May 1, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-17 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-सप्तदशोऽध्यायः सत्रहवाँ अध्याय भगवती की कृपा से भार्गव ब्राह्मणी की जंघा से तेजस्वी बालक की उत्पत्ति, हैहयवंशी क्षत्रियों की उत्पत्ति की कथा हैहयैर्धनाहरणेन सह भृगूणां वधवर्णनम् जनमेजय बोले — भृगुवंश की स्त्रियों का पुनः दुःखरूप समुद्र से कैसे उद्धार हुआ और उन ब्राह्मणों की वंशपरम्परा किस प्रकार स्थिर रही ? ॥ १ ॥ लोभ के वशीभूत तथा पापाचारी हैहय क्षत्रियों ने उन ब्राह्मणों को मारने के पश्चात् कौन-सा कार्य किया? उसे आप बताइये ॥ २ ॥ हे ब्रह्मन् ! आपके द्वारा कथित इस पवित्र, लोगों के लिये सुखदायक तथा परलोक में फल देने वाले कथामृत का पान करते हुए मुझे तृप्ति नहीं हो रही है ॥ ३ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन् ! सुनिये, वे स्त्रियाँ उस भयावह दु:ख से जिस प्रकार मुक्त हुईं, अब मैं उस पापनाशिनी कथा का वर्णन करूँगा ॥ ४ ॥ हे राजन् ! जब क्षत्रिय हैहय भृगुकुल की नारियों को बहुत पीड़ित करने लगे तब वे भयभीत तथा निराश होकर हिमालय-पर्वत पर चली गयीं ॥ ५ ॥ उन्होंने वहाँ नदी के तट पर गौरी की मृण्मयी प्रतिमा स्थापित करके निराहार रहते हुए [उपासना में लीन होकर ] अपने मरण के प्रति पूरा निश्चय कर लिया ॥ ६ ॥ एक समय स्वप्न में भगवती जगदम्बा ने उन उत्तम स्त्रियों के पास पहुँचकर कहा — तुम लोगों में से किसी की जंघा से एक पुरुष उत्पन्न होगा। मेरा अंशभूत वह शक्तिमान् पुरुष तुम लोगों का कार्य सिद्ध करेगा। ऐसा कहकर पराम्बा भगवती अन्तर्धान हो गयीं ॥ ७-८ ॥ जागने पर वे सभी स्त्रियाँ बहुत प्रसन्न हुईं। उनमें से किसी चतुर, कामिनी स्त्री ने जो भय से त्रस्त थी; वंशवृद्धि हेतु अपनी एक जंघा में गर्भ धारण किया ॥ ९१/२ ॥ जब उन हैहय क्षत्रियों ने व्याकुल तथा तेजयुक्त उस स्त्री को भागती हुई देखा तब वे उसके पीछे दौड़ पड़े ॥ १०१/२ ॥ ‘यह गर्भ धारण करके वेगपूर्वक भागी जा रही है, इसे पकड़ लो और मार डालो’ —इस प्रकार कहते हुए हाथ में तलवार लेकर वे उस स्त्री के पास पहुँच गये ॥ १११/२ ॥ भय से घबरायी हुई वह स्त्री अपने समीप आये हुए उन क्षत्रियों को देखकर रोने लगी और पुनः गर्भरक्षा के लिये भय से विह्वल होकर जोर-जोर से विलाप करने लगी ॥ १२१/२ ॥ तब दयनीय दशावाली, प्राणहीन-सी प्रतीत हो रही, आश्रयहीन, क्षत्रियों से पीडित होने के कारण क्रन्दन करती हुई, सिंह के द्वारा पकड़ी गयी गर्भवती हिरनी के समान प्रतीत होने वाली, आँसूभरे नेत्रों वाली तथा थर-थर काँपती हुई माता का रुदन सुनकर वह सुन्दर गर्भस्थ बालक कुपित होकर अपने तेज से क्षत्रियों की नेत्र-ज्योति का हरण करता हुआ जंघा का भेदन करके दूसरे सूर्य की भाँति शीघ्र ही बाहर निकल आया ॥ १३-१५१/२ ॥ उस बालक की ओर देखते ही वे सभी दृष्टिहीन हो गये। तत्पश्चात् वे क्षत्रिय जन्मान्ध की भाँति पर्वत की गुफाओं में इधर-उधर भटकने लगे। सभी क्षत्रिय मन में विचार करने लगे कि इस समय यह क्या हो गया है कि हम सभी लोग बालक को देखने मात्र से चक्षुहीन हो गये। ऐसा प्रतीत होता है कि इसी ब्राह्मणी का यह प्रभाव है; क्योंकि सतीव्रत एक महान् बल है। अमोघ संकल्प-वाली दुःखित स्त्रियाँ क्षणभर में न जाने क्या कर डालेंगी ! ॥ १६–१८१/२ ॥ ऐसा मन में सोचकर नेत्रहीन, निराश्रय तथा चेतनारहित हैहयवंशी क्षत्रिय उस ब्राह्मणी की शरण में गये और उन्होंने भय से त्रस्त उस स्त्री को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया। वे श्रेष्ठ क्षत्रिय अपनी नेत्रज्योति के लिये इस भयाकुल ब्राह्मणी से कहने लगे — ॥ १९-२०१/२ ॥ हे सुभगे ! हे माता ! हम सब आपके सेवक हैं। अब आप हमारे ऊपर प्रसन्न हो जाइये। हे रम्भोरु ! पाप बुद्धिवाले हम क्षत्रियों ने अपराध किया है। हे तन्वंगि ! इसीलिये आपको देखते ही हम सब चक्षुविहीन हो गये । हे भामिनि ! जन्म से अन्धे व्यक्ति की भाँति हम आपका मुखदर्शन कर पाने में समर्थ नहीं हैं। आपका तप तथा पराक्रम अद्भुत है; हम पापपरायण कर ही क्या सकते हैं ? हे मानदे ! हम आपकी शरण में हैं। हमें नेत्र दीजिये; क्योंकि नेत्रज्योति से विहीन हो जाना मृत्यु से भी कष्टकारक होता है। आप हमारे ऊपर कृपा कीजिये। फिर से नेत्रज्योति देकर इन समस्त क्षत्रियों को अपना सेवक बना लीजिये । इसके बाद पापकर्म से रहित होकर हम लोग साथ-साथ चले जायँगे। अब हम लोग इस प्रकार का कर्म कभी नहीं करेंगे। अब हम सभी भार्गव ब्राह्मणों के सेवक हो गये। हम लोगों ने अज्ञानवश जो भी पाप किया है, उसे आप क्षमा करें। हम हैहय क्षत्रिय शपथपूर्वक कहते हैं कि आज से कभी भी भृगुवंशी ब्राह्मणों के साथ हमें वैरभाव नहीं रखना चाहिये और यथोचित व्यवहार करना चाहिये । हे सुश्रोणि! आप पुत्रवती होवें । हम आपकी शरण में हैं। हे कल्याणि ! आप कृपा करें; हमलोग अब कभी भी द्वेषभाव नहीं रखेंगे ॥ २१-२८ ॥ व्यासजी बोले — [ हे राजन्!] उन क्षत्रियों की यह बात सुनकर ब्राह्मणी विस्मय में पड़ गयी और उसने शरणागत तथा दुर्गति को प्राप्त उन नेत्रहीन क्षत्रियों को आश्वासन देकर कहा — हे क्षत्रियो ! आप लोग निश्चितरूप से जान लें कि मैंने आप सबकी दृष्टि का हरण नहीं किया है ॥ २९-३० ॥ मैं आप लोगों पर कुपित नहीं हूँ। अब मैं वास्तविक कारण बता रही हूँ, आप लोग सुनिये। मेरी जंघा से उत्पन्न यह भृगुवंशी बालक आज आप लोगों पर कुपित है। क्षत्रियों के द्वारा अपने बान्धवों और यहाँ तक कि गर्भस्थित बालकों का वध किये जाने की बात जानकर कोपाविष्ट इसी बालक ने आप लोगों के नेत्र स्तम्भित कर दिये हैं ॥ ३१-३२ ॥ जब आप लोग निरपराध, धर्मनिष्ठ तथा तपस्वी भार्गव ब्राह्मणों और गर्भस्थ बालकों को भी धनलोलुपता में पड़कर मार रहे थे तभी मैंने इसे अपनी जंघा में गर्भरूप से एक सौ वर्ष तक धारण किये रखा। भृगुवंश की वृद्धि के लिये इस गर्भस्थ बालक ने छहों अंगोंसहित सम्पूर्ण वेदों का बड़े सहजभाव से अध्ययन कर लिया है और अब यह अपने पितृजनों के वध से अत्यन्त कुपित होकर आप लोगों का संहार करना चाहता है ॥ ३३-३५ ॥ मेरा यह पुत्र भगवती की कृपा से उत्पन्न हुआ है, जिसके अलौकिक तेज ने आप लोगों के नेत्र हर लिये हैं ॥ ३६ ॥ अतएव आप लोग इसी समय मेरी जंघा से उत्पन्न इस बालक से विनम्रतापूर्वक याचना कीजिये । चरणों में गिरने से प्रसन्न होकर यह बालक आप लोगों की नेत्रज्योति मुक्त कर देगा ॥ ३७ ॥ व्यासजी बोले — उस ब्राह्मणी का वचन सुनकर हैहयों ने जंघा से उत्पन्न बालकरूप मुनिश्रेष्ठ को प्रणाम किया और वे विनय से युक्त होकर उसकी स्तुति करने लगे ॥ ३८ ॥ तत्पश्चात् प्रसन्न होकर उस बालक ने उन नेत्रहीन क्षत्रियों से कहा — हे राजाओ ! अब तुम लोग मेरी कही हुई बात पर विश्वास करके अपने घर लौट जाओ ॥ ३९ ॥ दैव ने जो विधान सुनिश्चित कर दिये हैं, वे अवश्य होकर रहते हैं; ज्ञानी व्यक्ति को इस विषय में चिन्ता नहीं करनी चाहिये ॥ ४० ॥ सभी ऋषिगण पूर्व की भाँति सुख प्राप्त करें तथा सभी क्षत्रिय भी अब क्रोधरहित होकर सुखपूर्वक अपने- अपने घरों के लिये प्रस्थान करें ॥ ४१ ॥ इस प्रकार उसके कहने पर उन हैहयवंशी क्षत्रियों को दृष्टि प्राप्त हो गयी और वे और्व से आज्ञा लेकर आनन्दपूर्वक अपने-अपने घर चले गये ॥ ४२ ॥ हे राजन्! वह ब्राह्मणी भी उस तेजस्वी तथा अलौकिक बालक को लेकर अपने आश्रम चली गयी और बड़ी सावधानीपूर्वक उसका पालन-पोषण करने लगी ॥ ४३ ॥ हे राजन् ! इस प्रकार भृगुवंश के विनाश तथा लोभ के वशीभूत हैहय क्षत्रियों ने जो पापकर्म किया था; उसके विषय में मैंने आपसे कहा ॥ ४४ ॥ जनमेजय बोले — हे मुने! मैंने क्षत्रियों के अत्यन्त दारुण कर्म के विषय में सुन लिया। इहलोक तथा परलोक में दुःख देने वाला वह लोभ ही इसमें मूल कारण है ॥ ४५ ॥ हे सत्यवतीनन्दन ! इस विषय में कुछ पूछकर मैं अपनी शंका का समाधान चाहता हूँ । ये क्षत्रिय इस जगत् में हैहय नाम से क्यों प्रसिद्ध हुए ? ॥ ४६ ॥ यदु से यादव हुए तथा भरत से भारत हुए। उसी प्रकार क्या उन क्षत्रियों के वंश में ‘हैहय’ नामधारी कोई प्रतिष्ठित राजा हुआ था ? ॥ ४७ ॥ हे करुणानिधान! उन हैहय क्षत्रियों की उत्पत्ति कैसे हुई तथा किस कर्म से उनका यह नाम पड़ा ? वह कारण मैं सुनना चाहता हूँ ॥ ४८ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन् ! अब मैं हैहयों की उत्पत्ति से सम्बन्धित अति प्राचीन, पुण्यदायिनी तथा पापनाशिनी कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन कर रहा हूँ, आप इसे सुनिये ॥ ४९ ॥ हे महाराज ! किसी समय अत्यन्त सुन्दर, रूपवान् तथा अपरिमित तेजवाले सूर्यपुत्र जो ‘रेवन्त’ नाम से विख्यात थे, अपने मनोहर अश्वरत्न उच्चैःश्रवा पर आरूढ़ होकर भगवान् विष्णु के निवासस्थान वैकुण्ठलोक गये ॥ ५०-५१ ॥ विष्णु के दर्शन के आकांक्षी वे भास्करनन्दन घोड़े पर सवार होकर जब वहाँ पहुँचे तब लक्ष्मीजी की दृष्टि अश्व पर विराजमान रेवन्त पर पड़ गयी ॥ ५२ ॥ समुद्र से प्रादुर्भूत अपने भाई अलौकिक उच्चैः श्रवा घोड़े को देखकर वे महान् विस्मय में पड़ गयीं और उसके रूप को स्थिर नेत्रों से देखती रह गयीं ॥ ५३ ॥ भगवान् विष्णु ने उस मनोहर रेवन्त को घोड़े पर बैठकर आता हुआ देखकर लक्ष्मीजी से प्रेमपूर्वक पूछा — हे सुन्दर अंगोंवाली ! हे प्रिये ! दूसरे कामदेव के समान तेजोमय शरीर वाला यह कौन है जो घोड़े पर सवार होकर तीनों लोकों को मोहित करता हुआ इधर चला आ रहा है ॥ ५४-५५ ॥ उस समय घोड़े को एकटक देखते रहने से दैववशात् उसी में चित्तयोग हो जाने के कारण भगवान् विष्णु के बार- बार पूछने पर भी लक्ष्मीजी ने कुछ नहीं कहा ॥ ५६ ॥ व्यासजी बोले — भगवान् विष्णु कामिनी, चपल नेत्रोंवाली तथा चंचला लक्ष्मी को अत्यन्त मोहित होकर अत्यधिक प्रेम के साथ निहारती हुई तथा उस अश्व में अनुरक्त बुद्धि वाली देखकर क्रोधित हो उठे और उनसे बोले —हे सुलोचने ! तुम क्या देख रही हो ? इस घोड़े को देखकर मोहित हुई तुम मेरे पूछने पर भी उत्तर नहीं दे रही हो ॥ ५७-५८ ॥ क्योंकि तुम्हारा चित्त सभी ओर रमण करता है अतएव ‘रमा’ और तुम्हारी चंचलता के कारण तुम ‘चला ‘ कही जाओगी; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५९ ॥ जिस प्रकार सामान्य नारी चंचल होती है, उसी प्रकार हे कल्याणि ! तुम भी कभी स्थिर स्वभाववाली नहीं रहोगी ॥ ६० ॥ मेरे पास रहने पर भी तुम यदि एक अश्व को देखकर मोहित हो गयी हो तो हे वामोरु ! तुम अत्यन्त दारुण मर्त्यलोक में घोड़ी के रूप में जन्म ग्रहण करो ॥ ६१ ॥ दैवयोग से भगवान् विष्णु ने जब देवी लक्ष्मी को ऐसा शाप दे दिया तब वे अत्यन्त भयभीत तथा दुःखी होकर काँपती हुई रोने लगीं ॥ ६२ ॥ सुन्दर मुसकान वाली लक्ष्मीजी दुविधा में पड़ गयीं और अपने पति भगवान् विष्णु को विनय से युक्त होकर मस्तक झुकाकर प्रणाम करके उनसे कहने लगीं — ॥ ६३ ॥ हे देवदेव ! हे जगदीश्वर ! हे करुणानिधान! हे केशव ! हे गोविन्द ! एक छोटे से अपराध के लिये आपने मुझे ऐसा शाप क्यों दे दिया ? ॥ ६४ ॥ हे प्रभो ! मैंने आपका ऐसा क्रोध पहले कभी नहीं देखा। मेरे प्रति आपका वह सहज तथा शाश्वत प्रेम कहाँ चला गया ? ॥ ६५ ॥ आपको वज्रपात शत्रु पर करना चाहिये न कि अपने स्नेहीजन पर । आपसे सदा वर पाने योग्य मैं आज शाप के योग्य कैसे हो गयी ? ॥ ६६ ॥ हे गोविन्द ! मैं इसी समय आपके देखते-देखते आपके सामने प्राण त्याग दूँगी; क्योंकि आपसे वियुक्त होकर विरहाग्नि में जलती हुई मैं कैसे जीवित रह सकूँगी ? ॥ ६७ ॥ हे देवेश ! मेरे ऊपर कृपा कीजिये। हे विभो ! अब मैं इस दारुण शाप से मुक्त होकर आपका सुखदायी सांनिध्य कब प्राप्त करूँगी ? ॥ ६८ ॥ हरि बोले — हे प्रिये ! हे तन्वंगि! जब पृथ्वीलोक में तुम्हें मेरे समान एक पुत्र की प्राप्ति हो जायगी तब पुनः मुझे प्राप्त करके तुम सुखी हो जाओगी ॥ ६९ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘हैहयों की उत्पत्ति के प्रसंग में रमाविष्णुसंवादवर्णन’ नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥ Content is available only for registered users. 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