May 1, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-20 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-विंशोऽध्यायः बीसवाँ अध्याय राजा हरिवर्मा को भगवान् विष्णु द्वारा अपना हैहयसंज्ञक पुत्र देना, राजा द्वारा उसका ‘एकवीर’ नाम रखना एकवीराख्यानवर्णनम् जनमेजय बोले — [ हे मुनिवर ! ] मुझे इस विषय में यह महान् संशय हो रहा है कि भगवान् ने उत्पन्न होते ही उस बालक का त्याग कर दिया। निर्जन वन में उस असहाय बालक की देखभाल किसने की ? ॥ १ ॥ हे सत्यवतीनन्दन ! उस बालक की क्या गति हुई ? बाघ, सिंह आदि हिंसक जानवर उस छोटे-से बालक को उठा तो नहीं ले गये ॥ २ ॥ व्यासजी बोले — जब भगवान् विष्णु तथा लक्ष्मीजी उस स्थान से चले गये, उसी समय चम्पक नामक विद्याधर उत्तम विमान पर आरूढ़ होकर अपनी प्रेयसी मदनालसा के साथ इच्छापूर्वक विहार करते हुए संयोगवश वहाँ आ पहुँचा ॥ ३-४ ॥ देवपुत्र-तुल्य उस उत्तम शिशु को पृथ्वी पर सुखपूर्वक अकेले खेलते हुए देखकर चम्पक ने शीघ्रतापूर्वक विमान से उतरकर झट से उस बालक को उठा लिया और वह उसी प्रकार आनन्दित हो गया, जिस प्रकार कोई धनहीन व्यक्ति धन का खजाना पाकर आनन्दित हो जाता है ॥ ५-६ ॥ कामदेव के समान अत्यन्त सुन्दर उस नवजात शिशु को उठाकर चम्पक ने (अपनी पत्नी) मदनालसा को सौंप दिया ॥ ७ ॥ उस बालक को लेते ही प्रेम से रोमांचित तथा विस्मित मदनालसा हृदय से लगाकर उस बालक का मुख चूमने लगी ॥ ८ ॥ हे भारत ! प्रीतिपूर्वक हृदय से लगाने तथा चूमने के पश्चात् उस तन्वंगी मदनालसा ने उसे अपना पुत्र समझकर गोद में ले लिया ॥ ९ ॥ उसे गोद में लेकर पति-पत्नी प्रसन्नतापूर्वक विमान पर आरूढ़ हो गये। तब कमनीय अंगोंवाली मदनालसा ने हँसकर अपने पति से पूछा — हे कान्त ! बालक किसका है तथा किसने इसे निर्जन वन में छोड़ दिया है ? त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकर ने इसे मुझे पुत्ररूप में दिया है ॥ १०-११ ॥ चम्पक बोला — हे प्रिये ! मैं आज ही सब कुछ जानने वाले इन्द्र के पास जाकर पूछूंगा कि यह बालक देवता है, दानव है अथवा गन्धर्व है। उनसे आदेश प्राप्त करने के बाद ही मैं वन में प्राप्त इस बालक को अपना पुत्र बनाऊँगा; बिना उनसे पूछे मुझे कोई भी कार्य निश्चितरूप से नहीं करना चाहिये ॥ १२-१३ ॥ ऐसा कहकर उस मदनालसा तथा पुत्र को लेकर हर्षातिरेक के कारण उत्फुल्ल नेत्रोंवाले उस चम्पक ने तुरंत विमान से इन्द्रपुरी के लिये प्रस्थान किया । [ वहाँ पहुँचकर ] प्रेमपूर्वक इन्द्र के चरणों में प्रणामकर उस बालक को उन्हें समर्पित करके दोनों हाथ जोड़कर चम्पक खड़ा हो गया और बोला — ॥ १४-१५ ॥ हे देवदेव! कामदेवके समान प्रभावाला यह बालक मुझे परम पवित्र तीर्थ यमुना तथा तमसा नदी के संगम- स्थल पर प्राप्त हुआ था ॥ १६ ॥ हे शचीपते ! कान्ति से सम्पन्न यह बालक किसका है; इसका त्याग क्यों कर दिया गया है ? हे देवेश ! यदि आपका आदेश हो तो मैं इस बालक को अपना पुत्र बना लूँ ॥ १७ ॥ यह अत्यन्त सुन्दर बालक मेरी पत्नी का प्रिय पुत्र बन गया है। धर्मशास्त्रों में कृत्रिम पुत्र भी कहा गया है ॥ १८ ॥ इन्द्र बोले — यह अश्वरूपधारी भगवान् विष्णु का पुत्र है । हे महाभाग ! हैहयसंज्ञक यह परम तपस्वी बालक लक्ष्मीजी से उत्पन्न हुआ है ॥ १९ ॥ भगवान् विष्णु ने ययाति के पुत्र राजा हरिवर्मा को अर्पित करने के उद्देश्य से इस बालक को उत्पन्न किया है ॥ २० ॥ परम धार्मिक राजा हरिवर्मा भगवान् विष्णु से प्रेरणा प्राप्तकर पुत्र के लिये आज ही उस पावन तीर्थ में पहुँचेंगे। अतएव जबतक भगवान् विष्णु के द्वारा प्रेरित होकर वे राजा उसे लेने हेतु वहाँ पहुँच नहीं जाते, उससे पूर्व तुम इस सुन्दर बालक को लेकर वहीं पर पहुँच जाओ ॥ २१-२२ ॥ श्रेष्ठ ! वहाँ जाकर इस बालक को छोड़ दो, विलम्ब मत करो; क्योंकि राजा हरिवर्मा [तुमसे पहले पहुँच गये तो ] बालक को वहाँ न देखकर अत्यन्त दुःखी होंगे ॥ २३ ॥ अतएव हे चम्पक ! इस बालक को छोड़ आओ, जिससे राजा पुत्र प्राप्त कर लें। यह पृथ्वीलोक में ‘एकवीर’– इस नाम से प्रसिद्ध होगा ॥ २४ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन् ! इन्द्र की यह बात सुनकर चम्पक शीघ्रतापूर्वक उस बालक को लेकर उस स्थान पर पहुँच गया। बालक पहले जहाँ पड़ा हुआ था, वहीं पर उसने बालक को रख दिया और अपने विमान पर चढ़कर अपने स्थान को लौट गया ॥ २५-२६ ॥ इसके तुरंत बाद कमलाकान्त जगद्गुरु भगवान् विष्णु लक्ष्मीजी के साथ श्रेष्ठ विमान पर आरूढ़ होकर राजा के यहाँ पहुँचे ॥ २७ ॥ उस समय राजा हरिवर्मा ने भगवान् विष्णु को उत्तम विमान से उतरते हुए देखा । भगवान् के दर्शन से राजा अत्यन्त हर्षित हुए और दण्ड की भाँति उनके समक्ष पृथ्वी पर गिर पड़े ॥ २८ ॥ ‘ हे वत्स ! उठो’ – ऐसा कहकर भगवान् विष्णु ने भूमि पर पड़े हुए अपने भक्त को आश्वासन दिया। इसके बाद राजा हरिवर्मा भी उल्लसित होकर अपने सामने खड़े वासुदेव की भक्तिपूर्वक स्पष्ट वाणी में स्तुति करने लगे — ॥ २९ ॥ हे देवाधिदेव ! हे अखिललोकनाथ ! हे कृपानिधे ! हे लोकगुरो ! हे रमेश ! आपका जो दर्शन योगिजनों के लिये भी अलभ्य है, वह मुझ अज्ञानी के लिये तो अत्यन्त ही दुर्लभ था ॥ ३० ॥ जो लोग कामनारहित तथा विषयों से मुक्त हैं, उन्हें ही आपका दर्शन हो सकता है। हे भगवन्! हे अनन्त ! हे देवदेव ! केवल आशापरायण मैं वास्तव में आपके दर्शन के योग्य नहीं था ॥ ३१ ॥ इस प्रकार उन राजा के स्तुति करने पर भगवान् विष्णु ने अमृतमयी वाणी में उनसे कहा — हे राजन्! मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ । अतः मैं तुम्हें मनोवांछित वरदान दूँगा; तुम माँग लो ॥ ३२ ॥ तत्पश्चात् राजा ने अपने सामने स्थित विष्णु के चरणों में सिर झुकाकर उनसे कहा — हे मुरारे! मैंने पुत्रप्राप्ति के लिये तपस्या की है। अतएव आप मुझे अपने ही सदृश पुत्र दीजिये ॥ ३३ ॥ राजा की प्रार्थना सुनकर आदिदेव भगवान् विष्णु ने राजा से सार्थक वचन कहा — हे ययातिनन्दन ! तुम इसी समय यमुना तथा तमसा नदी के उस पावन संगम तीर्थ पर चले जाओ। हे राजन्! आप जैसा पुत्र चाहते हैं, वैसा ही पुत्र मैंने वहाँ रख दिया है। मेरे तेज से प्रादुर्भूत वह पुत्र अमित प्रभाववाला है तथा लक्ष्मीजी ने उसे उत्पन्न किया है। तुम्हारे लिये ही उसकी उत्पत्ति की गयी है, अत: तुम उसे ग्रहण करो ॥ ३४-३५ ॥ भगवान् विष्णु की अत्यन्त मधुर वाणी सुनकर राजा के मन में प्रसन्नता हुई। राजा को यह वरदान देकर भगवान् विष्णु लक्ष्मीजी के साथ वैकुण्ठ चले गये ॥ ३६ ॥ भगवान् विष्णु के चले जाने पर उनकी बात सुनकर आनन्दविभोर ययातिनन्दन राजा हरिवर्मा एक सुदृढ़ रथ पर आरूढ़ होकर उस स्थान पर गये, जहाँ बालक स्थित था ॥ ३७ ॥ वहाँ पहुँचने पर परम तेजस्वी राजा ने उस अति मनोहर बालक को एक हाथ से पैर का कोमल अँगूठा मुख में डालकर भूमि पर खेलता हुआ देखा ॥ ३८ ॥ लक्ष्मीजी से उत्पन्न भगवान् विष्णु के अंशस्वरूप तथा उन्हीं के समान प्रभावशाली एवं कामदेव के सदृश रूपवान् उस पुत्र को देखकर राजा हरिवर्मा का मुखारविन्द हर्ष से खिल उठा। उस बालक को अपने करकमलों से बड़ी तेजी से उठाते हुए राजा हरिवर्मा प्रेमसागर में मग्न हो गये। प्रसन्नतापूर्वक उसका मस्तक सूँघकर उन राजा ने पुत्र का आलिंगन किया और अत्यन्त आनन्द प्राप्त किया ॥ ३९-४० ॥ उस बालक का अत्यन्त मनोहर मुख देखकर प्रेम के अश्रु से रुँधे कण्ठवाले राजा ने उससे कहा — हे पुत्र ! भगवान् विष्णु तथा माता लक्ष्मी के द्वारा तुम मेरे लिये प्रदान किये गये हो । हे पुत्र ! नरकभोग के दुःख से भयभीत होकर मैंने तुम्हारे लिये पूरे सौ वर्षों तक अत्यन्त कठोर तपस्या की है । उसी तप से प्रसन्न होकर रमाकान्त विष्णु ने सांसारिक सुख भोगने के लिये तुम्हें पुत्ररूप में मुझे प्रदान किया है ॥ ४१-४२ ॥ लक्ष्मीजी तुम्हारी जननी हैं; तुझ पुत्र को मेरे लिये छोड़कर वे भगवान् विष्णु के साथ वैकुण्ठ चली गयी हैं । अब वह माता धन्य होगी, जो तुझ जैसे हँसते हुए पुत्र को अपनी गोद में लेकर आनन्द प्राप्त करेगी । हे पुत्र ! मेरे लिये संसार सागर को पार करने के लिये तुम नौकास्वरूप हो, जिसे साक्षात् लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु ने उत्पन्न किया है। ऐसा कहकर राजा हरिवर्मा प्रसन्नतापूर्वक उस पुत्रको लेकर अपने घर की ओर चले गये ॥ ४३-४४ ॥ राजा नगर के समीप आ गये हैं —ऐसा सुनकर राजा के सभी सचिव तथा उनके प्रजावर्ग पुरोहितों के साथ समस्त उपहार – सामग्री लेकर उनके पास पहुँच गये ॥ ४५ ॥ सूत, बंदीजन तथा गायकगण भी राजा के सामने उनका यशोगान करते हुए शीघ्र ही आ गये। नगर में आकर राजा हरिवर्मा अपने सम्मुख उपस्थित लोगों को [ स्नेहभरी] दृष्टि तथा [मधुर] वचनों से आश्वस्त करके नगरवासियों द्वारा भली-भाँति पूजित होकर पुत्र के साथ नगरी में प्रविष्ट हुए । नगर में जाते समय रास्तेभर राजा के ऊपर लाजा तथा फूलों की वर्षा की जा रही थी ॥ ४६-४७ ॥ सचिवों के साथ अपने समृद्धिशाली महल में पहुँचने पर राजा ने हर्षपूर्वक कामदेव के तुल्य कान्तिमान् तथा मनोहर नवजात पुत्र को दोनों हाथों में लेकर रानी को दे दिया ॥ ४८ ॥ उस बालक को गोद में लेकर पुण्यात्मा रानी ने राजा से पूछा — हे राजन् ! कामदेव के समान सुन्दर तथा उत्तम कुल में उत्पन्न इस पुत्र को आपने कहाँ से प्राप्त किया ? हे कान्त ! आप शीघ्र बताइये कि किसने आपको यह बालक दिया है ? इस पुत्र ने अपने सौन्दर्य से मेरे मन को वशीभूत कर लिया है। तब राजा ने बड़ी प्रसन्नता के साथ कहा — हे प्रिये ! हे चंचल नेत्रोंवाली ! लक्ष्मीजी से उत्पन्न तथा भगवान् जनार्दन का अंशस्वरूप यह महान् शक्तिशाली पुत्र मुझे स्वयं लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु ने ही दिया है। उस पुत्र को लेकर रानी परम आनन्दित हुईं और राजा ने अद्भुत उत्सव मनाया ॥ ४९-५१ ॥ राजा ने याचकों को दान दिया। इस अवसर पर गीत गाये गये तथा अनेक वाद्य बजाये गये। सम्यक् उत्सव करके राजा ने अपने पु त्रका ‘एकवीर’ – यह प्रसिद्ध नाम रखा। वे सुख पाकर बहुत प्रसन्न हुए तथा आनन्दित हुए । इन्द्र के समान पराक्रमशाली राजा हरिवर्मा भगवान् विष्णु के सदृश रूपवान् तथा गुणी पुत्र पाकर वंशऋण (पितृऋण) – से मुक्त हो गये ॥ ५२-५३ ॥ इस प्रकार समस्त देवताओं के अधिपति भगवान् विष्णु के द्वारा अर्पित किये गये उस सर्वगुणसम्पन्न पुत्र को प्राप्त करके इन्द्र के समान प्रतापी राजा हरिवर्मा अपनी भार्या के साथ नानाविध सुख भोगते हुए तथा विनोद करते हुए अपने महल में रहने लगे ॥ ५४ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘एकवीराख्यानवर्णन’ नामक बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २० ॥ Content is available only for registered users. 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