May 9, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-17 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-सप्तदशोऽध्यायः सत्रहवाँ अध्याय विश्वामित्र का शुनःशेप को वरुणमन्त्र देना और उसके जप से वरुण का प्रकट होकर उसे बन्धनमुक्त तथा राजा को रोगमुक्त करना, राजा हरिश्चन्द्र की प्रशंसा से विश्वामित्र का वसिष्ठ पर क्रोधित होना वसिष्ठविश्वामित्रपणवर्णनम् व्यासजी बोले — राजन् ! अत्यन्त दुःखित तथा करुण-क्रन्दन करते हुए बालक शुनःशेप को देखकर महर्षि विश्वामित्र को बड़ी दया आयी और वे उसके पास जाकर यह बोले —‘ हे पुत्र ! मैं तुम्हें वरुणदेव का मन्त्र बतला रहा हूँ। तुम मन में उनका स्मरण करते हुए इस मन्त्र का जप करो । मेरी आज्ञा से इसका जप करने से तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा ‘ ॥ १-२ ॥ दुःख से अत्यन्त व्यग्र शुनःशेप मुनि विश्वामित्र की बात सुनकर उनके द्वारा बताये गये स्पष्ट अक्षरों वाले उस मन्त्र का मन-ही-मन जप करने लगा ॥ ३ ॥ हे राजन् ! शुनःशेप के जप करते ही कृपानिधान वरुणदेव उस बालक पर प्रसन्न होकर शीघ्र ही प्रकट हो गये ॥ ४ ॥ इस प्रकार वहाँ प्रकट हुए वरुणदेव को देखकर सभी लोग अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गये । उनके दर्शन से आनन्दित होकर वे सब उनकी स्तुति करने लगे ॥ ५ ॥ जलोदर रोग से पीड़ित राजा हरिश्चन्द्र अतीव विस्मित होकर उनके चरणों में प्रणाम करने लगे और दोनों हाथ जोड़कर वे अपने सम्मुख स्थित वरुणदेव की स्तुति करने लगे ॥ ६ ॥ हरिश्चन्द्र बोले — हे देवदेव ! हे कृपासागर ! आप परमेश्वर ने यहाँ आकर मुझ पापात्मा, अत्यन्त मन्दबुद्धि, अपराधी तथा भाग्यहीन को आज पवित्र कर दिया है ॥ ७ ॥ मैं पुत्र के अभाव में दुःखित था और आपकी कृपा से पुत्र होने पर आपकी अवहेलना की। अतः आप प्रभु मेरे द्वारा किये गये अपराध को क्षमा कर दें; क्योंकि भ्रष्ट बुद्धि वाले का दोष ही क्या ? ॥ ८ ॥ हे देवदेव ! स्वार्थपरायण व्यक्ति को अपने दोष का ज्ञान नहीं रहता। इसीलिये पुत्र पाने का स्वार्थी मैं अपना दोष नहीं देख सका और हे विभो ! नरक में पड़ने के भय से आपको धोखा देता रहा । पुत्रहीन व्यक्ति की गति नहीं होती और उसे स्वर्ग नहीं मिलता – इस शास्त्र वचन से मैं डर गया था, इसीलिये मैंने आपकी अवहेलना की ॥ ९-१० ॥ हे विभो ! आप ज्ञानसम्पन्न हैं, अतः मुझ अज्ञानी के अपराध पर ध्यान न दें। इस समय मैं बहुत दुःखित तथा भयंकर रोग से ग्रस्त हूँ और अपने पुत्र से वंचित हो गया हूँ ॥ ११ ॥ हे महाराज ! हे प्रभो ! मुझे ज्ञात नहीं कि मेरा पुत्र कहाँ चला गया है। हे कृपानिधे ! ऐसा प्रतीत होता है कि मारे जाने के डर से वह मुझे धोखा देकर वन में चला गया है। तब मैंने धन देकर इस ब्राह्मण- बालक को खरीदा और फिर आपको सन्तुष्ट करने के लिये इस क्रीतपुत्र से यह यज्ञ आरम्भ कर दिया। अब आपका दर्शन प्राप्त हो जाने से मेरा महान् दुःख दूर हो गया और आपके प्रसन्न हो जाने पर [ भयंकर ] जलोदर रोग से होने वाला सारा कष्ट भी समाप्त हो जायगा ॥ १२–१४ ॥ व्यासजी बोले — रोगग्रस्त राजा हरिश्चन्द्र की यह बात सुनकर देवदेवेश्वर दयालु वरुण नृपश्रेष्ठ हरिश्चन्द्र से कहने लगे — ॥ १५ ॥ वरुण बोले — हे राजन् ! अत्यन्त दुःखी होकर मेरी स्तुति करते हुए इस शुनःशेप को आप मुक्त कर दें। अब आपका यह यज्ञ भलीभाँति पूरा हो जायगा और आप रोग से भी मुक्त हो जायँगे ॥ १६ ॥ यह कहकर वरुणदेव ने वहाँ यज्ञमण्डप में स्थित राजा हरिश्चन्द्र को सभी सभासदों के समक्ष ही रोगरहित कर दिया ॥ १७ ॥ महात्मा वरुणदेव के द्वारा उस ब्राह्मणपुत्र के बन्धनमुक्त करा देने पर वहाँ यज्ञमण्डप में जय-जयकार की ध्वनि होने लगी ॥ १८ ॥ अत्यन्त भीषण रोग से तत्काल मुक्त हो जाने पर राजा हरिश्चन्द्र बहुत प्रसन्न हुए और शुनःशेप भी यज्ञस्तम्भ से मुक्त होकर अत्यन्त स्वस्थचित्त हो गया ॥ १९ ॥ तत्पश्चात् राजा हरिश्चन्द्र ने अत्यन्त विनम्रतापूर्वक इस यज्ञ को सम्पन्न किया। इसके बाद शुनःशेप ने हाथ जोड़कर सभासदों से कहा — हे सभासद्गण ! आपलोग धर्मशास्त्र के पूर्ण ज्ञाता तथा यथार्थवादी हैं; अतः आपलोग वेदशास्त्रानुसार धर्म का निर्णय कीजिये ॥ २०-२१ ॥ हे सर्वज्ञ [ ऋषिगण ] ! अब मैं किसका पुत्र हुआ और आगे मेरा पिता कौन होगा ? आप लोगों के वचनानुसार ही मैं उसी की शरण में जाऊँगा । शुनःशेप के द्वारा यह वचन कहे जाने पर सभी सभासद् आपस में परामर्श करने लगे ॥ २२१/२ ॥ सभासद् बोले — यह तो अजीगर्त का पुत्र है, तब यह अन्य किसका पुत्र हो सकता है ? यह उसी के अंग से उत्पन्न हुआ है तथा उसी ने स्नेहपूर्वक इसका लालन-पालन किया है तो फिर यह अन्य किस व्यक्ति का पुत्र हो सकता है, हम लोगों का यही निर्णय है ॥ २३-२४ ॥ यह निर्णय सुनकर महर्षि वामदेव ने उन सभासदों से कहा कि उस पिता ने धन के लोभ से अपने पुत्र को बेच दिया है, इसलिये अब यह बालक धन देकर क्रय करने वाले राजा हरिश्चन्द्र का पुत्र हुआ; इसमें संशय नहीं है। अथवा यह वरुणदेव का पुत्र हुआ; क्योंकि इन्होंने ही इसे बन्धन से मुक्त कराया है ॥ २५-२६ ॥ अन्न प्रदान करने वाला, भय से बचाने वाला, विद्या का दान करने वाला, धन प्रदान करने वाला और जन्म देने वाला — ये पाँच पिता कहे गये हैं ॥ २७ ॥ उस समय कुछ सभासदों ने उसे पिता अजीगर्त का पुत्र, कुछ सभासदों ने राजा हरिश्चन्द्र का पुत्र और अन्य ने उसे वरुणदेवका पुत्र बतलाया । इस प्रकार परस्पर बातचीत में वे किसी निर्णय पर नहीं पहुँचे ॥ २८ ॥ इस तरह की सन्देह की स्थिति उत्पन्न हो जाने पर सर्वज्ञ तथा सर्वपूजित महर्षि वसिष्ठ ने वहाँ परस्पर विवाद करते हुए सभासदों से यह बात कही — हे महाभाग! अब आपलोग मेरा वेदानुकूल निर्णय सुनिये — जिस समय इसके पिता अजीगर्त ने स्नेह का त्याग करके इस बालक को बेच दिया था, उसी समय धन लेते ही अपने पुत्र से उसका सम्बन्ध समाप्त हो गया और यह राजा हरिश्चन्द्र का क्रीतपुत्र हो गया । बाद में जब राजा ने यज्ञ के स्तम्भ में इस बालक को बाँध दिया, तब यह उनका भी पुत्र नहीं रहा । जब इसने वरुणदेव की स्तुति की, तब उन्होंने प्रसन्न होकर इसे बन्धनमुक्त करा दिया, अतः हे महाभाग सभासद्गण ! यह वरुणदेव का भी पुत्र नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि जब जो व्यक्ति महामन्त्रों के द्वारा जिस देवता की स्तुति करता है, तभी वह प्रसन्न होकर उस व्यक्ति की कामना के अनुसार उसे धन, प्राण, पशु, राज्य तथा मोक्ष प्रदान करता है। वास्तव में यह बालक मुनि विश्वामित्र का पुत्र हुआ, जिन्होंने विषम प्राण-संकट के समय परम शक्तिशाली वरुणमन्त्र देकर इसकी रक्षा की है ॥ २९–३४१/२ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन् ! महर्षि वसिष्ठ की बात सुनकर सभासदों ने ‘बहुत ठीक’ ऐसा कहकर उनका समर्थन कर दिया। तब मुनि विश्वामित्र प्रेम से पूरित हो उठे । ‘ हे पुत्र ! अब तुम मेरे आश्रम में चलो’ – ऐसा कहकर उन्होंने उसका दाहिना हाथ पकड़ लिया। तब शुनःशेप भी तुरंत उनके साथ शीघ्रतापूर्वक चल दिया और वरुणदेव भी प्रसन्नचित्त होकर अपने लोक को चले गये। सभी ऋत्विक् और सभासद् भी अपने-अपने भवनों के लिये प्रस्थित हो गये ॥ ३५–३७१/२ ॥ राजा हरिश्चन्द्र भी जलोदर रोग से मुक्त हो जाने से परम आनन्दित हो गये। वे अत्यन्त प्रसन्न मनसे प्रजापालन में तत्पर हो गये ॥ ३८१/२ ॥ इधर, वरुणदेवसम्बन्धी सारा वृत्तान्त सुनकर राजकुमार रोहित को बड़ी प्रसन्नता हुई और वे दुर्गम वनों तथा पर्वतों को पार करते हुए अपने राजमहल के पास आ पहुँचे ॥ ३९१/२ ॥ तब दूतों ने राजा के पास जाकर उनसे पुत्र के आ जाने की बात बतायी। यह सुनते ही कोसलराज हरिश्चन्द्र बहुत प्रसन्न हुए और वे शीघ्र उसके समीप पहुँच गये ॥ ४०१/२ ॥ पिता को आया हुआ देखकर रोहित का प्रेम उमड़ पड़ा और वे बड़े सम्मानपूर्वक भूमि पर दण्ड की भाँति गिर पड़े। शोक के कारण रोहित का मुखमण्डल अश्रु से भीग गया ॥ ४११/२ ॥ राजा हरिश्चन्द्र ने भी उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया और आनन्दपूर्वक पुत्र का मस्तक सूँघकर उससे कुशल-क्षेम पूछा। राजकुमार रोहित को गोद में बिठाकर हर्ष से परिपूर्ण पृथ्वीपति हरिश्चन्द्र ने प्रेमातिरेक के कारण नेत्रों से गिरते हुए उष्ण अश्रुओं से उनका अभिषेक कर दिया। वे अपने परम प्रिय पुत्र रोहित के साथ राज्य का शासन करने लगे। बाद में उन्होंने राजकुमार से यज्ञ की सारी बातें विस्तारपूर्वक बतलायीं ॥ ४२–४४१/२ ॥ कुछ दिनों के अनन्तर नृपश्रेष्ठ हरिश्चन्द्र ने सभी यज्ञों में उत्तम राजसूययज्ञ प्रारम्भ किया । राजा ने गुरु वसिष्ठ की पूजा करके उन्हें उस यज्ञ का ‘होता’ बनाया ॥ ४५१/२ ॥ उस सर्वश्रेष्ठ यज्ञ के समाप्त होने पर वसिष्ठजी का बहुत अधिक सम्मान किया गया । तदनन्तर मुनि वसिष्ठ श्रद्धापूर्वक इन्द्र की रमणीक नगरी अमरावतीपुरी में गये ॥ ४६१/२ ॥ वहीं पर विश्वामित्र भी वसिष्ठजी को मिल गये । मिलने के बाद वे दोनों महर्षि देवसभा में एक साथ बैठे। तब ऐसी विशेष पूजा पाये हुए महर्षि वसिष्ठ को देखकर विश्वामित्र के मन में महान् आश्चर्य हुआ और वे हे मुनिश्रेष्ठ ! ऐसा सम्बोधन करके शचीपति इन्द्र की सभा में ही उनसे पूछने लगे ॥ ४७-४८१/२ ॥ विश्वामित्र बोले — हे मुनिश्रेष्ठ ! आपने इतना बड़ा सम्मान कहाँ पाया ? हे महाभाग ! आपकी ऐसी पूजा किसने की; आप मुझे यह बात सच-सच बतलाइये ॥ ४९१/२ ॥ वसिष्ठजी बोले — परम प्रतापी राजा हरिश्चन्द्र मेरे यजमान हैं। उन्होंने प्रचुर दक्षिणावाला राजसूययज्ञ किया है। उनके जैसा सत्यवादी, दृढव्रती, दानी, धर्मपरायण तथा प्रजा को प्रसन्न रखने वाला दूसरा राजा नहीं है । हे विश्वामित्र ! उन्हीं के यज्ञ में मुझे यह पूजा प्राप्त हुई है। (हे द्विज ! आप मुझसे बार-बार क्या पूछ रहे हैं! मैं आपसे सत्य तथा यथार्थ कह रहा हूँ।) हरिश्चन्द्र के समान सत्यवादी, दानी, पराक्रमी तथा परम धार्मिक राजा न तो हुआ है और न होगा ॥ ५०–५३ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन् ! उनकी यह बात सुनकर विश्वामित्र बहुत कुपित हो उठे और क्रोध से आँखें लाल करके उनसे कहने लगे — ॥ ५४ ॥ विश्वामित्र बोले — आप ऐसे मिथ्याभाषी तथा कपटी राजा की प्रशंसा कर रहे हैं, जिसने पुत्रप्राप्ति का वर पाकर प्रतिज्ञा करके भी वरुणदेव को बार-बार धोखा दिया ॥ ५५ ॥ हे महामते ! इस जन्म में मेरे द्वारा किये गये तप तथा वेदाध्ययन के फलस्वरूप संचित पुण्य तथा अपने महान् तप की शर्त लगा लीजिये । यदि मैं आपके द्वारा अति प्रशंसित किये गये राजा हरिश्चन्द्र को शीघ्र ही मिथ्याभाषी, दान न देने वाला तथा महादुष्ट न प्रमाणित कर दूँ तो सम्पूर्ण जन्म का मेरा संचित पुण्य नष्ट हो जाय; अन्यथा आपके द्वारा उपार्जित सारा पुण्य नष्ट हो जाय – इसी बात की हम दोनों शर्त लगा लें ॥ ५६–५८ ॥ तब यह शर्त लगाकर अत्यधिक कुपित हुए वे दोनों मुनि परस्पर विवाद करते हुए स्वर्गलोक से अपने-अपने आश्रम को लौट गये ॥ ५९ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘वसिष्ठ-विश्वामित्रपणवर्णन’ नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥ Content is available only for registered users. 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