May 22, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-नवमः स्कन्धः-अध्याय-10 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-नवमः स्कन्धः-दशमोऽध्यायः दसवाँ अध्याय पृथ्वी के प्रति शास्त्र-विपरीत व्यवहार करने पर नरकों की प्राप्ति का वर्णन पृथिव्युपाख्याने नरकफलप्राप्तिवर्णनम् नारदजी बोले — भूमि का दान करने से होने वाले पुण्य तथा उसका हरण करने से होने वाले पाप, दूसरे की भूमि छीनने से होने वाले पाप, दूसरे के द्वारा खोदे गये जलहीन कुएँ को बिना उसकी आज्ञा लिये खोदने, अम्बुवाची दिनों में भूखनन करने, पृथ्वी पर वीर्य-त्याग करने तथा दीपक रखने से जो पाप होता है, उसे मैं यत्नपूर्वक सुनना चाहता हूँ । हे वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ! मेरे पूछने के अतिरिक्त अन्य भी जो पृथ्वीसम्बन्धी पाप हो, उसे तथा उसके निराकरण का उपाय बतलाइये ॥ १–३ ॥ श्रीनारायण बोल — जो मनुष्य भारतवर्ष में वितस्ति ( बित्ता) – मात्र भूमि भी किसी सन्ध्योपासना से पवित्र हुए ब्राह्मण को दान करता है, वह शिवलोक को प्राप्त होता है ॥ ४ ॥ जो मनुष्य किसी ब्राह्मण को सब प्रकार की फसलों से सम्पन्न भूमि प्रदान करता है, वह उस भूमि में विद्यमान धूल के कणों की संख्या के बराबर वर्षों तक भगवान् विष्णु के लोक में निवास करता है ॥ ५ ॥ जो व्यक्ति ब्राह्मण को ग्राम, भूमि और धान्य का दान करता है, उसके पुण्य से दाता और प्रतिगृहीता-दोनों व्यक्ति सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर जगदम्बा के लोक में स्थान पाते हैं ॥ ६ ॥ जो सज्जन भूमिदान के अवसर पर दाता के इस कर्म का अनुमोदन करता है, वह अपने मित्रों तथा सगोत्री बन्धुओंसहित वैकुण्ठलोक को प्राप्त होता है ॥ ७ ॥ जो मनुष्य किसी ब्राह्मण की अपने अथवा दूसरे के द्वारा दी गयी आजीविका को उससे छीनता है, वह सूर्य तथा चन्द्रमा के स्थितिपर्यन्त कालसूत्र- नरक में रहता है। इस पाप के प्रभाव से उस व्यक्ति के पुत्र-पौत्र आदि भूमि से हीन रहते हैं। वह लक्ष्मीरहित, पुत्रविहीन तथा दरिद्र होकर भीषण रौरवनरक में पड़ता है ॥ 6-9 ॥ जो मनुष्य गोचर भूमि को जोत कर उससे उपार्जित धान्य ब्राह्मण को देता है, वह देवताओं के दिव्य सौ वर्षों तक कुम्भीपाकनरक में निवास करता है ॥ १० ॥ जो मनुष्य गायों के रहने के स्थान, तड़ाग तथा मार्ग को जोतकर वहाँ से पैदा किये हुए अन्न का दान करता है, वह चौदह इन्द्रों की स्थितिपर्यन्त असिपत्र नामक नरक में पड़ा रहता है ॥ ११ ॥ जो मनुष्य किसी दूसरे के कुएँ, तड़ाग आदि में से पाँच मृत्तिका-पिण्डों को निकाले बिना ही उसमें स्नान करता है, वह नरक प्राप्त करता है और उसका स्नान भी निष्फल होता है ॥ १२ ॥ जो कामासक्त पुरुष एकान्त में पृथ्वी पर वीर्य का त्याग करता है, वहाँ की जमीन पर जितने धूलकण हैं, उतने वर्षों तक वह रौरवनरक में वास करता है ॥ १३ ॥ जो मनुष्य अम्बुवाचीकाल में भूमि खोदने का कार्य करता है, वह कृमिदंश नामक नरक में जाता है और वहाँ पर चार युगों तक उसकी स्थिति रहती है ॥ १४ ॥ जो मूर्ख मनुष्य किसी दूसरे के लुप्त कुएँ पर अपना कुआँ तथा लुप्त बावली पर अपनी बावली बनवाता है, उस कार्य का सारा फल उस दूसरे व्यक्ति को मिल जाता है और वह स्वयं तप्तकुण्ड नामक नरक में पड़ता है । वहाँ पर चौदह इन्द्रों की स्थिति पर्यन्त कष्ट भोगते हुए वह पड़ा रहता है ॥ १५-१६ ॥ जो मनुष्य दूसरे तड़ाग में पड़ी हुई कीचड़ को साफ करके स्नान करता है, उस कीचड़ में जितने कण होते हैं, उतने वर्षों तक वह ब्रह्मलोक में निवास करता है ॥ १७ ॥ जो मूर्ख मनुष्य भूमिपति के पितर को पिण्ड दिये बिना श्राद्ध करता है, वह अवश्य ही नरकगामी होता है ॥ १८ ॥ जो व्यक्ति भूमि पर दीपक रखता है, वह सात जन्मों तक अन्धा रहता है और जो भूमि पर शंख रखता है, वह दूसरे जन्म में कुष्ठरोग से ग्रसित होता है ॥ १९ ॥ जो मनुष्य मोती, माणिक्य, हीरा, सुवर्ण तथा मणि — इन पाँच रत्नों को भूमि पर रखता है, वह सात जन्मों तक अन्धा रहता है ॥ २० ॥ जो मनुष्य शिवलिंग, भगवती शिवा की प्रतिमा तथा शालग्रामशिला भूमि पर रखता है, वह सौ मन्वन्तर तक कृमिभक्ष नामक नरक में वास करता है ॥ २१ ॥ जो शंख, यन्त्र, शालग्रामशिला का जल, पुष्प और तुलसीदल को भूमि पर रखता है; वह निश्चितरूप से नरक में वास करता है ॥ २२ ॥ जो मन्दबुद्धि मनुष्य जपमाला, पुष्पमाला, कपूर तथा गोरोचन को भूमि पर रखता है, वह निश्चितरूप से नरकगामी होता है ॥ २३ ॥ चन्दनकाष्ठ, रुद्राक्ष और कुश की जड़ जमीन पर रखने वाला मनुष्य एक मन्वन्तरपर्यन्त नरक में वास करता है ॥ २४ ॥ जो मनुष्य पुस्तक तथा यज्ञोपवीत भूमि पर रखता है, वह अगले जन्म में विप्रयोनि में उत्पन्न नहीं होता है ॥ २५ ॥ जो सभी वर्णों के द्वारा पूज्य ग्रन्थियुक्त यज्ञोपवीत को भूमि पर रखता है, वह निश्चितरूप से इस लोक में ब्रह्म-हत्या के समान पाप का भागी होता है ॥ २६ ॥ जो मनुष्य यज्ञ करके यज्ञभूमि को दूध से नहीं सींचता है, वह सात जन्मोंत क कष्ट भोगता हुआ तप्तभूमि नामक नरक में निवास करता है ॥ २७ ॥ जो मनुष्य भूकम्प तथा ग्रहण के अवसरपर भूमि खोदता है, वह महापापी जन्मान्तर में निश्चितरूप से अंगहीन होता है ॥ २८ ॥ हे महामुने ! इस धरती पर सभी लोगों के भवन हैं; इसलिये यह ‘भूमि’, कश्यप की पुत्री होने के कारण ‘काश्यपी’, स्थिररूप में रहने के कारण ‘अचला’, विश्व को धारण करने से ‘विश्वम्भरा’, अनन्त रूपों वाली होने के कारण ‘अनन्ता’ और पृथु की कन्या होने अथवा सर्वत्र फैली रहने के कारण ‘पृथिवी’ कही गयी है ॥ २९-३० ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत नौवें स्कन्ध का ‘पृथ्वी के उपाख्यान में नरकफलप्राप्तिवर्णन’ नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe