्रयत्न से उपलब्ध करा दूँगा ॥ ३ ॥ ब्रह्माजी कहते हैं — पिता की वाणीरूपा सुधा का पानकर पुत्र देवान्तक ने सावधानचित्त होकर माता के निकट स्थित पिता से निःशंक होकर कहा ॥ ४ ॥ पुत्र (देवान्तक) – ने कहा — मैं आपकी आज्ञा लेकर ही विनायक से युद्ध करने गया था। वहाँ मैंने अपने सर्पतुल्य असंख्य विषैले बाणों से बहुत-से देवताओं को नष्ट कर दिया और कश्यपपुत्र विनायक की सेना को मारकर रक्त की नदियाँ बहा दीं। तभी देवसेना के रक्षणार्थ एक महान् कृत्या मेरे निकट आ गयी। उसका मुख गुफा के सदृश था और [ऊँचाई में] वह आकाश का स्पर्श कर रही थी। उसके केश बड़े भयंकर थे और पाताल तक व्याप्त चरणों वाली उस कृत्या के स्तन पर्वत के समान [विशाल ] थे ॥ ५–७ ॥ हे तात! [मेरे द्वारा ] खड्ग का प्रहार किये जाने पर भी उसे तनिक भी व्यथा नहीं हुई और उसने मेरी सम्पूर्ण सेना को अपने गुफासदृश गर्भाशय में रख लिया ॥ ८ ॥ उसने मेरे सम्पूर्ण शस्त्रों और बाणसमूहों का भक्षण कर लिया और मुझे [भी] अपने गर्भाशय में रख विनायकदेव के पास चली गयी ॥ ९ ॥ उसके गर्भाशय की स्निग्धता के कारण मैं वहाँ से स्खलित होकर भूमि पर गिर पड़ा। महान् अन्धकार होने के कारण किसी को ज्ञात न हो सका और मैं वहाँ से भागकर नदी के जल में स्नानकर घर आ गया । हे तात! इसीलिये मैं लज्जित और नीचे मुख किये हुए हूँ ॥ १०१/२ ॥ ब्रह्माजी कहते हैं — तब पुत्र के इस प्रकार के वचन सुनकर रौद्रकेतु ने उससे कहा — ‘तुम चिन्ता न करो, मैं तुमसे एक उपाय कहता हूँ’ ॥ १११/२ ॥ तदनन्तर [शुभ] मुहूर्त देखकर उसने उसको बीजसहित अघोर महामन्त्र प्रदान किया। उसके बाद पिता रौद्रकेतु ने उससे पुन: कहा — ‘ [ हे पुत्र ! ] शिव का ध्यानकर और उनका सम्यक् रूप से पूजनकर उत्तम अनुष्ठान करो। जप का दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण और तर्पण का दशांश ब्राह्मण – भोजन कराओ। इससे शिव के प्रसन्न होने से हवनकुण्ड से एक अश्व निकलेगा । उस अश्व पर आरूढ़ होकर तुम युद्ध के लिये जाओ तो तुम्हें निश्चय ही विजय की प्राप्ति होगी’ ॥ १२–१४१/२ ॥ ब्रह्माजी कहते हैं — तब पिता के इस प्रकार के वचन को सुनकर पुत्र देवान्तक ने प्रसन्नतापूर्वक उससे कहा — [ हे तात!] आपने [ शिवजी के मन्त्र का] सम्यक् रूप से उपदेश दिया, अब आप [ उसको सिद्ध करने की ] विधि भी मुझे बतलाइये ॥ १५१/२ ॥ तब लोगों को हटाकर वे दोनों घर के मध्य भाग में चले गये। वहाँ उन दोनों ने लाल रंग के वस्त्र धारण किये और लाल चन्दन लगाया। तत्पश्चात् लाल रंग के पुष्प लाकर उनसे शिव की पूजा की ॥ १६-१७ ॥ इस प्रकार उन दोनों ने बहुत दिनों तक अत्यन्त आदरपूर्वक [मन्त्र का] अनुष्ठान किया। अनुष्ठान समाप्त हो जाने पर उन्होंने आदरपूर्वक कुण्ड का निर्माण किया । वह कुण्ड सभी लक्षणों से युक्त, मेखला और योनि से संयुक्त तथा षट्कोणात्मक था। उसमें विधिवत् अग्न्याधानकर और यथाविधि पात्रासादन करके पाँच प्रेतों के आसन पर बैठकर उन दोनों ने अपने जानुभाग (घुटने से जंघा तक)-के मांस को काट-काटकर भक्तिभाव से उसका हविरूप में हवन दिया ॥ १८-२० ॥ तब रक्त, घृत और मांस के हवन से अग्निदेव तृप्त हो गये। जप-संख्या का दशांश हवन हो जाने पर उन दोनों ने अग्निदेवता का पूजन किया ॥ २१ ॥ तदनन्तर [रौद्रकेतु ने] पुत्र (देवान्तक)–का सिर काटकर शीघ्र ही बलिदान किया और उसी से पूर्णाहुति कर अग्निदेव का विसर्जन किया। ईश्वर की कृपा से उसका पुत्र पहले-जैसा ही हो गया । तदनन्तर तर्पण करने के बाद उन्होंने ब्राह्मणों को यथाविधि भोजन कराया ॥ २२-२३ ॥ तत्पश्चात् रात बीत जाने और सूर्योदय होने पर [देवान्तक ने] स्निग्ध अंगोंवाले काले रंग के एक बलवान् घोड़े को देखा, जो मन के सदृश वेगवान् और अपनी हिनहिनाहट से तीनों लोकों को कम्पित कर देने वाला था । तब उसने परम भक्ति से यथाविधि उसकी पूजा और आरती की ॥ २४-२५ ॥ तब उसे सुन्दर मणि-मुक्ताजटित अलंकारों से अलंकृतकर और ब्राह्मणों तथा पिता को सम्यक् रूप से नमस्कार कर एवं उनका आशीर्वाद ग्रहणकर वह देवान्तक उस अश्व पर सवार होकर [ मरने से] बची हुई सेना को साथ लेकर [पृथ्वी को धारण करने वाले] शेषनाग को कम्पित करते हुए [युद्ध के लिये ] चला ॥ २६-२७ ॥ उसकी सेना अस्त्र-शस्त्रों, कवचों, शूलों और धनुष – बाणों से सुसज्जित थी। उस सेना के साथ देवान्तक रणभूमि में आया। उस सम्पूर्ण [असुर ] सेना द्वारा कोलाहल (गर्जना) किये जाने से देवताओं की सेना भयभीत हो उठी। उस समय आकाशमण्डल के धूल से व्याप्त हो जाने के कारण कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था ॥ २८-२९ ॥ ‘शीघ्र ही सेना का संहार कर डालने वाला दैत्य पुनः आ गया है’ – ऐसा कहते हुए सिद्धिसेना के सैनिक अत्यन्त क्रोधित हो उठे ॥ ३० ॥ उसे युद्ध के लिये आया हुआ देखकर सिद्धिसेना युद्धहेतु उद्यत हो उठी और घोड़ों की हिनहिनाहट एवं वीरों के सिंहनाद से दिग्दिगन्त को गुंजित करने लगी ॥ ३१ ॥ तदनन्तर दोनों पक्ष के सैनिक एक-दूसरे पर शस्त्र- प्रहार करते हुए उनका वध करने लगे। ‘प्रहार करता हूँ, सहन करो’ इस प्रकार बताकर [वे परस्पर ] उत्साहपूर्वक प्रहार कर रहे थे । घुटने को भूमि पर टिकाकर कान तक धनुष को खींचकर वे सर्पसदृश विषैले बाणों से परस्पर युद्ध कर रहे थे ॥ ३२-३३ ॥ दोनों पक्षों के कुछ सैनिक बीच में ढाल की ओट लेकर युद्ध कर रहे थे। कुछ योद्धा अपने ऊपर पहले हुए प्रहार का स्मरणकर प्रहार कर रहे थे ॥ ३४ ॥ वे पुरानी शत्रुता का पुनः स्मरणकर रिपुओं को विकृत रूपवाला कर दे रहे थे । वीरोचित सौन्दर्य से युक्त कोई वीर शत्रु के केशों को ग्रहणकर उसे कुहनी और मुष्टिका से मारकर भूमि पर गिरा दे रहा था। कोई दो उन्मत्त वीर सिर से प्रहारकर एक-दूसरे को मार रहे थे ॥ ३५-३६ ॥ तब उस देवान्तक ने दैत्यसेना को नष्ट-भ्रष्ट हुआ देखकर सिद्धिविनिर्मित सेना में [अपने] अश्व को सम्प्रेषित किया (आगे बढ़ाया ) ॥ ३७ ॥ उस अश्व की हिनहिनाहट को सुनकर कुछ देवता मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े और कुछ अन्य देवता घोड़े के पैरों के नीचे आकर चूर-चूर हो गये ॥ ३८ ॥ कुछ देवता त्रिशूल से और अन्य खड्ग के प्रहार से मारे गये तथा अन्य देवता बाणसमूहों द्वारा मारे गये ॥ ३९ ॥ तब अपनी सम्पूर्ण सेना के मार दिये जाने पर सभी सिद्धियाँ पलायन का आश्रय ले विनायक के पास आयीं ॥ ४० ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत क्रीडाखण्ड में ‘सिद्धियों की पराजय का वर्णन’ नामक छाछठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६६ ॥ Content is available only for registered users. 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