श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-04
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-चतुर्थोऽध्यायः
चौथा अध्याय
तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी का वृत्रासुर को वरदान देना, त्वष्टा की प्रेरणा से वृत्रासुर का स्वर्ग पर आक्रमण करके अपने अधिकार में कर लेना, इन्द्र का पितामह ब्रह्मा और भगवान् शंकर के साथ वैकुण्ठधाम जाना
ब्रह्मनेतृत्वे सेन्द्रैः सुरैर्विष्णोः शरणगमनवर्णनम्

व्यासजी बोले — उस वृत्रासुर को दृढ़प्रतिज्ञ देखकर तप में विघ्न डालने के लिये गये हुए देवगण अपने कार्य की सिद्धि से निराश होकर वापस लौट आये ॥ १ ॥ सौ वर्ष पूर्ण होने पर लोकपितामह चतुर्मुख ब्रह्मा हंसपर आरूढ़ हो शीघ्रतापूर्वक उसके पास आये ॥ २ ॥ आकर उन्होंने उससे यह कहा हे त्वष्टा के पुत्र ! तुम सुखी होओ, ध्यान का त्यागकर वरदान माँगो, मैं तुम्हारा इच्छित वर दूँगा ॥ ३ ॥ तुम्हें तपस्या से अत्यन्त कृशकाय देखकर मैं प्रसन्न हूँ । तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम अपना मनोभिलषित वर माँग लो ॥ ४ ॥

व्यासजी बोले — अपने समक्ष खड़े जगत् के एकमात्र स्रष्टा [ब्रह्माजी ] की अत्यन्त गम्भीर और अमृतरसतुल्य वाणी सुनकर वह वृत्रासुर योग-ध्यान त्यागकर सहसा उठ खड़ा हुआ। हर्षातिरेक से उसके नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी ॥ ५ ॥ प्रेमपूर्वक विधाता ब्रह्माजी के चरणों में सिर रखकर प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर वह उनके समक्ष स्थित हो गया और तपस्या से प्रसन्न तथा उत्तम वर देने वाले ब्रह्माजी से विनयावनत होकर प्रेमपूर्ण गद्गद वाणी में कहने लगा ॥ ६ ॥

हे प्रभो ! मैंने आज समस्त देवताओं का पद प्राप्त कर लिया जो कि मुझे शीघ्र ही आपका अत्यन्त दुर्लभ दर्शन प्राप्त हो गया । हे नाथ! हे कमलासन ! आप सबके मन के भाव जानते हैं, फिर भी मेरे भक्तिपूर्ण मन में एक दुर्लभ अभिलाषा है, उसे मैं आपसे कह रहा हूँ ॥ ७ ॥ लोहे, काष्ठ, सूखे या गीले बाँस द्वारा निर्मित तथा अन्य किसी शस्त्र से मेरी कभी मृत्यु न हो । मेरा पराक्रम अत्यन्त बढ़ जाय, जिससे युद्ध में मैं उन बलवान् देवताओं से अजेय हो जाऊँ ॥ ८ ॥

व्यासजी बोले —उसके इस प्रकार प्रार्थना करने पर ब्रह्माजी उससे हँसते हुए बोले [ हे वत्स !] उठो और [घर] जाओ, तुम्हारा मनोरथ निश्चय ही पूर्ण होगा । तुम्हारा कल्याण हो ॥ ९ ॥ न सूखी, न गीली वस्तु से, न तो पत्थर या लकड़ी द्वारा निर्मित शस्त्र से ही तुम्हारी मृत्यु होगी — यह मैं सत्य कह रहा हूँ ॥ १० ॥

ऐसा वरदान देकर ब्रह्माजी अपने दिव्य लोक को चले गये और वृत्रासुर भी वरदान प्राप्तकर प्रसन्नतापूर्वक अपने घर चला गया ॥ ११ ॥ महाबुद्धिमान् वृत्रासुर ने पिता के सम्मुख उस वरदान को सुनाया, तब त्वष्टा भी पुत्र के वरदान प्राप्त करने से अत्यन्त प्रसन्न हो गये ॥ १२ ॥

उन्होंने कहा — हे महाभाग ! तुम्हारा कल्याण हो, मेरे शत्रु और त्रिशिरा के हत्यारे पापी इन्द्र को मार डालो; उसे मारकर आ जाओ ॥ १३ ॥ युद्ध में विजय प्राप्तकर तुम देवताओं के अधिपति बनो। पुत्रहत्या से उत्पन्न मेरे महान् मानसिक सन्ताप को तुम दूर करो ॥ १४ ॥ जीवित [ अवस्था में] पिता की आज्ञा का पालन करने, मृत्युतिथि पर पर्याप्त भोजन कराने तथा गया में पिण्डदान करने इन तीनों से ही पुत्र का पुत्रत्व सार्थक होता है ॥ १५ ॥ अतः हे पुत्र ! तुम मेरे बहुत बड़े दुःख को दूर करने में समर्थ हो; त्रिशिरा मेरे चित्त से कभी हटता नहीं है ॥ १६ ॥ उस सुशील, सत्यवादी, तपस्वी और वेदवेत्ता को बिना किसी अपराध के ही पापबुद्धि वाले उस इन्द्र ने मार डाला ॥ १७ ॥

व्यासजी बोले — उनकी ऐसी बात सुनकर परम दुर्जय वृत्रासुर रथ पर सवार हो शीघ्र ही [ अपने] पिता के घर से निकल पड़ा। रणभेरियों की ध्वनि तथा महान् शंखनाद कराकर उस मदोन्मत्त ने प्रस्थान किया ॥ १८-१९ ॥ ‘इन्द्र को मारकर निष्कण्टक देव-राज्य अधिकृत कर लूँगा’ ऐसा सेवकों से कहते हुए वह नीतिवान् वृत्र निकल पड़ा ॥ २० ॥ ऐसा कहकर सैनिकों के महान् घोष से अमरावती ( इन्द्रपुरी ) – को भयभीत करता हुआ वह अपनी सेना साथ शीघ्रतापूर्वक निकला ॥ २१ ॥

हे भारत ! उसे आता हुआ जानकर भयभीत इन्द्र भी शीघ्रतापूर्वक सेना की तैयारी कराने लगे ॥ २२ ॥ उन शत्रुदमन इन्द्र ने शीघ्र ही सभी लोकपालों को बुलाकर उन्हें युद्ध की तैयारी करने के लिये प्रेरित किया, उस समय वे अत्यन्त कान्तिमान् लग रहे थे ॥ २३ ॥ तत्पश्चात् गृध्रव्यूह का निर्माण करके इन्द्र युद्ध के लिये डट गये; उसी समय शत्रुसेना का विध्वंस कर डालने वाला वृत्रासुर भी वहाँ वेगपूर्वक आ पहुँचा ॥ २४ ॥ तब युद्धक्षेत्र में अपने-अपने मन में विजय की इच्छा रखने वाले इन्द्र तथा वृत्रासुर की देव-दानव सेनाओं में भीषण संग्राम होने लगा ॥ २५ ॥ इस प्रकार परस्पर युद्ध के उग्र और भयंकर हो जाने पर देवगण व्याकुल और दानव अत्यन्त प्रसन्न हो गये ॥ २६ ॥ उस युद्ध में तोमर, भिन्दिपाल, तलवार, परशु और पट्टिश इन अपने-अपने श्रेष्ठ आयुधों से देवता और दैत्य एक-दूसरे पर प्रहार कर रहे थे ॥ २७ ॥ इस प्रकार के हो रहे रोमांचकारी और भयंकर संग्राम में क्रोधाभिभूत वृत्रासुर ने अचानक इन्द्र को पकड़ लिया ॥ २८ ॥

हे महाराज ! वृत्रासुर इन्द्र को कवच – वस्त्र आदि से रहित करके अपने मुँख में डालकर स्थित हो गया और पूर्ववैर का स्मरण करते हुए वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ ॥ २९ ॥ वृत्रासुर के द्वारा इन्द्र को निगला गया देखकर देवता विस्मित हो गये और अत्यन्त दुःखी होकर ‘हा इन्द्र ! हा इन्द्र !’ कहकर चिल्लाने लगे ॥ ३० ॥ जब देवताओं को यह ज्ञात हुआ कि इन्द्र को वृत्र ने मुख में रखकर छिपा लिया है तो वे अत्यन्त दुःखित होकर बृहस्पति के पास गये और उनसे दीन वाणी में बोले ॥ ३१ ॥

हे द्विजश्रेष्ठ ! देवसेना से सुरक्षित इन्द्र को वृत्रासुर ने अपने मुख में रख लिया है। अब हम क्या करें ? आप हमारे परम गुरु हैं ॥ ३२ ॥ इन्द्र के बिना हम लोग क्या करें, हम सब पराक्रमहीन हो गये हैं । हे विभो ! इन्द्र की मुक्ति के लिये आप शीघ्र ही अभिचार-क्रिया कीजिये ॥ ३३ ॥

बृहस्पति बोले — हे देवताओ ! क्या किया जाय ? उसने इन्द्र को मुख में रख लिया है, वृत्रासुर के द्वारा पीड़ित वे इन्द्र उस शत्रु के मुख में भी जीवित हैं ॥ ३४ ॥

व्यासजी बोले — इन्द्र को उस स्थिति में प्राप्त देखकर चिन्तित देवताओं ने भलीभाँति सोचकर उनकी मुक्ति के लिये शीघ्र ही एक उपाय किया ॥ ३५ ॥ उन्होंने अत्यन्त शक्तिशालिनी और शत्रुनाशिनी जम्हाई का सृजन किया; इससे उसे जम्हाई आते ही उस वृत्रासुर का मुख खुल गया ॥ ३६ ॥ तत्पश्चात् जम्हाई लेते हुए वृत्रासुर के मुख से बल नामक दैत्य का नाश करने वाले इन्द्र अपने अंगों को संकुचित करके बाहर निकल आये ॥ ३७ ॥ उसी समय से संसार के सभी प्राणियों के शरीर में जम्हाई विद्यमान रहने लगी। इन्द्र को बाहर निकला हुआ देखकर सभी देवता हर्षित हो उठे ॥ ३८ ॥ तब उन दोनों में तीनों लोकों के लिये भयदायक, रोमांचकारी और भीषण युद्ध प्रारम्भ हो गया, जो दस हजार वर्षों तक चला ॥ ३९ ॥ युद्ध करने के लिये संग्राम में एक ओर सभी देवता उपस्थित थे, तो दूसरी ओर त्वष्टा का बलशाली पुत्र वृत्रासुर डटा हुआ था ॥ ४० ॥ वरदान के अहंकार से उन्मत्त वृत्रासुर का उत्कर्ष जब रण में प्रबल हो गया, तब उसके तेज से पराक्रमहीन इन्द्र पराजित हो गये ॥ ४१ ॥ उससे युद्ध में पराजय प्राप्त करके इन्द्र को बहुत व्यथा हुई और उन्हें पराजित देखकर देवगण भी विषादग्रस्त हो गये ॥ ४२ ॥

तब इन्द्र आदि समस्त देवता युद्ध छोड़कर भाग गये और वृत्रासुर ने शीघ्रतापूर्वक आकर अमरावती पर अधिकार कर लिया ॥ ४३ ॥ अब वह दानव समस्त देवोद्यानों का बलपूर्वक उपभोग करने लगा। उस दैत्य वृत्रासुरके द्वारा गजश्रेष्ठ ऐरावत भी अधिकारमें कर लिया गया ॥ ४४ ॥ हे राजन्! तत्पश्चात् उसने समस्त विमानों को ग्रहण कर लिया और अश्वश्रेष्ठ उच्चैः श्रवा को भी अपने अधीन कर लिया ॥ ४५ ॥ उसी प्रकार कामधेनु, कल्पवृक्ष, अप्सराओं का समूह तथा रत्न आदि जो कुछ था; वह सब उस त्वष्टापुत्र वृत्र ने अपने अधिकार में कर लिया ॥ ४६ ॥ अब राज्यच्युत होकर सभी देवता पर्वतों की कन्दराओं में रहकर अत्यन्त दुःख प्राप्त करने लगे। वे यज्ञभाग और देवसदन — दोनों से वंचित हो गये ॥ ४७ ॥ वृत्रासुर देव – राज्य पाकर मदोन्मत्त हो गया । त्वष्टा भी अत्यन्त सुख प्राप्तकर पुत्र के साथ आनन्दपूर्वक रहने लगे ॥ ४८ ॥

हे भारत ! देवगण अपने कल्याण के लिये मुनियों के साथ विचार-विमर्श करने लगे कि इस स्थिति के प्राप्त होने पर अब हमें क्या करना चाहिये- ऐसा विचार करके भयमोहित वे देवगण इन्द्र के साथ कैलास पर्वत पर गये और वहाँ देवाधिदेव भगवान् शंकर को प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर कहने लगे — ॥ ४९-५० ॥

हे देव ! हे महादेव ! हे कृपासागर! हे महेश्वर ! वृत्रासुर से पूर्णतः पराजित हम भयभीत देवताओं की रक्षा कीजिये ॥ ५१ ॥ हे देव! उस महाबली ने देवलोक पर अधिकार कर लिया है। हे शम्भो ! हे शिव! अब हमें क्या करना चाहिये, आप हमें सही-सही बताइये ॥ ५२ ॥ हे महेश्वर ! हम राज्यभ्रष्ट क्या करें और कहाँ जायँ ? हे ईश्वर! हम इस दुःख के विनाश के लिये कोई भी उपाय नहीं जान पा रहे हैं ॥ ५३ ॥ हे भूतेश ! हमारी सहायता कीजिये। हे कृपानिधान ! हम सब बहुत दुःखी हैं। हे विभो ! वरदान के प्रभाव से मदोन्मत्त वृत्रासुर का वध कीजिये ॥ ५४ ॥

शिवजी बोले — ब्रह्माजी को आगे करके हमलोग विष्णुलोक चल करके वहाँ उन श्रीहरि के पास जाकर उस वृत्रासुर के वध के उपाय पर विचार करेंगे ॥ ५५ ॥ वे जनार्दन भगवान् विष्णु शक्तिशाली, छलकार्य में निपुण, बलवान्, सबसे बुद्धिमान्, शरणदाता और दया के सागर हैं ॥ ५६ ॥ उन देवदेवेश के बिना हमारा प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा, इसलिये सभी कार्यों की सिद्धि के लिये हमें वहीं चलना चाहिये ॥ ५७ ॥

व्यासजी बोले — ऐसा विचारकर ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्र आदि सभी देवता शरणदाता और भक्तवत्सल भगवान् विष्णुके लोक गये ॥ ५८ ॥ वैकुण्ठधाम में पहुँचकर वे देवता वेदोक्त पुरुषसूक्त से उन परमेश्वर जगद्गुरु श्रीहरि की स्तुति करने लगे ॥ ५९ ॥ तब भगवान् जगन्नाथ कमलापति विष्णु उनके सम्मुख उपस्थित हो गये और सभी देवताओं का सम्मान करके उनसे बोले — ॥ ६० ॥

हे लोकपालगण! आपलोग ब्रह्मा और शिवजी के साथ यहाँ क्यों आये हैं ? हे श्रेष्ठ देवताओ! आप सभी अपने आगमन का कारण बतायें ॥ ६१ ॥

व्यासजी बोले — भगवान् विष्णु का यह वचन सुनकर भी देवगण उन रमापति से कुछ बोल न सके और वे चिन्तातुर होकर हाथ जोड़े खड़े ही रहे ॥ ६२ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘ब्रह्माजी के नेतृत्व में इन्द्रसहित देवताओं का विष्णु की शरण में जाने का वर्णन’ नामक चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥

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