March 30, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-प्रथमःस्कन्धः-अध्याय-10 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-प्रथमःस्कन्धः-अथ दशमोऽध्यायः दसवाँ अध्याय व्यासजी की तपस्या और वर-प्राप्ति शिववरदानवर्णनम् ॥ ऋषय ऊचुः ॥ सूत पूर्वं त्वया प्रोक्तं व्यासेनामिततेजसा । कृत्वा पुराणमखिलं शुकायाध्यापितं शुभम् ॥ १ ॥ व्यासेन तु तपस्तप्त्वा कथमुत्पादितः शुकः । विस्तरं ब्रूहि सकलं यच्छ्रुतं कृष्णतस्त्वया ॥ २ ॥ ऋषिगण बोले — हे सूतजी! आपने हमें पहले ही बतला दिया है कि असीम तेज वाले व्यासजी ने कल्याणकारी समस्त पुराणों की रचना करके उन्हें शुकदेवजी को पढ़ाया ॥ १ ॥ व्यासजी ने घोर तप करके शुकदेवजी को किस प्रकार पुत्ररूप में प्राप्त किया? व्यासजी के मुख से आपने जो कुछ सुना है, बह सब हमसे विस्तारपूर्वक कहिये ॥ २ ॥ ॥ सूत उवाच ॥ प्रवक्ष्यामि शुकोत्पत्तिं व्यासात्सत्यवतीसुतात् । यथोत्पन्नः शुकः साक्षाद्योगिनां प्रवरो मुनिः ॥ ३ ॥ मेरुशृङ्गे महारम्ये व्यासः सत्यवतीसुतः । तपश्चचार सोऽत्युग्रं पुत्रार्थं कृतनिश्चयः ॥ ४ ॥ जपन्नेकाक्षरं मन्त्रं वाग्बीजं नारदाच्छ्रुतम् । ध्यायन्परां महामायां पुत्रकामस्तपोनिधिः ॥ ५ ॥ अग्नेर्भूमेस्तथा वायोरन्तरिक्षस्य चाप्ययम् । वीर्येण सम्मितः पुत्रो मम भूयादिति स्म ह ॥ ६ ॥ अतिष्ठत्स गताहारः शतसंवत्सरं प्रभुः । आराधयन्महादेवं तथैव च सदाशिवाम् ॥ ७ ॥ शक्तिः सर्वत्र पूज्येति विचार्य च पुनः पुनः । अशक्तो निन्द्यते लोके शक्तस्तु परिपूज्यते ॥ ८ ॥ यत्र पर्वतशृङ्गे वै कर्णिकारवनाद्भुते । क्रीडन्ति देवताः सर्वे मुनयश्च तपोऽधिकाः ॥ ९ ॥ आदित्या वसवो रुद्रा मरुतश्चाश्विनौ तथा । वसन्ति मुनयो यत्र ये चान्ये ब्रह्मवित्तमाः ॥ १० ॥ तत्र हेमगिरेः शृङ्गे संगीतध्वनिनादिते । तपश्चचार धर्मात्मा व्यासः सत्यवतीसुतः ॥ ११ ॥ सूतजी बोले — सत्यवतीपुत्र व्यासजी से जिसं प्रकार योगिजनों मे श्रेष्ठ साक्षात् मुनिस्वरूप शुकदेवजी उत्पन्न हुए, उत्पत्ति के उस इतिहास को मैं आप लोगों को बता रहा हूँ ॥ ३ ॥ सत्यवती के पुत्र महर्षि व्यास पुत्र-प्राप्ति के लिये दृढ संकल्प कर अत्यन्त मनोहर सुमेरुपर्वत के शिखर पर कठोर तपस्या करने लगे ॥ ४ ॥ नारदजी से सुने गये एकाक्षर वाग्बीज मन्त्र का जप करते हुए तपोनिधि व्यासजी पुत्र-प्राप्ति की कामना से परात्परा महामाया में अपना ध्यान केन्द्रित किये हुए मन-ही-मन सोच रहे थे कि अग्नि, भूमि, वायु एवं आकाश — इनकी शक्ति से सम्पन्न पुत्र को मुझे प्राप्ति हो ॥ ५-६ ॥ इस प्रकार प्रभुता सम्पन्न वे व्यासजी निराहार रहते हुए सौ वर्षो तक शंकर एवं सदाशिवा भगवती की आराधना में लीन रहे ॥ ७ ॥ अनेकशः विचार करते हुए महर्षि व्यास इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि शक्ति ही सर्वत्र पूजनीया है। निर्बल प्राणी लोक में निन्दा का पात्र होता है और शक्तिशाली की पूजा की जाती है ॥ ८ ॥ जहाँ पर्वत-शिखर पर कर्णिकार पुष्प के अद्भुत वन में देवता एवं महातपस्वी मुनिवृन्द विहार करते हैं; जहाँ सूर्य, वसु, रुद्र, पवन, अश्विनीकुमारद्वय एवं ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ अन्य मुनिजन निवास करते हैं; मधुर संगीत को ध्वनि से मुखरित उसी सुमेरुपर्वत की चोटी पर सत्यवतीनन्दन धर्मात्मा व्यासजी ने तपस्या की ॥ ९-११ ॥ ततोऽस्य तेजसा व्याप्तं विश्वं सर्वं चराचरम् । अग्निवर्णा जटा जाता पाराशर्यस्य धीमतः ॥ १२ ॥ ततोऽस्य तेज आलक्ष्य भयमाप शचीपतिः । तुरासाहं तदा दृष्ट्वा भयत्रस्तं श्रमातुरम् ॥ १३ ॥ उवाच भगवान् रुद्रो मघवन्तं तथास्थितम् । उनके इस तपश्चरण के प्रभाव से समग्र चराचर जगत् व्याप्त हो गया और महामेधासम्पन्न पराशरपुत्र व्यासजी की जटा अग्निवर्ण हो गयी ॥ १२ ॥ तदनन्तर व्यासजी का यह तेज देखकर इन्द्र भयभीत हो गये । तब इन्द्र को भयाक्रान्त तथा व्याकुल देखकर भगवान् शंकरजी उनसे कहने लगे की ॥ १३१/२ ॥ ॥ शङ्कर उवाच ॥ कथमिन्द्राद्य भीतोऽसि किं दुःखं ते सुरेश्वर ॥ १४ ॥ अमर्षो नैव कर्तव्यस्तापसेषु कदाचन । तपश्चरन्ति मुनयो ज्ञात्वा मां शक्तिसंयुतम् ॥ १५ ॥ न त्वेतेऽहितमिच्छन्ति तापसाः सर्वथैव हि । इत्युक्तवचनः शक्रस्तमुवाच वृषध्वजम् ॥ १६ ॥ कस्मात्तपस्यति व्यासः कोऽर्थस्तस्य मनोगतः । शंकरजी बोले — हे सुरेश्वर! आपको क्या दुःख है ? हे इन्द्र! आज आप इस तरह भयग्रस्त क्यों हैं ? तपस्वियों से कभी भी ईर्ष्या नहीं करनी चाहिये; क्योंकि मुनिगण मुझे शक्तिसम्पन्न जानकर ही तपस्या करते हें । ये तपस्वी मुनि लोग कभी भी किसी का अपकार नहीं चाहते हैं । शंकरजी के ऐसा कहनेपर इन्द्र उनसे बोले — व्यासजी ऐसा तप किसलिये कर रहे हैं, उनकी क्या मनोकामना है ?॥ १४-१६१/२ ॥ ॥ शिव उवाच ॥ पाराशर्यस्तु पुत्रार्थी तपश्चरति दुश्चरम् ॥ १७ ॥ पूर्णवर्षशतं जातं ददाम्यद्य सुतं शुभम् । ॥ सूत उवाच ॥ इत्युक्त्या वासवं रुद्रो दयया मुदिताननः ॥ १८ ॥ गत्वा ऋषिसमीपं तु तमुवाच जगद्गुरुः । उत्तिष्ठ वासवीपुत्र पुत्रस्ते भविता शुभः ॥ १९ ॥ सर्वतेजोमयो ज्ञानी कीर्तिकर्ता तवानघ । अखिलस्य जनस्यात्र वल्लभस्ते सुतः सदा ॥ २० ॥ भविष्यति गुणैः पूर्णः सात्त्विकैः सत्यविक्रमः । शिवजी बोले — व्यासजी पुत्र-प्राप्ति की कामना से यह कठोर तप कर रहे हैं। इन्हें तपस्या करते हुए पूरे एक सौ वर्ष हो चुके हैं, अतः मैं इन्हें कल्याणकारी पुत्र प्रदान करूँगा ॥ १७१/२ ॥ सूतजी बोले — दयाभाव से युक्त प्रसन्न मुख वाले जगद्गुरु भगवान् शंकर इन्द्र से ऐसा कहकर मुनि व्यासजी के पास जाकर बोले — हे वासवीपुत्र! उठो, तुम्हें कल्याणकारी पुत्र अवश्य प्राप्त होगा। हे निष्पाप! तुम्हारा वह पुत्र सभी प्रकार के तेजों से सम्पन्न, ज्ञानवान्, यशस्वी और सभी लोगों का सदा अतिशय प्रिय, समस्त सात्त्विक गुणों से सम्पन्न तथा सत्यरूपी पराक्रम से युक्त होगा ॥ १८-२०१/२ ॥ ॥ सूत उवाच ॥ तदाकर्ण्य वचः श्लक्ष्णं कृष्णद्वैपायनस्तदा ॥ २१ ॥ शूलपाणिं नमस्कृत्य जगामाश्रममात्मनः । स गत्वाश्रममेवाशु बहुवर्षश्रमातुरः ॥ २२ ॥ अरणीसहितं गुह्यं ममन्थाग्निं चिकीर्षया । मन्थनं कुर्वतस्तस्य चित्ते चिन्ताभरस्तदा ॥ २३ ॥ प्रादुर्बभूव सहसा सुतोत्पत्तौ महात्मनः । मन्थानारणिसंयोगान्मन्थनाच्च समुद्भवः ॥ २४ ॥ पावकस्य यथा तद्वत्कथं मे स्यात्सुतोद्भवः । पुत्रारणिस्तु या ख्याता सा ममाद्य न विद्यते ॥ २५ ॥ तरुणी रूपसम्पन्ना कुलोत्पन्ता पतिव्रता । कथं करोमि कान्तां च पादयोः शृङ्खलासमाम् ॥ २६ ॥ पुत्रोत्पादनदक्षां च पातिव्रत्ये सदा स्थिताम् । पतिव्रतापि दक्षापि रूपवत्यपि कामिनी ॥ २७ ॥ सदा बन्धनरूपा च स्वेच्छासुखविधायिनी । शिवोऽपि वर्तते नित्यं कामिनीपाशसंयुतः ॥ २८ ॥ कथं करोम्यहं चात्र दुर्घटं च गृहाश्रमम् । सूतजी बोले — तब शूलपाणि शंकरजी का मधुर वचन सुनकर उन्हें प्रणामकर द्वैपायन व्यासजी ने अपने आश्रम के लिये प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचकर कई वर्षां तक घोर तप करने के कारण अतिशय श्रान्त महर्षि व्यास अरणी में समाहित अग्नि को प्रकट करने की कामना से अरणि-मन्थन करने लगे। मन्थन कर रहे व्यासजी के मन में उस समय महान् चिन्ता हो रही थी ॥ २१-२३ ॥ मन्थन तथा अरणि के पारस्परिक संयोग से प्रकटित अग्नि को देखकर व्यासजी के मन में अचानक पुत्रोत्पत्ति का विचार आया कि अरणि-मन्थनजनित अग्नि की भाँति मुझे पुत्र कैसे उत्पन्न हो ? क्योंकि पुत्र प्रदान करने वाली अरणी-रूपी वह रूपवती, उत्तम कुल में उत्पन्न तथा पतिव्रता युवती स्त्री मेरे पास है नहीं, साथ ही पैरों की श्रृंखला के समान स्त्री को मैं कैसे अंगीकार करूँ ? पुत्र उत्पन्न करने में कुशल और पातिव्रत्य धर्म में सदा तत्पर रहने वाली पत्नी मुझे कैसे मिले ? पतिपरायणा, निपुण, रूपवती-कैसी भी स्त्री हो; वह सदा बन्धन की कारण ही बनी रहती है । स्त्री सदा अपनी इच्छा के अनुसार सुख प्राप्त करना चाहती है। शंकरजी भी नित्य स्त्री के मोहपाश में फँसे हुए रहते हैं । अत: अब मैं अत्यन्त विषम गृहस्थाश्रम-धर्म को किस प्रकार अंगीकार करूँ ?॥ २४-२८१/२ ॥ एवं चिन्तयतस्तस्य घृताची दिव्यरूपिणी ॥ २९ ॥ प्राप्ता दृष्टिपथं तत्र समीपे गगने स्थिता । तां दृष्ट्वा चञ्चलापाङ्गीं समीपस्थां वराप्सराम् ॥ ३० ॥ पञ्चबाणपरीताङ्गस्तूर्णमासीद्धृतव्रतः । चिन्तयामास च तदा किं करोम्यद्य संकटे ॥ ३१ ॥ धर्मस्य पुरतः प्राप्ते कामभावे दुरासदे । अङ्गीकरोमि यद्येनां वञ्चनार्थमिहागताम् ॥ ३२ ॥ हसिष्यन्ति महात्मानस्तापसा मां तु विह्वलम् । तपस्तप्त्वा महाघोरं पूर्णवर्षशतं त्विह ॥ ३३ ॥ दृष्ट्वाप्सरां च विवशः कथं जातो महातपाः । कामं निन्दापि भवतु यदि स्यादतुलं सुखम् ॥ ३४ ॥ गहस्थाश्रमसम्भूतं सुखदं पुत्रकामदम् । स्वर्गदं च तथा प्रोक्तं ज्ञानिनां मोक्षदं तथा ॥ ३५ ॥ न भविष्यति तन्नूनमया देवकन्यया । नारदाच्च मया पूर्वं श्रुतमस्ति कथानकम् । यथोर्वशीवशो राजा पराभूतः पुरूरवाः ॥ ३६ ॥ ॥ इति श्रीमद्देवीभागवते महायुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे शिववरदानवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥ व्यासजी ऐसा विचार कर ही रहे थे कि आकाश में समीप में ही स्थित घृताची नामक अप्सरा उन्हें दृष्टि-गोचर हुई। चंचल कटाक्षों वाली उस श्रेष्ठ अप्सरा को पास में ही स्थित देखकर कठोर नियम-संयम धारण करने वाले व्यासजी शीघ्र ही कामबाण से आहत अंगों वाले हो गये और सोचने लगे कि अब इस विषम संकट के समय मैं क्या करूँ ? ॥ २९-३१ ॥ धर्म के समक्ष इस दुर्जय कामवासना के वशीभूत होकर यदि मैं छलने के लिये यहाँ उपस्थित हुई इस अप्सरा को स्वीकार करता हूँ, तब ऐसी स्थिति में महात्मा तथा तपस्वीगण मुझ कामासक्ति से विह्वल का यह उपहास करेंगे कि सौ वर्षों तक कठिन तपस्या करने के पश्चात् भी एक अप्सरा को देखकर महातपस्वी व्यास इतने विवश कैसे हो गये? और फिर यदि इसमें अतुलनीय सुख हो तो ऐसी निन्दा भी होती रहे। अर्थात् उसकी उपेक्षा भी की जा सकती है ॥ ३२-३४ ॥ गृहस्थाश्रम पुत्र-प्राप्ति की कामना पूर्ण करने वाला, स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला तथा ज्ञानियों को मोक्ष देने वाला कहा गया है। किंतु वैसा सुख इस देवकन्या से नहीं प्राप्त होगा। पूर्वकाल में मैंने नारदजी से एक कथा सुनी थी जिसमें राजा पुरूरवा उर्वशी के वशीभूत होकर अत्यन्त संकट में पड़ गये थे ॥ ३५-३६ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत प्रथम स्कन्ध का ‘शिववरदानवर्णनं’ नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥ १० ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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