श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-37
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-सप्तत्रिंशोऽध्यायः
सैंत्तीसवाँ अध्याय
भगवती द्वारा अपनी श्रेष्ठ भक्ति का वर्णन
देवीगीतायां भक्तिमहिमावर्णनम्

हिमालय बोले — हे अम्ब! आप मुझे अपनी वह भक्ति बताने की कृपा कीजिये, जिस भक्ति के द्वारा अपरिपक्व वैराग्यवाले मध्यम अधिकारी को भी सुगमतापूर्वक ज्ञान हो जाय ॥ १ ॥

देवी बोलीं — हे पर्वतराज ! हे सत्तम! मोक्ष प्राप्ति के साधनभूत कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग ये मेरे तीन मार्ग प्रसिद्ध हैं । इन तीनों में भी यह भक्तियोग सर्वथा सुलभ होने, [बाह्य साधनों से निरपेक्ष केवल ] मन से सम्पादित होने और शरीर तथा चित्त आदि को पीड़ा न पहुँचाने के कारण सरलतापूर्वक किया जा सकता है ॥ २-३ ॥ मनुष्यों के गुण-भेद के अनुसार वह भक्ति भी तीन प्रकार की कही गयी है । जो मनुष्य डाह तथा क्रोध से युक्त होकर दम्भपूर्वक दूसरों को संतप्त करने के उद्देश्य से भक्ति करता है, उसकी वह भक्ति तामसी होती है ॥ ४१/२

हे पर्वतराज! सर्वदा हृदय में कामनाएँ रखने वाला, यश चाहने वाला तथा भोग का लोलुप जो मनुष्य परपीडा से रहित होकर मात्र अपने ही कल्याण के लिये उन-उन फलों की प्राप्ति के लिये अत्यन्त भक्तिपूर्वक मेरी उपासना करता है, साथ ही वह मन्दमति भेदबुद्धि के कारण मुझ भगवती को अपने से भिन्न समझता है, उसकी वह भक्ति राजसी कही गयी है ॥ ५-७ ॥ हे नग ! जो मनुष्य अपना पाप धो डालने के लिये अपना कर्म परमेश्वर को अर्पित कर देता है और ‘वेद की आज्ञा के अनुसार मुझे प्रतिदिन वही वेदनिर्दिष्ट कर्म अवश्य करना चाहिये’ – ऐसा मन में निश्चित करके [सेव्य-सेवक] – की भेदबुद्धि का आश्रय लेकर मेरी प्रसन्नता के लिये कर्म करता है; उस मनुष्य की वह भक्ति सात्त्विकी होती है ॥ ८-९ ॥ [सेव्य-सेवक की] भेदबुद्धि का सहारा लेकर की गयी यह सात्त्विकी भक्ति पराभक्ति की प्राप्ति कराने वाली सिद्ध होती है । पूर्व में कही गयी तामसी और राजसी – दोनों भक्तियाँ पराभक्ति की प्राप्ति का साधन नहीं मानी गयी हैं ॥ १० ॥अब मैं पराभक्ति का वर्णन कर रही हूँ, आप उसे सुनिये नित्य मेरे गुणों का श्रवण और मेरे नाम का संकीर्तन करना, कल्याण एवं गुणस्वरूप रत्नों की भण्डार मुझ भगवती में तैलधारा की भाँति अपना चित्त सर्वदा लगाये रखना, किसी प्रकार की हेतु भावना कभी नहीं होने देना, सामीप्य; साष्टि; सायुज्य और सालोक्य मुक्तियों की कामना न होना इन गुणों से युक्त जो भक्त मेरी सेवासे बढ़कर किसी भी वस्तु को कभी श्रेष्ठ नहीं समझता और सेव्य-सेवक की उत्कृष्ट भावना के कारण मोक्ष की भी आकांक्षा नहीं रखता, परम भक्ति के साथ सावधान होकर जो मेरा ही ध्यान करता रहता है, मुझमें तथा अपने में भेदबुद्धि छोड़कर अभेदबुद्धि रखते हुए मुझे नित्य जानता है, सभी जीवों में मेरे ही रूप का चिन्तन करता है, जैसी प्रीति अपने प्रति होती है; वैसी ही दूसरों में भी रखता है, चैतन्यपरब्रह्म की समानरूप से सर्वत्र व्याप्ति समझकर किसी में भी भेद नहीं करता, हे राजन्! सर्वत्र विद्यमान् सभी प्राणियों में मुझ सर्वरूपिणी को विराजमान जानकर मेरा नमन तथा पूजन करता है, चाण्डाल तक में मेरी ही भावना करता है और भेद का परित्याग करके किसी से भी द्रोहभाव नहीं रखता, हे प्रभो ! जो मेरे स्थानों के दर्शन, मेरे भक्तों के दर्शन, मेरे शास्त्रों के श्रवण तथा मेरे तन्त्र-मन्त्रों आदि में श्रद्धा रखता है, हे पर्वतराज ! जो मेरे प्रति प्रेम से आकुल चित्तवाला, मेरा निरन्तर चिन्तन करते हुए पुलकित शरीर वाला, प्रेम के आँसुओं से परिपूर्ण नेत्रों वाला तथा कंठ गद्गद होने से अवरुद्ध वाणी वाला होकर जगत् को उत्पन्न करने वाली तथा सभी कारणों की कारण मुझ परमेश्वरी का अनन्य भाव से पूजन करता है, जो मेरे नित्य तथा नैमित्तिक सभी दिव्य व्रतों को धन की कृपणता से रहित होकर भक्तिपूर्वक नित्य करता है, हे भूधर ! जो स्वभाव से ही मेरा उत्सव देखने की अभिलाषा रखता है तथा मेरा उत्सव आयोजित करता है तथा जो अहंकार आदि से रहित तथा देहभावना से विहीन होकर ऊँचे स्वर से मेरे नामों का ही कीर्तन करते हुए नृत्य करता है और प्रारब्ध के द्वारा जैसा जो किया जाता है, वह वैसा ही होता है, इसलिये अपने शरीर की रक्षा आदि करने की भी कोई चिन्ता नहीं करता है, ऐसे पुरुषों की भक्ति कही गयी, वह पराभक्ति के नाम से विख्यात है, जिसमें देवी को छोड़कर अन्य किसी की भी भावना नहीं की जाती ॥ ११–२६ ॥

भूधर ! इस प्रकार की पराभक्ति जिसके हृदय में उत्पन्न हो जाती है, उसका उसी क्षण मेरे चिन्मयरूप में विलय हो जाता है ॥ २७ ॥ भक्ति की जो पराकाष्ठा है, उसी को ज्ञान कहा गया है और वही वैराग्य की सीमा भी है; क्योंकि ज्ञान प्राप्त हो जाने पर भक्ति और वैराग्य   ये दोनों ही स्वयं सिद्ध हो जाते हैं ॥ २८ ॥ हे नग ! मेरी भक्ति करने पर भी जिसे प्रारब्धवश मेरा ज्ञान नहीं हो पाता है, वह मेरे धाम ‘मणिद्वीप में जाता है। वहाँ जाकर समस्त प्रकार के भोगों में अनासक्त होता हुआ वह अपना समय व्यतीत करता है। हे नग! अन्त में उसे मेरे चिन्मयरूप का सम्यक् ज्ञान हो जाता है । उस ज्ञान प्रभाव से वह सदा के लिये मुक्त हो जाता है; क्योंकि ज्ञान से ही मुक्ति होती है; इसमें सन्देह नहीं है। इस लोक में जिस व्यक्ति को हृदय में स्थित प्रत्यगात्मा का स्वरूपावबोध हो जाता है, मेरे ज्ञानपरायण उस भक्त के प्राण उत्क्रमण नहीं करते अर्थात् इस शरीर में ही प्राणों का लय हो जाता है। जो मनुष्य ब्रह्म को जान लेता है, वह स्वयं ब्रह्म का ही रूप होकर उसी ब्रह्म को ही प्राप्त हो जाता है ॥ २९–३२ ॥ जैसे कंठ में स्थित सोने का हार भ्रमवश खो गये के समान प्रतीत होने लगता है, किंतु भ्रम का नाश होते ही वह प्राप्त हो जाता है, जबकि वह मिला हुआ पहले से ही था । हे पर्वत श्रेष्ठ ! मेरा स्वरूप ज्ञात और अज्ञात से विलक्षण है। जैसे दर्पण पर परछाहीं पड़ती है, वैसे ही इस शरीर में आत्मा की परछाहीं का अनुभव होता है । जैसे जल में प्रतिबिम्ब पड़ता है, वैसे ही पितृलोक में अनुभव होता है । छाया और प्रकाश जैसे स्पष्टतः भिन्न दीखते हैं, वैसे ही मेरे लोक में द्वैतभाव से रहित ज्ञान की प्राप्ति होती है ॥ ३३-३५ ॥

यदि मनुष्य वैराग्ययुक्त होकर पूर्ण ज्ञान के बिना मृत्यु को प्राप्त हो जाय तो एक कल्प तक निरन्तर ब्रह्मलोक में निवास करता है। उसके बाद पवित्र श्रीमान् पुरुषों के घर में उसका जन्म होता है। वहाँ पर वह साधना करता है और फिर उसमें ज्ञान का उदय होता है ॥ ३६-३७ ॥ हे राजन् ! एक जन्म में मनुष्य को ज्ञान नहीं होता, अपितु अनेक जन्मों में ज्ञान का आविर्भाव होता है। अतः पूर्ण प्रयत्न के साथ ज्ञानप्राप्ति के लिये उपाय का आश्रय लेना चाहिये, अन्यथा महान् अनर्थ होता है; क्योंकि यह मनुष्य – जन्म अत्यन्त दुर्लभ है, उसमें भी ब्राह्मणवर्ण में और उसमें भी वेदज्ञान की प्राप्ति होना महान् दुर्लभ है। साथ ही शम, दम आदि छः सम्पदाएँ, योगसिद्धि तथा उत्तम गुरु की प्राप्ति यह सब इस लोक में दुर्लभ है। अनेक जन्मों के पुण्यों से इन्द्रियों में सदा कार्य करते रहनेक ी क्षमता, शरीर का संस्कारसम्पन्न रहना तथा मोक्ष की अभिलाषा उत्पन्न होती है। जो मनुष्य इस प्रकार के सफल साधन से युक्त रहने पर भी ज्ञान के लिये प्रयत्न नहीं करता, उसका जन्म निरर्थक है ॥ ३८-४२ ॥

अतएव हे राजन्! मनुष्य को यथाशक्ति ज्ञानप्राप्ति के लिये प्रयत्नशील रहना चाहिये । उससे मनुष्य एक- एक पद पर अश्वमेधयज्ञ का फल निश्चितरूप से प्राप्त करता है। दूध में छिपे हुए घृत की भाँति प्रत्येक प्राणी में विज्ञान रहता है। उसे मनरूपी मथानी से निरन्तर मथते रहना चाहिये और इस प्रकार उस विज्ञान को प्राप्त करके कृतार्थ हो जाना चाहिये ऐसा वेदान्त का डिंडिमघोष है । [ हे पर्वतराज हिमालय ! ] मैंने आपको सब कुछ संक्षेप में बता दिया, अब आप पुनः क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ४३–४५ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘देवीगीता में भक्तिमहिमावर्णन’ नामक सैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३७ ॥

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