श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-27
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-सप्तविंशोऽध्यायः
सत्ताईसवाँ अध्याय
वानरमुख नारद से दमयन्ती का विवाह, नारद तथा पर्वत का परस्पर शापमोचन
नारदस्य मायादमयन्त्या सह विवाहवर्णनम्

नारदजी बोले — धात्री के मुख से अपनी कन्या का वह वचन सुनकर राजा संजय पास ही बैठी सुन्दर नेत्रोंवाली अपनी भार्या कैकेयी से कहने लगे — ॥ १ ॥

राजा बोले — हे प्रिये! धात्री ने जो बात कही है, वह तो तुमने सुन ही ली। बन्दर के समान मुखवाले नारद-मुनि का उसने वरण कर लिया है ॥ २ ॥ पुत्री ने यह कैसा मूर्खतापूर्ण कार्य सोच लिया। इस वानरमुख मुनि को मैं अपनी कन्या कैसे दे दूँ ? ॥ ३ ॥ कहाँ भिक्षाटन करने वाला यह कुरूप भिक्षुक और कहाँ मेरी पुत्री दमयन्ती ! ऐसा विपरीत सम्बन्ध कभी नहीं करना चाहिये ॥ ४ ॥ हे सुन्दर केशोंवाली ! तुम मुनिपर आसक्त अपनी उस भोली पुत्री को एकान्त में शास्त्रों तथा वृद्ध पुरुषों के मर्यादित वचन बतलाकर युक्तिपूर्वक इस हठ से मुक्त करो ॥ ५ ॥

पति की बात सुनकर माता ने उस कन्या से कहा — कहाँ तुम्हारा ऐसा रूप और कहाँ वह धनहीन वानरमुख मुनि ! ॥ ६ ॥ तुम लता समान कोमल देहवाली हो और यह मुनि भस्म लगाने के कारण कठोर देहवाला है; तुम बुद्धिमान् होकर भी उस भिक्षुक पर मोहित क्यों हो गयी हो ? ॥ ७ ॥ हे अनघे! वानर के समान मुखवाले इस मुनि के साथ तुम्हारा सम्बन्ध भला कैसे उचित होगा? हे पवित्र मुसकानवाली ! इस निन्दित पुरुष पर तुम्हारी कौन-सी प्रीति हो सकेगी ? ॥ ८ ॥ तुम्हारा वर तो कोई राजकुमार होना चाहिये, तुम व्यर्थ हठ मत करो। धात्री के मुख से ऐसी बात सुनकर तुम्हारे पिताजी को बहुत दुःख हुआ है ॥ ९ ॥ बबूल के वृक्ष से लिपटी हुई कोमल मालती लता को देखकर किस बुद्धिमान् व्यक्ति का मन दुःखित नहीं होगा ? इस पृथ्वीतल पर ऐसा कौन मूर्ख होगा जो खाने के लिये ऊँट को कोमल पान के पत्ते देगा ? ॥ १०-११ ॥ विवाह होते समय नारद के पास बैठकर तुम्हें उसका हाथ पकड़े हुए देखकर किसका हृदय नहीं जल उठेगा ? ॥ १२ ॥ इस कुत्सित मुखवाले के साथ बात करने में कोई रुचि भी तो नहीं उत्पन्न होगी; फिर इसके साथ तुम मृत्युपर्यन्त अपना समय कैसे व्यतीत करोगी ? ॥ १३ ॥

नारदजी बोले — माता की यह बात सुनकर मेरे प्रति दृढ़ निश्चयवाली उस कोमलांगी दमयन्ती ने अत्यन्त व्याकुलतापूर्वक अपनी माता से कहा — रसमार्ग से अनभिज्ञ तथा कलाज्ञान से रहित मूर्ख राजकुमार के सुन्दर मुख, रूप, धन तथा राज्य से मेरा क्या प्रयोजन ? ॥ १४-१५ ॥ हे माता ! वन में रहने वाली वे हरिणियाँ धन्य हैं जो नाद से मोहित होकर अपने प्राण भी दे देती हैं, किंतु इस भूलोक में रहने वाले उन मूर्ख मनुष्यों को धिक्कार है, जो मधुर स्वर से प्रेम नहीं करते हैं ! ॥ १६ ॥ हे माता ! नारदजी जिस सप्तस्वरमयी विद्या को जानते हैं, उसे भगवान् शंकर को छोड़कर तीसरा अन्य कोई भी व्यक्ति नहीं जानता है ॥ १७ ॥ मूर्ख के साथ रहना प्रतिक्षण मृत्यु के समान होता है । अतएव सुन्दर रूप से सम्पन्न तथा सम्पत्तिशाली होते हुए भी गुणरहित पुरुष को सर्वदा के लिये त्याग देना चाहिये ॥ १८ ॥ व्यर्थ गर्व करने वाले मूर्ख राजा की मित्रता को धिक्कार है; वचनों से सुख प्रदान करने वाली गुणवान् भिक्षुक की मित्रता श्रेष्ठ है ॥ १९ ॥ स्वर का ज्ञाता, ग्रामों की पूरी जानकारी रखने वाला, मूर्च्छना के भेदों को सम्यक् प्रकार से समझने वाला तथा आठों रसों को जानने वाला दुर्बल पुरुष भी इस संसार में दुर्लभ है ॥ २० ॥

जिस प्रकार गंगा तथा सरस्वती नदियाँ कैलास ले जाती हैं, उसी प्रकार स्वरज्ञान में अत्यन्त प्रवीण पुरुष शिवलोक पहुँचा देता है ॥ २१ ॥ जो व्यक्ति स्वर के प्रमाण को जानता है, वह मनुष्य होता हुआ भी देवता है, किंतु जो स्वरों के सप्तभेद का ज्ञान नहीं रखता, वह पशु के समान होता है, चाहे इन्द्र ही क्यों न हो ॥ २२ ॥ मूर्च्छना तथा तानमार्ग को सुनकर जो आह्लादित नहीं होता, उसे साक्षात् पशु समझना चाहिये, बल्कि [ स्वरप्रेमी] हरिणों को पशु नहीं समझना चाहिये ॥ २३ ॥ विषधर सर्प श्रेष्ठ है; क्योंकि वह कान न होने पर भी मनोहर नाद सुनकर प्रफुल्लित हो जाता है, किंतु उन मनुष्योंको धिक्कार है, जो कर्णयुक्त रहने पर भी नाद सुनकर आनन्दित नहीं होते ॥ २४ ॥ मधुर स्वर से गाये गये गीत को सुनकर बालक भी प्रसन्नचित्त हो जाता है, किंतु जो वृद्ध गान के रहस्य को नहीं जानते, उन्हें धिक्कार है ॥ २५ ॥ क्या मेरे पिताजी नारद के बहुत से गुणों को नहीं जानते ? तीनों लोकों में उनके समान साम-गान करने वाला दूसरा कोई भी नहीं है। अतः नारद से प्रेम हो जाने के कारण मैंने पहले से ही इनका वरण कर लिया है। गुणों के निधान ये नारद शापवश बाद में वानर के समान मुखवाले हो गये ॥ २६-२७ ॥ अश्व के समान मुखवाले किन्नर गान विद्या से सम्पन्न होनेके कारण किसको प्रिय नहीं होते, किसी के सुन्दर मुख से क्या प्रयोजन ? ॥ २८ ॥ हे माता! आप मेरे पिताजी से कह दें कि मैं मुनिश्रेष्ठनारद का वरण कर चुकी हूँ; अतएव हठ छोड़कर आप प्रसन्नतापूर्वक मुझे उन्हीं नारद को सौंप दें ॥ २९ ॥

नारदजी बोले — पुत्री की बात सुनकर तथा नारद- मुनि में उसका अनुराग जानकर परम सुन्दरी रानी ने राजा से कहा — हे राजेन्द्र ! अब आप किसी शुभ दिन में नारद- मुनि के साथ दमयन्ती का विवाह कर दीजिये; क्योंकि वह मन-ही-मन उन्हीं सर्वज्ञ मुनि का वरण कर चुकी है ॥ ३०-३१ ॥

नारदजी बोले — इस प्रकार रानी कैकेयी के प्रेरित करने पर राजा संजय ने विधि-विधान से समस्त वैवाहिक क्रिया सम्पन्न की ॥ ३२ ॥ हे परन्तप ! इस तरह विवाह हो जाने के पश्चात् वानर के समान मुख वाला मैं अत्यन्त दुःखी मन से वहीं रहने लगा ॥ ३३ ॥ जब राजकुमारी दमयन्ती सेवाके लिये मेरे पास आती थी तब वानरसदृश मुखवाला मैं दुःख से पीड़ित हो उठता था ॥ ३४ ॥ किंतु खिले हुए कमल के समान मुखवाली दमयन्ती मुझे देखकर मेरी वानर मुखाकृति के लिये कभी भी शोक नहीं करती थी ॥ ३५ ॥ इस प्रकार कुछ समय बीतने पर अनेक तीर्थों में भ्रमण करते हुए पर्वतमुनि मुझसे मिलने के लिये अकस्मात् मेरे पास आये ॥ ३६ ॥ मैंने प्रेमपूर्वक उनका पर्याप्त सम्मान किया तथा विधिवत् पूजा की । दिव्य आसन पर विराजमान मुनि पर्वत मुझे देखकर अत्यन्त दुःखित हो उठे ॥ ३७ ॥ वानरमुख होने के कारण विवाह करके अत्यन्त दयनीय, दुर्बल तथा चिन्तायुक्त दशा को प्राप्त मुझ अपने मामा से पर्वतमुनि ने यह वचन कहा — ॥ ३८ ॥

हे मुनिश्रेष्ठ नारद! क्रोध में आकर मैंने तुम्हें शाप दे दिया था, किंतु मैं आज उस शाप का निवारण करता हूँ, सुनो ॥ ३९ ॥ हे नारद! अब तुम मेरे पुण्य के प्रभाव से सुन्दर मुखवाले हो जाओ; क्योंकि इस समय राजकुमारी को देखकर मेरे मन में करुणा भाव उत्पन्न हो गया है ॥ ४० ॥

नारदजी बोले — उनकी बात सुनकर मैंने भी अपने मन को विनययुक्त करके उसी क्षण [ अपने द्वारा उन्हें प्रदत्त ] शाप का मार्जन कर दिया। [मैंने कह—] हे भागिनेय पर्वत ! मैं तुम्हें मुक्त कर दे रहा हूँ। अब देवलोक में तुम्हारा भी गमन हो; यह मैंने शाप का विमोचन कर दिया ॥ ४१-४२ ॥

नारदजी बोले — पर्वतमुनि के वचनानुसार उनके देखते- देखते मैं सुन्दर मुखवाला हो गया। इससे राजकुमारी बहुत प्रसन्न हो गयी और शीघ्र ही माता से बोली — हे माता ! तुम्हारे परम तेजस्वी जामाता नारद अब सुन्दर मुखवाले हो गये हैं। मुनि पर्वत के वचन से अब वे शाप से मुक्त हो चुके हैं ॥ ४३-४४ ॥

दमयन्ती की बात सुनकर रानी ने उसे राजा से कहा । तब प्रीतियुक्त होकर राजा संजय मुनि को देखनेके लिये वहाँ गये ॥ ४५ ॥ तब सन्तुष्ट हुए महात्मा राजा ने मुझे तथा भागिनेय पर्वत को बहुत सारा धन एवं उपहार सामग्री प्रदान की ॥ ४६ ॥ जैसा मैंने माया के बल की महिमा का अनुभव किया है और जो पुरातन वृत्तान्त है, वह सब मैंने आपको बता दिया ॥ ४७ ॥ हे महाभाग ! माया के गुणों से विरचित इस मिथ्या जगत् में कोई भी जीव न सुखी रहा है, न सुखी है और न तो सुखी रहेगा ॥ ४८ ॥ काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, ममता, अहंकार और मद — इन है ? ॥ ४९ ॥ महाशक्तिशाली विषयों को कौन जीत सका हे मुने! सत्त्व, रज तथा तम- ये तीनों गुण ही प्राणियों की देहोत्पत्ति में सर्वथा कारण होते हैं ॥ ५० ॥

हे व्यासजी ! किसी समय भगवान् विष्णु के साथ वन में जाता हुआ मैं परस्पर हास-परिहास में सहसा स्त्रीभाव को प्राप्त हो गया ॥ ५१ ॥ माया के प्रभाव से विमोहित होकर मैं राजा की पत्नी बन गया और उस राजा के भवन में रहकर मैंने अनेक पुत्र उत्पन्न किये ॥ ५२ ॥

व्यासजी बोले — हे साधो ! हे मुने! आपकी बात सुनकर मुझे यह महान् सन्देह हो रहा है कि आप महान् ज्ञानी होते हुए भी नारी रूप में कैसे परिणत हो गये ? आप पुनः पुरुष किस प्रकार हुए? यह सब पूर्णरूप से बताइये । आपने पुत्र कैसे उत्पन्न किये तथा किस राजा के घर में आप भलीभाँति रहे ? ॥ ५३-५४ ॥ आप उन महामाया के अत्यन्त अद्भुत चरित्र का वर्णन कीजिये, जिन्होंने स्थावर-जंगमात्मक समग्र जगत् ‌को विमोहित कर रखा है ॥ ५५ ॥ सभी ग्रन्थों के अर्थतत्त्वों से युक्त तथा समस्त संशयों का नाश करने वाले आपके कथामृत का श्रवण करता हुआ मैं तृप्त नहीं हो पा रहा हूँ ॥ ५६ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘नारद का माया दमयन्ती के साथ विवाहवर्णन’ नामक सत्ताईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २७ ॥

Content is available only for registered users. Please login or register

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.