May 15, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-अष्टमः स्कन्धः-अध्याय-08 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-अष्टमः स्कन्धः-अष्टमोऽध्यायः आठवाँ अध्याय इलावृतवर्ष में भगवान् शंकर द्वारा भगवान् श्रीहरि के संकर्षणरूप की आराधना तथा भद्राश्ववर्ष में भद्रश्रवा द्वारा हयग्रीव रूप की उपासना भुवनकोशवर्णने इलावृतभद्राश्ववर्षवर्णनम् श्रीनारायण बोले — उन नौ वर्षों में रहने वाले सभी देवेश पूर्वोक्त स्तोत्रों तथा जप, ध्यान और समाधि के द्वारा महादेवी की उपासना करते हैं ॥ १ ॥ सभी ऋतुओं में खिलने वाले पुष्पों के समूहों से सुशोभित अनेक वन उनमें विद्यमान हैं, जहाँ फलों तथा पल्लवों की शोभा निरन्तर बनी रहती है ॥ २ ॥ उन वर्षों में विद्यमान सभी वनोद्यानों, पर्वतशिखरों तथा सभी गिरिकन्दराओं में और खिले हुए कमलों से शोभायमान तथा हंस- सारस आदि भिन्न-भिन्न जाति के पक्षियों की ध्वनि निनादित निर्मल जल वाले सरोवरों में वहाँ के देवतागण जल-क्रीड़ा आदि विचित्र विनोदों के द्वारा क्रीडा करते हैं और ललित भौहों वाली सुन्दरियों के विलास-भवनों में उन युवतियों के साथ यथेच्छ विहार करते हैं ॥ ३–५१/२ ॥ उन नौ वर्षों में (सभी लोकों पर अनुग्रहरस से परिपूर्ण दृष्टि रखने वाले नारायण नाम से प्रसिद्ध) भगवान् आदिपुरुष भगवती की आराधना करते हुए विराजमान रहते हैं और वहाँ सभी लोग उनकी पूजा करते हैं। वे भगवान् लोकों से पूजा स्वीकार करने के निमित्त अपनी विभिन्न मूर्तियों के रूप में समाहित होकर वहाँ विराजमान रहते हैं ॥ ६-७ ॥ इलावृतवर्ष में भगवान् श्रीहरि ब्रह्माजी के नेत्र से उत्पन्न भवरूप में अपनी भार्या भवानी के साथ नित्य निवास करते हैं ॥ ८ ॥ उस क्षेत्र में कोई दूसरा प्रवेश नहीं कर सकता है। वहाँ जाने पर भवानी के शाप से पुरुष तत्काल नारी हो जाता है ॥ ९ ॥ वहाँ भवानी की सेवामें संलग्न असंख्य स्त्रियों तथा अपने करोड़ों गणों से घिरे हुए देवेश्वर भगवान् तामस शिव संकर्षणदेव की आराधना करते हैं । वे अजन्मा भगवान् शिव सभी प्राणियों के कल्याणार्थ प्रकृति वाली अपनी ही उस संकर्षण नामक चौथी मूर्ति का एकाग्र मन से ध्यानयोग के द्वारा चिन्तन करते रहते हैं ॥ १०- १११/२ ॥ ॥ श्रीभगवानुवाच ॥ ॐ नमो भगवते महापुरुषाय सर्वगुणसंख्यानायानन्तायाव्यक्ताय नम इति ॥ १२ ॥ भजे भजन्यारणपादपङ्कजं भगस्य कृत्स्नस्य परं परायणम् । भक्तेष्वलं भावितभूतभावनं भवापहं त्वा भव भावमीश्वरम् ॥ १३ ॥ न यस्य मायागुणकर्मवृत्तिभि-र्निरीक्षितो ह्यण्वपि दृष्टिरज्यते । ईशे यथा नो जितमन्युरंहसा कस्तं न मन्येत जिगीषुरात्मनः ॥ १४ ॥ असद्दृशो यः प्रतिभाति मायया क्षीबेव मध्वासवतागम्रलोचनः । न नागवध्वोऽर्हण ईशिरे ह्रिया यत्पादयोः स्पर्शनधर्षितेन्द्रियाः ॥ १५ ॥ यमाहुरस्य स्थितिजन्मसंयमं त्रिभिर्विहीनं यमनन्तमॄषयः । न वेद सिद्धार्थमिव क्वचित्स्थितं भूमण्डलं मूर्धसहस्रधामसु ॥ १६ ॥ यस्याद्य आसीद् गुणविग्रहो महान् विज्ञानधिष्ण्यो भगवानजः किल । यत्संवृतोऽहं त्रिवृता स्वतेजसा वैकारिकं तामसमैन्द्रियं सृजे ॥ १७ ॥ एते वयं यस्य वशे महात्मनः स्थिताः शकुन्ता इव सूत्रयन्त्रिताः । महानहंवैकृततामसेन्द्रियाः सृजाम सर्वे यदनुग्रहादिदम् ॥ १८ ॥ यन्निर्मितां कर्ह्यपि कर्मपर्वणीं मायां जनोऽयं गुरुसर्गमोहितः । न वेद निस्तारणयोगमञ्जसा तस्मै नमस्ते विलयोदयात्मने ॥ १९ ॥ श्रीभगवान् बोले — सभी गुणों के अभिव्यक्तिरूप, अनन्त, अव्यक्त और ॐकारस्वरूप परम पुरुष भगवान् को नमस्कार है ॥ १२ ॥ हे भजनीय प्रभो! भक्तों के आश्रयस्वरूप चरण- कमल वाले, समग्र ऐश्वर्यों के परम आश्रय, भक्तों के सामने अपना भूतभावनस्वरूप प्रकट करने वाले और उनका सांसारिक बन्धन दूर करने वाले, किंतु अभक्तों को सदा भव-बन्धन में बाँधे रहने वाले आप परमेश्वर का मैं भजन करता हूँ ॥ १३ ॥ हे प्रभो! मैं क्रोध को नहीं जीत सका हूँ तथा मेरी दृष्टि पाप से लिप्त हो जाती है, किंतु आप तो संसार का नियमन करने के लिये साक्षीरूप से उसके व्यापारों को देखते रहते हैं । फिर भी मेरी तरह आपकी दृष्टि उन मायिक गुणों तथा कर्म – वृत्तियों से प्रभावित नहीं होती। ऐसी स्थिति में अपने मन को वश में करने की इच्छावाला कौन पुरुष ऐसे आपका आदर नहीं करेगा ॥ १४ ॥ मधुपान करके लाल आँखों वाले मदमत्त की भाँति जो प्रभु माया के कारण विकृत नेत्रों वाले दिखायी पड़ते हैं, जिन प्रभु चरणों का स्पर्श करके नागपत्नियों का मन मोहित हो जाता है और लज्जावश वे अन्य प्रकार से उपासना नहीं कर पातीं [उन प्रभु को मेरा नमस्कार है । ] ॥ १५ ॥ वेद मन्त्र जिन्हें इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय का कारण बताते हैं; परंतु वे तीनों से रहित हैं और जिन्हें ऋषिगण अनन्त कहते हैं, जिनके सहस्र मस्तकों पर स्थित यह भूमण्डल सरसों के दाने के समान प्रतीत होता है और जिन्हें यह भी नहीं ज्ञात होता कि वह कहाँ स्थित है [ उन प्रभु को मेरा नमस्कार है ।] ॥ १६ ॥ जिनसे उत्पन्न हुआ मैं अहंकाररूप अपने त्रिगुणमय तेज से देवता, इन्द्रिय और भूतों की रचना करता हूँ – वे विज्ञान के आश्रय भगवान् ब्रह्माजी भी आपके ही महत्तत्त्वसंज्ञक प्रथम गुणमय स्वरूप हैं ॥ १७ ॥ महत्तत्त्व, अहंकार, इन्द्रियाभिमानी देवता, इन्द्रियाँ और पंचमहाभूत आदि हम सभी महात्मा लोग डोरी में बँधे हुए पक्षी की भाँति जिनकी क्रियाशक्ति के वशीभूत होकर और जिनकी कृपा के द्वारा इस जगत् की रचना करते हैं [उन प्रभु को मेरा नमस्कार है । ] ॥ १८ ॥ सत्त्वादि गुणों की सृष्टि से मोहित यह जीव जिनके द्वारा रचित तथा कर्मबन्धन में बाँधने वाली माया को छूटने का तो कदाचित् जान लेता है, किंतु उससे उपाय उसे सरलतापूर्वक नहीं ज्ञात हो पाता — उन जगत् की उत्पत्ति तथा लयरूप आप परमात्मा को मेरा नमस्कार है ॥ १९ ॥ श्रीनारायण बोले — [ हे नारद!] इस प्रकार देवी के गणों से घिरे हुए वे भगवान् रुद्र इलावृतवर्ष में सर्वसमर्थ परमेश्वर संकर्षण की उपासना करते हैं ॥ २० ॥ उसी प्रकार भद्राश्ववर्ष में भद्रश्रवा नामक वे धर्मपुत्र और उनके कुल के प्रधान पुरुष तथा सेवक भी भगवान् वासुदेव की हयग्रीव नाम से प्रसिद्ध हयमूर्ति को एकनिष्ठ परम समाधि के द्वारा अपने हृदय में धारण किये रहते हैं और इस प्रकार उस हयमूर्तिरूप भगवान् वासुदेव की स्तुति करते हुए उनके समीप रहते हैं ॥ २१-२३ ॥ भद्रश्रवा बोले — चित्त को शुद्ध करने वाले ओंकारस्वरूप भगवान् धर्म को नमस्कार है । अहो, ईश्वर की लीला बड़ी विचित्र है कि यह जीव सम्पूर्ण लोकों का संहार करने वाले काल को देखता हुआ भी नहीं देखता और तुच्छ विषयों का सेवन करने के लिये कुत्सित चिन्तन करता हुआ अपने ही पुत्र तथा पिता को जलाकर भी स्वयं जीवित रहने की इच्छा करता है ॥ २४ ॥ हे अज ! विद्वान् पुरुष इस विश्व को नाशवान् बताते हैं और अध्यात्म को जानने वाले सूक्ष्मदर्शी महात्मा भी जगत् को इसी रूप में देखते हैं, फिर भी वे आपकी माया से मोहित हो जाते हैं। अतः मैं विस्मयकारक कृत्य वाले उस अजन्मा प्रभु को नमस्कार करता हूँ ॥ २५ ॥ माया के आवरण से रहित आपने अकर्ता होते हुए भी विश्व की उत्पत्ति, पालन तथा संहार का कार्य अंगीकृत किया है। यह उचित ही है, सर्वात्मरूप तथा कार्यकारण भाव से सर्वथा अतीत आपके लिये यह कोई आश्चर्य नहीं है ॥ २६ ॥ जब प्रलयकाल में तमोगुण से युक्त दैत्यगण वेदों को चुरा ले गये थे तब ब्रह्माजी के प्रार्थना करने पर मनुष्य और अश्व के संयुक्त विग्रह वाले जिन्होंने रसातल से उन्हें ला दिया था, ऐसा अमोघ हित करने वाले उन आप प्रभु को नमस्कार है ॥ २७ ॥ इस प्रकार भद्रश्रवा नामवाले वे महात्मागण हयग्रीवरूप देवेश्वर श्रीहरि की स्तुति करते हैं और उनके गुणों का संकीर्तन करते हैं ॥ २८ ॥ जो मनुष्य इनके इस चरित्र को पढ़ता है और दूसरों को सुनाता है, वह पापरूपी केंचुल से मुक्त होकर देवीलोक को प्राप्त होता है ॥ २९ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत आठवें स्कन्ध का ‘भुवनकोश- वर्णन में इलावृतभद्राश्ववर्षवर्णन’ नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८ ॥ Content is available only for registered users. 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