श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-082
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
बयासीवाँ अध्याय
शंकर द्वारा गौरीपुत्र गुणेश की महिमा का कथन, गुणेश का प्रादुर्भाव, गौरीपुत्र का ‘गुणेश’ यह नामकरण, गणेशचतुर्थी तिथि का माहात्म्य, सिन्धुदैत्य को दूतों द्वारा गुणेश के अवतार का वृत्तान्त ज्ञात होना, सिन्धु के दूतों का त्रिसन्ध्याक्षेत्र में जाकर गुप्तरूप से निवास करना और गुणेश के वध के लिये प्रयत्नशील होना
अथः द्व्यशीतितमोऽध्यायः
गुणेशनामकरणं

ब्रह्माजी बोले — तदनन्तर भगवान् शिव के गणों ने उनको देवी पार्वती की पुत्रप्राप्ति का वह सम्पूर्ण वृत्तान्त बतलाया कि हे देव! यह परम आश्चर्य की बात है कि पार्वतीदेवी पुत्रवती हो गयी हैं। अतः आप पुत्र का दर्शन करने के लिये अपने स्थान को जायँ । गणों के इस प्रकार के वचनों को सुनकर गिरिजापति भगवान् शंकर को अत्यन्त प्रसन्नता हुई ॥ १-२ ॥ वे वहाँ आये और उस अद्भुत बालक को देखकर परम आश्चर्यचकित हुए। वह बालक चन्द्रमा के समान आभा से सम्पन्न था। स्फटिक के पर्वत के समान उज्ज्वल था। कुन्द पुष्प के समान धवल वर्ण का था और उसके नेत्र कमल के समान थे। उस समय शिवजी बोले — ॥ ३१/२

शिवजी बोले — यह कोई सामान्य बालक नहीं है। बल्कि ये अनादिसिद्ध, जरा और जन्म से रहित, लीला से विग्रह धारण करने वाले, स्वयं प्रकाशित, गुणातीत, शुद्ध सत्त्वगुणसम्पन्न, सभी प्राणियों के ईश्वर, सभी भुवनों के स्वामी, मुनियोंद्वारा ध्येय, अखिल विश्व के आश्रय, ब्रह्ममय तथा सम्पूर्ण अर्थों को प्रदान करने वाले हैं ॥ ४-५१/२

ब्रह्माजी बोले — ऐसा कहकर भगवान् शंकर ने अपने दोनों हाथों से उस बालक को पकड़ा। जो भगवान् शिव सर्वदा सभी के हृदयदेश में विराजित रहते हैं, उन्होंने उसे प्रेमपूर्वक अपने हृदय में लगाया और सभी प्रकार के अमंगलों का विनाश करने वाले कल्याणकारी प्रभु शंकर पुनः पार्वतीजी से बोले —॥ ६-७ ॥

हे देवि! गुणों से अतीत परमात्मा ही तुम्हारे पुत्र रूप में अवतरित हुए हैं। तुमने अपने महान् तपस्यानुष्ठान से साक्षात् विभु का दर्शन किया है ॥ ८ ॥

ब्रह्माजी बोले — तब शिवजी ने ब्राह्मणों को आमन्त्रितकर गणपतिपूजन, मातृकापूजन, पुण्याहवाचन करके आभ्युदयिक श्राद्ध किया और बालक को घृत एवं मधु का प्राशन कराया । तदनन्तर भूमि का अभिमन्त्रण करने के पश्चात् देवी पार्वती ने उस शिशु को अपना स्तनपान कराया ॥ ९-१० ॥ भगवान् शिव ने गौतम आदि महर्षियों की पूजा करके उन्हें अनेक प्रकार के दान दिये। तब उनकी अनुमति पा करके वे महर्षिगण अत्यन्त प्रसन्न होकर शंकरजी से बोले — ॥ ११ ॥

ये अनादिसिद्ध, अखिलेश्वर, सभी लोकों की सृष्टि करने वाले और चराचर जगत् के गुरु के भी गुरु आपके पुत्र के रूप में प्रकट हुए हैं। ये माया के अधिष्ठाता तथा वेद-वेदान्तादि शास्त्रों के लिये भी अगोचर हैं। ये सूर्य के मध्याकाश में स्थित रहने पर शुभ मुहूर्त में अवतीर्ण हुए हैं। ये आपके यश का विस्तार करेंगे ॥ १२-१३ ॥ भाद्रपदमास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि को सोमवार के दिन स्वाति नक्षत्र में, सिंह लग्न में तथा पाँच शुभग्रहों के उत्तम योग में ये पुत्ररूप में उत्पन्न हुए हैं ॥ १४ ॥ ये श्रीसम्पन्न, पराक्रमशाली, अद्भुत कर्म करने वाले महान् बल से सम्पन्न और समस्त लोकों तथा भक्तों को अत्यन्त सुख प्रदान करने वाले होंगे। हे शम्भो ! आप ग्यारहवें दिन इनका शुभ नामकरण-संस्कार करें ॥ १५१/२

ब्रह्माजी बोले — ऐसा कहकर वे सभी मुनिगण अपने-अपने स्थानों की ओर चले गये। भगवान् शिव बालक को पार्वती की सुन्दर शय्या पर रखकर सभी लोगों को विदा करके प्रसन्नता के साथ भवन से बाहर चले आये ॥ १६-१७ ॥ उसी समय शेषनाग वहाँपर आये और उन्होंने अपने फणों की छाया बालक पर की। मेघों ने वर्षा करके भूमि को धूलिरहित बना दिया। मालती पुष्प की गन्ध से समन्वित सुखद वायु प्रवाहित होने लगी। अप्सराएँ नृत्य करने लगीं। गन्धर्वों के समूह गायन करने लगे। चारण उन प्रभु की स्तुति करने लगे ॥ १८-१९ ॥

तदनन्तर मुनिगणों ने विनायक की मिट्टी की एक उत्तम मूर्ति बनायी। एक सुन्दर मण्डप बनाया, उसे कदलीवृक्षों तथा पुष्पों से सजाया । तदनन्तर पद्मासन में बैठकर उन्होंने परम श्रद्धा-भक्तिपूर्वक उनकी पूजा की और वे सभी ‘गुणेश गुणेश’ इस नाम – मन्त्र का प्रसन्नता से निरन्तर जप करने लगे ॥ २०-२१ ॥ उन्होंने एक दिन-रात का उपवास किया तथा रात्रि में जागरण किया । यथाशक्ति ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन ब्राह्मणों (मुनियों) ने व्रत का पारण किया ॥ २२ ॥ इसी प्रका रसे उन्होंने दस दिनों तक बड़े ही आदरपूर्वक ब्राह्मणों को भोजन कराया और उन देव गुणेश की प्रसन्नताके लिये घर-घर महोत्सव किया ॥ २३ ॥

ग्यारहवें दिन की बात है, उन सभी मुनिजनों को भगवान् शिव ने आमन्त्रित किया और वे सभी भगवान् शिव के पुत्र का नामकरण – संस्कार करने के लिये वहाँ आये। भगवान् शिव ने भलीभाँति उनका मान-सम्मान किया, तब उन मुनियों ने उस बालक का सभी का ईश्वर होने के कारण ‘गुणेश’ यह नाम रखा। जो अत्यन्त उत्तम, शुभकारक और सब प्रकार के विघ्नों का नाश करने वाला है ॥ २४-२५ ॥ भगवान् शिव ने भी उन मुनिजनों से कहा कि आप लोगों ने बहुत अच्छा नाम रखा है। तदनन्तर शंकर ने यह वरदान दिया कि सभी कर्मों के आरम्भ में यह प्रथमपूज्य होगा । अनेक प्रकार के दानों के देने से पूजित हुए वे सभी मुनिगण भगवान् शंकर से आज्ञा लेकर अपने-अपने आश्रमों को चले आये ॥ २६-२७ ॥

घर के भीतर स्थित देवी पार्वती ने स्वयं भी देवताओं का पूजन किया। तब से लेकर वह चतुर्थी तिथि गुणेश की तिथि के रूप में प्रसिद्ध हो गयी, जो अनेक प्रकार के वर प्रदान करने वाली है। अपने कल्याण की प्राप्ति के लिये उस चतुर्थी तिथि को महान् उत्सव मनाना चाहिये । भगवान् गुणेश की मिट्टी की मूर्ति बनाकर यथाविधि उसका पूजन करना चाहिये ॥ २८-२९ ॥ सुन्दर मण्डप बनाना चाहिये। उपवास करके रात्रि में जागरण करना चाहिये। मोदक, अपूप तथा लड्डुओं और खीर का नैवेद्य लगाकर प्रभु गुणेश का पूजन करना चाहिये ॥ ३० ॥ दूसरे दिन यथाविधि इक्कीस ब्राह्मणोंको भोजन कराये और उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा प्रदान करे। उन्हें प्रणाम करे, तदनन्तर स्वयं भी भोजन करे ॥ ३११/२

जो इस चतुर्थी तिथि को भगवान् गुणेश की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर उनका पूजन नहीं करता है, वह बार-बार विघ्नों के द्वारा बाधित होता है। इसी के साथ ही वह विविध रोगों से भी पीड़ित होता है । पतित व्यक्ति की भाँति ऐसे व्यक्ति का कभी भी दर्शन नहीं करना चाहिये । यदि कदाचित् ऐसे व्यक्ति का दर्शन हो जाय तो ‘गुणेश’ इस नाम का मन में स्मरण करना चाहिये ॥ ३२-३३१/२

गणेशचतुर्थी की महिमा का यथार्थरूप से वर्णन करने में मैं समर्थ नहीं हूँ। तथापि मैं उनके कर्मों का यथामति निरूपण करता हूँ ॥ ३४१/२

सिन्धुदैत्य के दूत गुप्तरूप से भगवान् शंकर के स्थान पर निवास कर रहे थे। उन दूतों ने जा करके वहाँ का सम्पूर्ण समाचार उस सिन्धु दैत्य को बतलाया। उस समय दैत्य सिन्धु बहुत-से योद्धाओं से घिरा हुआ बैठा था । उसने अप्सराओं के नृत्य तथा गन्धर्वों के गान का आयोजन किया हुआ था ॥ ३५-३६१/२

दूत बोले — दक्षिण दिशा के दण्डकारण्य में त्रिसन्ध्या नामक क्षेत्र में हमलोग रह रहे थे । वहाँ रहते हुए हमने शिव नामवाले भगवान् को तथा अट्ठासी हजार मुनियों के बहुत-से आश्रमों को देखा ॥ ३७-३८ ॥ एक दिन की बात है, [शिव की पत्नी] देवी पार्वती ने एक बालक को जन्म दिया। उसकी छः भुजाएँ थीं। वह लावण्यका खजाना था। तीनों लोकों में उसके समान कोई नहीं था और वह तेज से उज्ज्वल था ॥ ३९ ॥ अत्यन्त महान् उत्सवों के साथ दस दिन बीत जाने पर ग्यारहवें दिन मुनिश्रेष्ठों ने तथा भगवान् शंकर ने उस बालक का ‘गुणेश’ यह नाम रखा ॥ ४० ॥ उस समय वहाँ हो रहे वाद्यों के निनाद से हम लोग बधिर-से होकर वहाँ स्थित थे । यदि हम उस समय उसे सहसा पहुँचकर मारने के लिये जाते तो वहाँ जो सात करोड़ गण थे, वे हमें मार डालते। उनमें से एक-एक गण का ऐसा बल-पराक्रम था कि वह पर्वत को उखाड़ने में भी समर्थ था। तब फिर शीघ्र ही आपके पास आकर इस समाचार को कौन बतलाता ? ॥ ४१-४२ ॥

ब्रह्माजी बोले — जब दूत इस प्रकार बोल ही रहे थे कि उस समय एक आकाशवाणी सुनायी पड़ी कि ‘अरे दैत्य सिन्धु ! तुम्हें मारने वाला कहीं उत्पन्न हो चुका है, अत: तुम सावधान हो जाओ’ ॥ ४३ ॥

सिन्धु बोला — यहाँ कौन है, जो ऐसे दुष्ट वचन बोल रहा है, मारो, मार डालो ॥ ४३१/२

ब्रह्माजी बोले — तब कुछ दैत्य तो उछल-कूद करते हुए गिर पड़े, और कुछ दौड़ते हुए पलायित हो गये। उसी समय वह दैत्य भी महान् मूर्च्छा को प्राप्त हो गया और भूमि पर गिर पड़ा। वह अत्यन्त चिन्तित, म्लान मुखवाला, उत्साहरहित और हतप्रभ हो गया ॥ ४४-४५ ॥ जब मुहूर्तभर का समय बीत जाने पर उसे चेतना आयी तो वह लड़खड़ाती आवाज में बोला — ‘तीनों लोकों का कण्टक तो मैं हूँ, फिर मेरे लिये यह नया कंटक कौन आ गया ? ॥ ४६ ॥ बकरा सिंह को कैसे मार सकता है अथवा मच्छर क्या कभी हाथी को मार सकता है ? मैंने तैंतीस करोड़ देवताओं को क्षणभर में जीत लिया था ॥ ४७ ॥ इस प्रकार के पराक्रम वाले मेरी मृत्यु किसके हाथों में हो सकती है? आकाशवाणी जो हुई, वह झूठी है, अथवा यदि वह सत्य भी हो तो मैं अपने उस शत्रु को खाने के लिये दौड़ पडूंगा’ ॥ ४८ ॥

ऐसा कहकर वह आधे क्षण में [उठकर ] भद्रासन पर बैठ गया। उसकी उस प्रकार की बात सुनकर सभी वीर उसके पास चले आये और कहने लगे —आप तो काल के भी काल हैं, फिर आपकी मृत्यु कैसे हो सकती है ? अथवा आपको कोई मारने वाला हो तो उसे हम मार डालेंगे, चाहे वह स्वर्ग में हो, भूमि पर हो, पाताल में हो अथवा आकाश में रह रहा हो। आप हमें आज्ञा प्रदान करें, हम लोग जायँगे। तब दैत्यराज सिन्धु ने उन दैत्यों से कहा — ॥ ४९–५१ ॥

आप- जैसे मित्रों तथा सेवकों की वचनसुधा का पानकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। आप लोग शीघ्र वहाँ जायँ, जहाँ मेरा वह शत्रु रहता है। आप लोग अनेक प्रकार की माया करके शत्रु का विनाशकर मुझे समाचार दें ॥ ५२१/२

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार दैत्यराज की आज्ञा प्राप्त कर वे असंख्य दैत्य वहाँ से निकल पड़े और त्रिसन्ध्याक्षेत्र में पहुँचकर गुप्तरूप से वहाँ निवास करने लगे। उनके मन में यही विचार था कि गौरी का पुत्र गुणेश जहाँ-कहीं भी होगा, उसे हम माया से मार डालेंगे ॥ ५३-५४ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘दैत्यवीरों के त्रिसन्ध्याक्षेत्र में गमन का वर्णन’ नामक बयासीवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८२ ॥

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