श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-30
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-त्रिंशोऽध्यायः
तीसवाँ अध्याय
शक्तिपीठों की उत्पत्ति की कथा तथा उनके नाम एवं उनका माहात्म्य
देवीपीठवर्णनम्

व्यासजी बोले — हे राजन् ! तत्पश्चात् वे वन-प्रदेश में हिमालय की तलहटी में स्थित रहकर समाहितचित्त हो मायाबीज (भुवनेश्वरीमन्त्र ) – के जप में तत्पर रहते हुए घोर तप करने लगे ॥ १ ॥ हे राजन्! एक लाख वर्ष पर्यन्त उन पराशक्ति का ध्यान करते रहने के उपरान्त देवी उनके ऊपर प्रसन्न हो गयीं और उन्होंने प्रत्यक्ष दर्शन दिया । उस समय उन्होंने अपने चारों हाथों में पाश, अंकुश, वर और अभय मुद्रा धारण कर रखी थीं, वे तीन नेत्रों से युक्त थीं, वे करुणारस से परिपूर्ण थीं और उनका विग्रह सत्, चित् तथा आनन्द से सम्पन्न था ॥ २-३ ॥ उन सर्वजननी को देखकर विशुद्ध चित्तवाले वे मुनिगण उनकी स्तुति करने लगे

नमस्ते विश्वरूपायै वैश्वानरसुमूर्तये ॥ ४ ॥
नमस्तेजसरूपायै सूत्रात्मवपुषे नमः ।
यस्मिन्सर्वे लिङ्गदेहा ओतप्रोता व्यवस्थिताः ॥ ५ ॥
नमः प्राज्ञस्वरूपायै नमोऽव्याकृतमूर्तये ।
नमः प्रत्यक्स्वरूपायै नमस्ते ब्रह्ममूर्तये ॥ ६ ॥
नमस्ते सर्वरूपायै सर्वलक्ष्यात्ममूर्तये ।


विश्वरूप तथा वैश्वानररूप वाली आपको नमस्कार है। जिसमें समग्र लिंगदेह ओत-प्रोत होकर व्यवस्थित है, उस सूत्ररूप विग्रहवाली तथा तेजसम्पन्न रूप वाली आपको बार-बार नमस्कार है। प्राज्ञस्वरूप वाली आपको नमस्कार है, अव्यक्तस्वरूपवाली आपको नमस्कार है, प्रत्यक्स्वरूप आपको नमस्कार है और परब्रह्म का स्वरूप धारण करने वाली आपको नमस्कार है । समस्त रूपों वाली आपको नमस्कार है तथा सभी प्राणियों में आत्ममूर्ति के रूप में लक्षित होने वाली आपको नमस्कार है ॥ ४–६१/२

इस प्रकार भक्तियुक्त गद्गद वाणी से उन जगद्धात्री की स्तुति करके निर्मल मनवाले दक्ष आदि मुनियों ने भगवती के चरण-कमल में प्रणाम किया। तब कोयल के समान मधुर वचन बोलने वाली उन देवी ने प्रसन्न होकर कहा हे महान् भाग्यशाली मुनियो ! आप लोग वर माँगिये, मैं सदा वर प्रदान करने वाली मानी जाती हूँ ॥ ७-८१/२

हे नृपश्रेष्ठ! उनकी वाणी सुनकर मुनियों ने यह वरदान माँगा कि शंकर तथा विष्णु का शरीर स्वस्थ हो जाय और उन्हें पुनः वही पूर्व शक्तियाँ प्राप्त हो जायँ ॥ ९१/२ ॥

इसके बाद दक्ष ने कहा — हे देवि ! हे अम्ब ! मेरे कुल में आपका जन्म हो, जिससे मैं कृतकृत्य हो जाऊँ। हे परमेश्वरि! आप अपने मुख से अपने जप, ध्यान, पूजा तथा विविध स्थानों के विषय में बताने की कृपा कीजिये ॥ १०-१११/२

देवी बोलीं — मेरी शक्तियों का अपमान करने से ही उन दोनों (विष्णु तथा शिव ) की यह दशा हुई है। उन्हें मेरे प्रति ऐसा अपराध कभी नहीं करना चाहिये । अब मेरी लेशमात्र कृपा से ही उन दोनों के शरीर में स्वस्थता आ जायगी। साथ ही गौरी और लक्ष्मी नामक वे दोनों शक्तियाँ आपके घर में तथा क्षीरसागर में जन्म लेंगी और मेरे द्वारा प्रेरित किये जाने पर वे शक्तियाँ उन दोनों को प्राप्त हो जायँगी ॥ १२–१४ ॥ मुझे सदा प्रसन्न करने वाला ‘मायाबीज’ ही मेरा प्रधान मन्त्र है। मेरे विराट् रूप का अथवा आपके समक्ष उपस्थित इस रूप का अथवा सच्चिदानन्द रूप का ध्यान करना चाहिये । सम्पूर्ण जगत् ही मेरा निवास-स्थान है। आप लोगों को सर्वदा मेरा पूजन तथा ध्यान करना चाहिये ॥ १५-१६ ॥

व्यासजी बोले — ऐसा कहकर मणिद्वीप में निवास करने वाली भगवती जगदम्बा अन्तर्धान हो गयीं। तब दक्ष आदि सभी मुनिगण ब्रह्माजी के पास लौट आये और उन्होंने ब्रह्माजी से आदरपूर्वक सारा वृत्तान्त कह दिया ॥ १७१/२

हे राजन्! तब पराम्बा की कृपा से वे दोनों विष्णु तथा शिव स्वस्थ हो गये, उनमें अपने-अपने कार्य- सम्पादन की क्षमता आ गयी और वे अभिमानरहित भी हो गये ॥ १८१/२

हे महाराज ! कुछ समय व्यतीत होने पर दक्ष के भवन में शक्तिसम्पन्न एक महान् तेज प्रकट हुआ। उस समय तीनों लोकों में उत्सव मनाया गया। सभी देवतागण प्रसन्न होकर पुष्पों की वर्षा करने लगे और वे स्वर्ग में हाथों से आघात करके दुन्दुभियाँ बजाने लगे । हे नृप ! निर्मल मनवाले साधुपुरुषों के मन प्रसन्न हो गये, नदियाँ मार्गों में जलधारा बहाने लगीं और भगवान् सूर्य मनोहर प्रभा से युक्त हो गये । इस प्रकार मंगलमयी भगवती के प्रकट होने पर सभी स्थानों पर मंगल ही मंगल हो गया ॥ १९-२२ ॥ दक्ष ने सत्यस्वरूप होने तथा ब्रह्मस्वरूपिणी होने के कारण उस देवी का नाम ‘सती’ रखा और उन्हें पुनः शिव को समर्पित कर दिया; क्योंकि वे पूर्व में भी उन्हीं शिव की शक्ति थीं । हे राजन् ! वे ही सती पुनः दक्ष के यज्ञ में दैवयोग से अग्नि में जलकर भस्म हो गयीं ॥ २३१/२

जनमेजय बोले — हे मुने! आपने यह तो बड़ा ही अनर्थकारी प्रसंग सुनाया। इस प्रकार की महान् विभूति वे सती, जिनके नाम के स्मरणमात्र से मनुष्यों को संसाररूप अग्नि का भय नहीं रहता, अग्नि में जलकर भस्म क्यों हो गयीं ? दक्ष के किस प्रतिकूल कर्म के कारण वे सती भस्म हो गयीं ? ॥ २४-२५१/२

व्यासजी बोले — हे राजन् ! सती के भस्म होने का कारणसम्बन्धी प्राचीन वृत्तान्त सुनिये। किसी समय ऋषि दुर्वासा [जम्बूनद के तट पर स्थित ] भगवती जाम्बूनदेश्वरी के समीप गये। उन्होंने वहाँ देवी का दर्शन किया और वहीं पर वे मायाबीज मन्त्र का जप करने लगे ॥ २६-२७ ॥ उससे प्रसन्न होकर देवेश्वरी ने दिव्य पुष्पों के पराग से परिपूर्ण होने के कारण उसपर मँडराते हुए भ्रमरों से सुशोभित अपने गले में पड़ी हुई माला मुनि को दे दी और उन्होंने सिर झुकाकर प्रसादरूप में प्राप्त उस माला को स्वीकार कर लिया ॥ २८१/२

तदनन्तर वहाँ से तत्काल निकलकर वे तपस्वी मुनि दुर्वासा जगदम्बा के दर्शनार्थ आकाशमार्ग से वहाँ आ गये, जहाँ साक्षात् सती के पिता दक्ष विराजमान थे। मुनि ने सती के चरणों में नमन किया ॥ २९-३० ॥

दक्ष ने उन मुनि से पूछा — हे नाथ! यह अलौकिक माला किसकी है? पृथ्वी पर मनुष्यों के लिये परम दुर्लभ यह माला आपने कैसे प्राप्त कर ली ? ॥ ३१ ॥

उनका यह वचन सुनकर प्रेम से विह्वलहृदय तथा अश्रुपूरित नेत्रोंवाले मुनि दुर्वासा ने कहा — यह भगवती का अनुपम प्रसाद है ॥ ३२ ॥

तब सती के पिता दक्ष ने उन मुनि से उस माला के लिये याचना की। ‘तीनों लोकों में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो देवीभक्त को न दी जा सके’  ऐसा विचार करके मुनि ने वह माला दक्ष को दे दी । दक्ष ने सिर झुकाकर उस माला को ग्रहण कर लिया और उसे अपने घर में, जहाँ पर पति-पत्नी की अत्यन्त सुन्दर शय्या थी, वहीं पर रख दिया। उस माला की सुगन्धित्त से मत्त होकर राजा दक्ष रात में पशुकर्म (स्त्री-समागम) – में प्रवृत्त हुए । हे राजन् ! उसी पाप-कर्म के प्रभाव से वे कल्याणकारी शंकर तथा देवी सती के प्रति द्वेषबुद्धिवाले हो गये ॥ ३३–३६ ॥ हे राजन्! उसी अपराधके परिणामस्वरूप सती ने सतीधर्म प्रदर्शित करने के लिये उन दक्ष से उत्पन्न अपने शरीर को योगाग्नि से भस्म कर दिया । फिर वही ज्योति हिमालय के घर प्रादुर्भूत हुई ॥ ३७ ॥

जनमेजय बोले — [ हे मुने!] जिन शिव के लिये सती प्राणों से भी अधिक प्रिय थीं, उन भगवान् शिव ने सती का शरीर भस्म हो जाने के उपरान्त उनके वियोग से व्याकुल होकर क्या किया ? ॥ ३८१/२

व्यासजी बोले — हे राजन् ! उसके बाद जो कुछ हुआ, उसे कह सकने में मैं असमर्थ हूँ । शिव की कोपाग्नि से तीनों लोकों में प्रलय की स्थिति उत्पन्न हो गयी। उस समय वीरभद्र प्रकट हुए और जब वे वीरभद्र, भद्रकाली आदि गणों को साथ लेकर तीनों लोकों को नष्ट करने के लिये तत्पर हुए, तब ब्रह्मा आदि देवता भगवान् शंकर की शरण में गये ॥ ३९–४१ ॥ सर्वस्व-नाश हो जाने पर भी करुणानिधि परमेश्वर शिव ने उन देवताओं को अभय प्रदान कर दिया और बकरे का सिर जोड़कर उन दक्षप्रजापति को जीवित कर दिया । तदनन्तर वे महात्मा शिव उदास होकर यज्ञस्थल पर गये और अत्यन्त दुःखित होकर विलाप करने लगे ॥ ४२-४३ ॥ उन्होंने वहाँ चिन्मय शरीरवाली सती को अग्नि में दग्ध होते हुए देखा। तब ‘हा सती’ – ऐसा बार-बार बोलते हुए शिव ने उस शरीर को अपने कन्धे पर रख लिया और भ्रमितचित्त होकर वे देश-देश में भ्रमण करने लगे ॥ ४४१/२

इससे ब्रह्मा आदि देवता अत्यन्त चिन्तित हो उठे । विष्णु ने शीघ्रतापूर्वक धनुष उठाकर बाणों से सती के अंगों को काट डाला। वे अंग जिन-जिन स्थानों पर गिरे, उन-उन स्थानों पर भगवान् शंकर अनेक विग्रह धारण करके प्रकट हो गये ॥ ४५-४६१/२  ॥

तत्पश्चात् शिव ने देवताओं से कहा कि जो लोग इन स्थानों पर महान् श्रद्धा के साथ भगवती शिवा की आराधना करेंगे, उनके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं रहेगा; क्योंकि उन स्थानों पर साक्षात् भगवती पराम्बा अपने अंगों में सदा निहित हैं । जो मनुष्य इन स्थानों पर पुरश्चरण करेंगे; उनके मन्त्र, विशेषरूप से मायाबीज मन्त्र अवश्य सिद्ध हो जायँगे ॥ ४७–४९ ॥ हे नृपश्रेष्ठ ! ऐसा कहकर सती के विरह से अधीर भगवान् शिव उन स्थानों में जप, ध्यान और समाधि में संलग्न होकर समय व्यतीत करने लगे ॥ ५० ॥

जनमेजय बोले — हे अनघ ! वे कौनसे स्थान हैं, जो सिद्धपीठ हुए; वे संख्या में कितने हैं, उनके क्या नाम हैं ? मुझे बताइये । हे कृपाकर ! हे महामुने ! उन स्थानों पर विराजमान देवियों के नाम भी शीघ्र बतला दीजिये, जिससे मैं कृतार्थ हो जाऊँ ॥ ५१-५२ ॥

व्यासजी बोले — हे राजन् ! सुनिये, अब मैं देवीपीठों का वर्णन कर रहा हूँ, जिनके श्रवणमात्र से मनुष्य पापरहित हो जाता है । सिद्धि की अभिलाषा रखने वाले तथा ऐश्वर्य की कामना करने वाले पुरुषों के द्वारा जिन-जिन स्थानों पर इन देवी की उपासना तथा इनका ध्यान किया जाना चाहिये, उन स्थानों को मैं तत्त्वपूर्वक बता रहा हूँ ॥ ५३-५४ ॥

वाराणसी में गौरी के मुख में निवास करने वाली देवी विशालाक्षी प्रतिष्ठित हैं और नैमिषारण्य*क्षेत्र में वे लिंगधारिणी नाम से कही गयी हैं ॥ ५५ ॥ उन्हें प्रयाग में ‘ललिता’ तथा गन्धमादन-पर्वत पर ‘कामुकी’ नाम से कहा गया है। वे दक्षिण मानसरोव रमें ‘कुमुदा’ तथा उत्तर मानसरोवर में सभी कामनाएँ पूर्ण करने वाली भगवती ‘विश्वकामा’ कही गयी हैं । उन्हें गोमन्त पर देवी ‘गोमती, मन्दराचल पर ‘कामचारिणी’, चैत्ररथ में ‘मदोत्कटा’, हस्तिनापुर में ‘जयन्ती’, कान्यकुब्ज में ‘गौरी’ तथा मलयाचल पर ‘रम्भा’ कहा गया है ॥ ५६–५८ ॥

भगवती एकाम्रपीठ पर ‘कीर्तिमती’ नाम वाली कही गयी हैं। लोग उन्हें विश्वपीठ पर ‘विश्वेश्वरी’ और पुष्कर में ‘पुरुहूता’ नाम वाली कहते हैं ॥ ५९ ॥ वे देवी केदारपीठ में ‘सन्मार्गदायिनी’, हिमवत्पृष्ठ पर ‘मन्दा’, गोकर्ण में ‘भद्रकर्णिका’, स्थानेश्वर में ‘भवानी’, बिल्वक में ‘बिल्वपत्रिका’, श्रीशैल में ‘माधवी’ तथा भद्रेश्वर में ‘भद्रा’ कही गयी हैं ॥ ६०-६१ ॥ उन्हें वराहपर्वत पर ‘जया’, कमलालय में ‘कमला’, रुद्रकोटि में ‘रुद्राणी’, कालंजर में ‘काली’, शालग्राम में ‘महादेवी’, शिवलिंग में ‘जलप्रिया’, महालिङ्ग में ‘कपिला’ और माकोट में ‘मुकुटेश्वरी’ कहा गया है ॥ ६२-६३ ॥ वे भगवती मायापुरी में ‘कुमारी’, सन्तानपीठ में ‘ललिताम्बिका’, गया में ‘मंगला’ और पुरुषोत्तमक्षेत्र में ‘विमला’ कही गयी हैं । वे सहस्राक्ष में ‘उत्पलाक्षी’, हिरण्याक्ष में ‘महोत्पला’, विपाशा में ‘अमोघाक्षी’, पुण्ड्रवर्धन में ‘पाडला’, सुपार्श्व में ‘नारायणी’, त्रिकूट में ‘रुद्रसुन्दरी’, विपुल क्षेत्र में ‘विपुला’, मलयाचल पर देवी ‘कल्याणी’, सह्याद्रिपर्वत पर ‘एकवीरा’, हरिश्चन्द्र में ‘चन्द्रिका’, रामतीर्थ में ‘रमणा’, यमुना में ‘मृगावती’, कोटतीर्थ में ‘कोटवी’, माधववन में ‘सुगन्धा’, गोदावरी में ‘त्रिसन्ध्या’, गंगाद्वार में ‘ रतिप्रिया’, शिवकुण्ड में ‘शुभानन्दा’, देविकातट पर ‘नन्दिनी’, द्वारका में ‘रुक्मिणी’, वृन्दावन में ‘राधा’, मथुरा में ‘देवकी’, पाताल में ‘परमेश्वरी’, चित्रकूट में ‘सीता’, विन्ध्याचल पर ‘विन्ध्यवासिनी’, करवीरक्षेत्र में ‘महालक्ष्मी’, विनायकक्षेत्र में देवी ‘उमा’, वैद्यनाथधाम में ‘आरोग्या’, महाकाल में ‘महेश्वरी’, उष्णतीर्थों में ‘अभया’, विन्ध्यपर्वत पर ‘नितम्बा’, माण्डव्यक्षेत्र में ‘माण्डवी’ तथा माहेश्वरीपु रमें ‘स्वाहा’ नाम से प्रतिष्ठित हैं ॥ ६४–७२ ॥

वे देवी छगलण्ड में ‘प्रचण्डा’, अमरकण्टक में ‘चण्डिका’, सोमेश्वर में ‘वरारोहा’, प्रभासक्षेत्र में ‘पुष्करावती’, सरस्वतीतीर्थ में ‘देवमाता’, समुद्रतट पर ‘पारावारा’, महालय में ‘महाभागा’ और पयोष्णी में ‘पिंगलेश्वरी’ नाम से प्रसिद्ध हुईं ॥ ७३-७४ ॥ वे कृतशौचक्षेत्र में ‘सिंहिका’, कार्तिकक्षेत्र ‘अतिशांकरी’, उत्पलावर्तक में ‘लोला’, सोनभद्रनद के संगम पर ‘सुभद्रा’, सिद्धवन में माता ‘लक्ष्मी’, भरताश्रमतीर्थ में ‘अनंगा’, जालन्धर पर्वत पर ‘विश्वमुखी’, किष्किन्धापर्वत पर ‘तारा’, देवदारुवन में ‘पुष्टि’, काश्मीर-मण्डल में ‘मेधा’, हिमाद्रि पर देवी ‘भीमा’, विश्वेश्वरक्षेत्र में ‘तुष्टि’, कपालमोचनतीर्थ में ‘शुद्धि’, कामावरोहणतीर्थ में ‘माता’, शंखोद्धारतीर्थ में ‘धारा’ और पिण्डारकतीर्थ में ‘धृति’ नाम से विख्यात हैं ॥ ७५–७८ ॥ चन्द्रभागानदी के तट पर ‘कला’, अच्छोदक्षेत्र में ‘शिवधारिणी’, वेणानदी के किनारे ‘अमृता’, बदरीवन में ‘उर्वशी’, उत्तरकुरुप्रदेश में ‘औषधि’, कुशद्वीप में ‘कुशोदका’, हेमकूटपर्वत पर ‘मन्मथा’, कुमुदवन में ‘सत्यवादिनी’, अश्वत्थतीर्थ में ‘वन्दनीया’, वैश्रवणालयक्षेत्र में ‘निधि’, वेदवदनतीर्थ में ‘गायत्री’, भगवान् शिव के सांनिध्य में ‘पार्वती’, देवलोक में ‘इन्द्राणी’, ब्रह्मा के मुखों में ‘सरस्वती’, सूर्य के बिम्ब में ‘प्रभा’ तथा मातृकाओं में ‘वैष्णवी’ नाम से कही गयी हैं सतियों में ‘अरुन्धती’, अप्सराओं में ‘तिलोत्तमा’ और सभी शरीरधारियों के चित्त में ‘ब्रह्मकला’ नाम से वे शक्ति प्रसिद्ध हैं ॥ ७९–८३ ॥

हे जनमेजय ! ये एक सौ आठ सिद्धपीठ हैं और उन स्थानों पर उतनी ही परमेश्वरी देवियाँ कही गयी हैं । भगवती सती के अंगों से सम्बन्धित पीठों को मैंने बतला दिया; साथ ही इस पृथ्वी तल पर और भी अन्य जो प्रमुख स्थान हैं, प्रसंगवश उनका भी वर्णन कर दिया ॥ ८४-८५ ॥ जो मनुष्य इन एक सौ आठ उत्तम नामों का स्मरण अथवा श्रवण करता है, वह समस्त पापों से मुक्त होकर भगवती के परम धाम में पहुँच जाता है ॥ ८६ ॥ विधान के अनुसार इन सभी तीर्थों की यात्रा करनी चाहिये और वहाँ श्राद्ध आदि सम्पन्न करके पितरों को सन्तृप्त करना चाहिये । तदनन्तर विधिपूर्वक भगवती की विशिष्ट पूजा करनी चाहिये और फिर जगद्धात्री जगदम्बा से [ अपने अपराध के लिये ] बार- बार क्षमा-याचना करनी चाहिये । हे जनमेजय ! ऐसा करके अपने आपको कृतकृत्य  समझना चाहिये । हे I राजन्! तदनन्तर भक्ष्य और भोज्य आदि पदार्थ सभी ब्राह्मणों, सुवासिनी स्त्रियों, कुमारिकाओं तथा बटुओं आदि को खिलाने चाहिये ॥ ८७-८९१/२

हे प्रभो ! उस क्षेत्र में रहने वाले जो चाण्डाल आदि हैं, वे भी देवीरूप कहे गये हैं । अतः उन सबकी भी पूजा करनी चाहिये। उन सिद्धपीठक्षेत्रों में सभी प्रकार के दानग्रहण आदि का निषेध करना चाहिये । श्रेष्ठ साधक को चाहिये कि वह उन क्षेत्रों में यथाशक्ति मन्त्र का पुरश्चरण करे और मायाबीज मन्त्र से उन-उन क्षेत्रों की अधिष्ठात्री देवेश्वरी की निरन्तर उपासना करे । हे राजन् ! इस प्रकार साधक को पुरश्चरणकर्म में तत्पर रहना चाहिये। देवी की भक्ति में परायण पुरुष को चाहिये कि वह अनुष्ठान करते समय द्रव्य के व्यय में कृपणता न करे ॥ ९०–९३ ॥ जो मनुष्य इस प्रकार श्रीदेवी के सिद्धपीठों की प्रसन्न मन से यात्रा करता है, उसके पितर हजार कल्पों तक महत्तर ब्रह्मलोक में निवास करते हैं और अन्त में वह भी परम ज्ञान प्राप्त करके संसार-सागर से मुक्त हो जाता है तथा देवीलोक में निवास करता है ॥ ९४-९५ ॥

  इन एक सौ आठ नामों के जप से अनेक लोग सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं । जहाँ पर यह अष्टोत्तरशतनाम स्वयं लिखा हुआ अथवा पुस्तक में अंकित रूप में स्थित रहता है, उस स्थान पर ग्रहों तथा महामारी आदि के उपद्रव का भय नहीं रहता और पर्व पर जैसे समुद्र बढ़ता है, वैसे ही वहाँ सौभाग्य की नित्य वृद्धि होती है ॥ ९६-९७ ॥ इन एक सौ आठ नामों के जप करने वाले के लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता; ऐसा वह देवी-भक्ति-परायण निश्चय ही कृतकृत्य हो जाता है। देवता भी उसे नमस्कार करते हैं; क्योंकि उसे देवी का ही रूप कहा गया है ।  देवतागण सब तरह से उसकी पूजा करते हैं, तो फिर श्रेष्ठ मनुष्यों की बात ही क्या! ॥ ९८-९९ ॥  जो व्यक्ति अपने पितरों के श्राद्ध के समय इस उत्तम अष्टोत्तर-शतनाम का पाठ करता है, उसके सभी पितर तृप्त होकर परम गति प्राप्त करते हैं ॥ १०० ॥

हे राजेन्द्र ! ये सिद्धपीठ प्रत्यक्षज्ञानस्वरूप तथा मुक्तिक्षेत्र हैं, अतः बुद्धिमान् मनुष्य को इनका आश्रय ग्रहण करना चाहिये ॥ १०१ ॥ हे राजन्! आपने भगवती महेश्वरी के अत्यन्त निगूढ रहस्य के विषय में जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने बता दिया; अब आप पुनः क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ १०२ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘भगवती देवीपीठवर्णन’ नामक तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३० ॥

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