April 30, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-12 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-द्वादशोऽध्यायः बारहवाँ अध्याय पवित्र तीर्थों का वर्णन, चित्तशुद्धि की प्रधानता तथा इस सम्बन्ध में विश्वामित्र और वसिष्ठ के परस्पर वैर की कथा, राजा हरिश्चन्द्र का वरुणदेव के शाप से जलोदरग्रस्त होना हरिश्चन्द्रस्य जलोदरव्याधिपीडावर्णनम् राजा बोले — हे मुनिश्रेष्ठ ! अब आप मुझे मनुष्यों और देवताओं के द्वारा सेवनीय इस पृथ्वी पर स्थित पुण्य तीर्थों, क्षेत्रों तथा नदियों के विषय में बताइये। उन तीर्थों में स्नान तथा दान का जैसा फल मिलता है, उसे और विशेषरूप से तीर्थयात्रा की विधि तथा नियमों को भी बताइये ॥ १-२ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन् ! सुनिये, मैं उन विविध तीर्थों का वर्णन करूँगा, जिन तीर्थों में देवियों के प्रशस्त मन्दिर विद्यमान हैं ॥ ३ ॥ नदियों में गंगा श्रेष्ठ हैं, इसी प्रकार यमुना, सरस्वती, नर्मदा, गण्डकी, सिन्धु, गोमती, तमसा, कावेरी, चन्द्रभागा, पुण्या, शुभ वेत्रवती, चर्मण्वती, सरयू, तापी तथा साभ्रमती भी हैं — इन्हें मैंने बतला दिया। हे राजन् ! इनके अतिरिक्त सैकड़ों अन्य नदियाँ भी हैं। उनमें से समुद्र में गिरने वाली नदियाँ पुण्यमयी हैं तथा समुद्र में न गिरनेवाली नदियाँ अल्प पुण्यवाली हैं। समुद्रगामिनी नदियों में वे बहुत पवित्र हैं, जो सदा जलपूरित होकर बहती हैं। श्रावण और भाद्रपद — इन दो महीनों में सभी नदियाँ रजस्वला होती हैं; क्योंकि उनमें वर्षाकाल में ग्रामीणजल प्रवाहित होता है ॥ ४-७१/२ ॥ पुष्कर, कुरुक्षेत्र, धर्मारण्य, प्रभास, प्रयाग, नैमिषारण्य और विख्यात अर्बुदारण्य — ये अत्यन्त पवित्र तीर्थ हैं। इसी प्रकार श्रीशैल, सुमेरु और गन्धमादन पवित्र पर्वत हैं। सरोवरों में सर्वविख्यात मानसरोवर, श्रेष्ठ बिन्दुसर और पवित्र अच्छोद-सरोवर पुण्य सरोवर हैं ॥ ८-१०१/२ ॥ इसी प्रकार शुद्ध मनवाले मुनियों के आश्रम भी पुण्यस्थल हैं। विख्यात बदरिकाश्रम सदैव पुण्यशाली आश्रम के रूप में कहा गया है जहाँ नर-नारायण नाम के दो मुनियों ने तपस्या की थी। ऐसे ही वामनाश्रम और शतयूपाश्रम भी विख्यात हैं। जिस ऋषि ने जहाँ तपस्या की, वह आश्रम उसी के नाम से प्रसिद्ध हो गया । ११-१३ ॥ हे राजन् ! इस प्रकार इस भूतल पर असंख्य पवित्र पुण्यस्थल हैं, जो मुनियों द्वारा पवित्र कहे गये हैं । हे राजन् ! इन सभी स्थानों में देवी के मन्दिर हैं, जो दर्शन कर लेने मात्र से पाप का हरण करते हैं, वहाँ बहुत से भक्त नियमपूर्वक वास करते हैं। उन कतिपय स्थानों का वर्णन आगे करूँगा ॥ १४-१५१/२ ॥ हे राजन् ! तीर्थ, दान, व्रत, यज्ञ, तपस्या और सभी पुण्यकर्म शुद्धिसापेक्ष हैं। द्रव्यशुद्धि, क्रियाशुद्धि और मानसिक शुद्धि के आधार पर ही तीर्थ, तप और व्रत पवित्र होते हैं। कभी द्रव्यशुद्धि और कभी क्रियाशुद्धि हो पाती है, लेकिन हे राजन् ! मानसिक शुद्धि सबके लिये सदा ही दुर्लभ होती है; क्योंकि हे नृप ! मन बड़ा चंचल है और अनेक विषयों में भटकता रहता है। तब हे राजन् ! विविध विषयों के आश्रित रहनेवाला मन कैसे शुद्ध रह सकता है ? ॥ १६-१९१/२ ॥ काम, क्रोध, लोभ, अहंकार तथा मद — ये सभी तपस्या, तीर्थसेवन और व्रतों में विघ्नकारी होते हैं। हे राजन् ! अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह और अपने धर्मका पालन – समस्त तीर्थों का फल प्रदान करते हैं। नित्यकर्म के परित्याग और मार्ग में संसर्गदोष से तीर्थ में जाना व्यर्थ हो जाता है, केवल पाप ही लगता है ॥ २०-२२१/२ ॥ हे राजन् ! तीर्थ तो केवल शरीरजन्य मल को ही धोते हैं, वे अन्तःकरण को धोने में समर्थ नहीं होते। यदि वे तीर्थ [ मन को शुद्ध करने में] समर्थ होते तो गंगा के तट पर रहने वाले विश्वामित्र और वसिष्ठसदृश ईश्वर-चिन्तनपरायण भक्त मुनि द्रोह भाव से युक्त क्यों होते ? इस प्रकार तीर्थों में रहने वाले लोग भी सदैव राग-द्वेषपरायण तथा काम-क्रोध से व्याकुल रहते हैं। अतः चित्तशुद्धिरूपी तीर्थ गंगा आदि तीर्थों से भी अधिक पवित्र है ॥ २३-२६ ॥ हे राजन् ! यदि दैवयोग से ज्ञाननिष्ठ पुरुष का सत्संग प्राप्त हो जाय तो वह आन्तरिक मैल को धो देता है। है राजन् ! वेद, शास्त्र, व्रत, तप, यज्ञ तथा दान – ये चित्त की शुद्धि के कारण नहीं हैं ॥ २७-२८ ॥ ब्रह्माजी के पुत्र वसिष्ठ वेदविद्या में पारंगत थे और गंगाजी के तट पर रहते थे, फिर भी वे राग-द्वेष से युक्त हो गये । विश्वामित्र और वसिष्ठ के मध्य देवताओं को भी विस्मय में डाल देने वाला आडीबक नामक महायुद्ध हुआ, जो द्वेष के कारण व्यर्थ ही हुआ था। उस युद्ध में परम तपस्वी विश्वामित्र बक हुए थे, उन्हें वसिष्ठ ने हरिश्चन्द्र के कारण शाप दे दिया था। विश्वामित्र ने भी वसिष्ठ को शाप देकर आडी पक्षी के देहवाला बना दिया। इस प्रकार निर्मल कान्तिवाले वे दोनों मुनि शाप के कारण आडी और बक पक्षी के रूप में हो गये। वे मानसरोवर के तट पर रहने लगे और वहाँ नखों और चोंच के प्रहार से भयंकर युद्ध करते रहे। वे दोनों ऋषि मदोन्मत्त सिंहों के समान रोषयुक्त होकर दस हजार वर्षों तक आपस में युद्ध करते रहे ॥ २९-३४ ॥ राजा बोले — श्रेष्ठ तपस्वी और धर्मपरायण वे दोनों मुनिश्रेष्ठ किस कारण परस्पर वैरपरायण हुए? उन दोनों बुद्धिमान् ऋषियों ने किस कारण से एक-दूसरे को शाप दिया ? जो मनुष्यों के लिये कष्टकारक और दुःखदायक सिद्ध हुए ॥ ३५-३६ ॥ व्यासजी बोले — पूर्वकाल में सूर्यवंश में त्रिशंकु के पुत्र हरिश्चन्द्र नामक एक श्रेष्ठ राजा हुए, जो रामचन्द्रजी के पूर्वज थे ॥ ३७ ॥ वे राजर्षि सन्तानहीन थे, अतः पुत्र की कामना से वरुणदेव की प्रसन्नता के लिये उन्होंने ‘नरमेध’ नामक दुष्कर महायज्ञ करने की प्रतिज्ञा की। उस यज्ञ का व्रत लेने से वरुणदेव उनपर प्रसन्न हो गये और राजा की परम रूपवती भार्या ने गर्भ धारण किया ॥ ३८-३९ ॥ रानी को गर्भवती देखकर राजा प्रसन्न हुए और उन्होंने विधिपूर्वक गर्भ को संस्कारित करने वाला कर्म सम्पन्न कराया ॥ ४० ॥ हे राजन्! रानी ने समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न पुत्र को जन्म दिया । पुत्र के उत्पन्न होने पर राजा बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने जातकर्म आदि संस्कारकी उत्तम विधि सम्पन्न की। ब्राह्मणों को विशेषरूप से स्वर्ण और पयस्विनी गौएँ प्रदान कीं ॥ ४१-४२ ॥ हे महाराज ! जब घर में जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया जा रहा था। उसी समय ब्राह्मण का वेश धारण करके वरुणदेव आये, आसन प्रदान करके राजा ने विधिवत् उनकी पूजा की। आगमन के विषय में पूछे जाने पर ‘मैं वरुण हूँ’– यह वाक्य उन्होंने राजा से कहा । हे राजेन्द्र ! जैसा आपने संकल्प किया था, अब अपने पुत्र को बलिपशु बनाकर परम पवित्र यज्ञ कीजिये और सत्यवादी बनिये ॥ ४३-४५ ॥ उनकी यह बात सुनकर राजा व्यथा से व्याकुल तथा विह्वल हो गये; पुनः अपनी व्यथा को उन्होंने श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़कर वरुणदेव से कहा — हे स्वामिन्! मैंने जिस यज्ञ का संकल्प लिया है, उस यज्ञ को मैं विधिपूर्वक करूँगा और सत्यवादी होऊँगा ॥ ४६-४७ ॥ हे सुरश्रेष्ठ! एक माह पूर्ण होने पर मेरी धर्मपत्नी [जननाशौच से] शुद्ध हो जायँगी, पत्नी के शुद्ध हो जाने पर मैं उस पशुयज्ञ को करूँगा ॥ ४८ ॥ व्यासजी बोले — राजा के यह कहने पर वरुणदेव अपने घर चले गये। अब राजा सन्तुष्ट हो गये, किंतु कुछ-कुछ चिन्तातुर रहने लगे ॥ ४९ ॥ एक माह पूर्ण होने पर वरुणदेव सुन्दर और मृदुभाषी ब्राह्मण का वेश बनाकर परीक्षा लेने के लिये पुन: राजमहल में आये ॥ ५० ॥ तब सम्यक् रूप से पूजित होकर सुखदायी आसन पर विराजमान उन सुरश्रेष्ठ वरुण से राजा ने विनयपूर्वक उद्देश्यपरक यह बात कही — ॥ ५१ ॥ हे स्वामिन्! पुत्र तो अभी संस्काररहित है, उसे यूप में कैसे बाँधूं ? संस्कार करके उसे क्षत्रिय बनाकर मैं उस उत्तम यज्ञ को सम्पन्न करूँगा ॥ ५२ ॥ हे देव! संस्कारहीन बालक का कहीं भी अधिकार नहीं होता है, अतः यदि मुझ पर दया करें तो मुझे अपना सेवक और दीन जानकर कुछ समय और दे दीजिये ॥ ५३ ॥ वरुण बोले — हे राजन्! आप समय को आगे बढ़ाकर धोखा दे रहे हैं; निःसन्तान होने के कारण आपका पुत्रस्नेह छोड़ना दुष्कर है — इसे मैं जानता हूँ । हे राजेन्द्र ! आपकी मधुर वाणी सुनकर मैं घर जा रहा हूँ, कुछ समय तक प्रतीक्षा करके मैं पुनः आपके घर आऊँगा । हे तात! उस समय आपको अपनी बात को सत्य सिद्ध करना होगा, अन्यथा मैं क्रुद्ध होकर आपको शाप दे दूँगा ॥ ५४–५६ ॥ राजा बोले — हे जलाधिनाथ! मैं समावर्तन-संस्कार हो जाने पर पुत्र को यज्ञ – पशु बनाकर विधिपूर्वक यज्ञ करूँगा ॥ ५७ ॥ व्यासजी बोले — राजा का यह वचन सुनकर वरुणदेव प्रसन्न होकर ‘ठीक है’ ऐसा कहकर तुरंत चले गये और राजा भी स्वस्थचित्त हो गये ॥ ५८ ॥ इधर राजा का रोहित नाम का वह पुत्र बड़ा हो गया; वह बुद्धिमान् और समस्त विद्याओं में पारंगत हो गया ॥ ५९ ॥ उसे यज्ञ का सब कारण विस्तारपूर्वक ज्ञात हो गया। तब वह अपनी मृत्यु जानकर अत्यन्त भयभीत हो गया ॥ ६० ॥ [ एक दिन] वह वीर भागकर राजमहल से एक अगम्य पर्वत की गुफा में चला गया और भयग्रस्त होकर वहाँ रहने लगा ॥ ६१ ॥ समय पर वरुणदेव यज्ञ की अभिलाषा से राजमहल में आये और राजा से बोले — हे राजन् ! यज्ञ कीजिये ॥ ६२ ॥ यह सुनकर उदास मुख वाले राजा ने व्यथित होकर उनसे कहा — हे सुरश्रेष्ठ! मैं क्या करूँ? मेरा पुत्र कहीं चला गया है ॥ ६३ ॥ राजा की यह बात सुनकर जलचरों के अधिपति वरुणदेव ने क्रुद्ध होकर असत्यवादी राजा को शाप दे दिया — कपटविशारद हे राजन् ! तुमने मुझे धोखा दिया है, अतः तुम्हारे शरीर में जलोदर नामक रोग हो जाय ॥ ६४-६५ ॥ ऐसा शाप देकर पाशधारी वरुणदेव अपने लोक को चले गये और रोग से पीड़ित होकर राजा अपने महल में चिन्तित रहने लगे ॥ ६६ ॥ जब शापजन्य रोग से राजा बहुत व्यथित हो गये तब उनके पुत्र ने भी पिता के रोग पीड़ित होने की बात सुनी ॥ ६७ ॥ किसी पथिक ने उससे कहा — हे राजपुत्र ! शाप के कारण जलोदर रोग से ग्रस्त तुम्हारे पिता बहुत अधिक दुःखी हैं ॥ ६८ ॥ हे दुर्बुद्धि ! तुम्हारा जीवन नष्ट हो गया, तुम्हारा जन्म लेना व्यर्थ है; क्योंकि तुम अपने पिता को दुःखी अवस्था में छोड़कर पर्वत की गुफा में छिपे हो ॥ ६९ ॥ हे कुपुत्र ! तुम्हारे इस शरीर से तुम्हारे जन्म लेने का क्या लाभ है, जो तुम अपने पिता को दुःखी करके यहाँ रह रहे हो ? ॥ ७० ॥ राजा हरिश्चन्द्र तुम्हारे लिये दुःखी और व्याधि से पीड़ित होकर विलाप कर रहे हैं। पिता के लिये सत्पुत्र को प्राणों तक का त्याग कर देना चाहिये — यह सिद्धान्त है ॥ ७१ ॥ व्यासजी बोले — तब पथिक की धर्मसंगत बात सुनकर जैसे ही रोहित ने पीडाग्रस्त अपने पिता को देखने के लिये जाने का विचार किया, वैसे ही ब्राह्मण का रूप धारण करके इन्द्र वहाँ आ गये। हे भारत ! उन्होंने दयालु की भाँति एकान्त में हित की यह बात कही — हे राजकुमार ! तुम मूर्ख हो, जो वहाँ जाने का व्यर्थ विचार कर रहे हो। तुम नहीं जानते कि तुम्हारे पिता तुम्हारे लिये क्यों दुःखी हैं ? ॥ ७२-७४ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘हरिश्चन्द्रकी जलोदरव्याधिपीड़ा का वर्णन’ नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥ Content is available only for registered users. 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