श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-नवमः स्कन्धः-अध्याय-28
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-नवमः स्कन्धः-अष्टाविंशोऽध्यायः
अठ्ठाईसवाँ अध्याय
सावित्री – यमराज – संवाद
सावित्र्युपाख्याने यमसावित्रीसंवादवर्णनम्

श्रीनारायण बोले — [ हे मुने!] यमराज की बात सुनकर पतिव्रता तथा दृढ़ निश्चय वाली सावित्री ने परम भक्ति के साथ उनकी स्तुति की और वह उनसे कहने लगी ॥ १ ॥

सावित्री बोली — कर्म क्या है, वह किससे होता है और उसका हेतु कौन है ? देही कौन है, देह कौन है और इस लोक में प्राणियों से कौन कर्म कराता है ? ज्ञान क्या है, बुद्धि क्या है और शरीरधारियों का प्राण क्या है ? इन्द्रियाँ क्या हैं तथा उनके कौन-कौन-से लक्षण हैं और देवता कौन हैं, भोग करने वाला कौन है, भोग कराने वाला कौन है, भोग क्या है, निष्कृति क्या है, जीव कौन है तथा परमात्मा कौन हैं ? — यह सब आप मुझे कृपा करके बताइये ॥ २–४ ॥

धर्म बोले — वेद में जो भी प्रतिपादित है, वह धर्म है, और वही कर्म परम मंगलकारी कर्म है। इसके विपरीत जो कर्म अवैदिक होता है, वह निश्चितरूप से अशुभ होता है ॥ ५ ॥ देवताओं की संकल्प-रहित तथा अहैतुकी सेवा कर्म-निर्मूलरूपा कही जाती है । यही सेवा पराभक्ति प्रदान करने वाली होती है ॥ ६ ॥ कर्मफल का भोक्ता कौन है और कौन निर्लिप्त है ? इसके उत्तर में श्रुति का वचन है कि जो मनुष्य ब्रह्म की भक्ति करता है, वही मुक्त है और वह जन्म- मृत्यु, जरा, व्याधि, शोक तथा भय — इन सबसे रहित हो जाता है ॥ ७१/२

हे साध्वि ! श्रुति में दो प्रकार की सर्वमान्य भक्ति बतायी गयी है। पहली भक्ति निर्वाण पद प्रदान करती है और दूसरे प्रकार की भक्ति मनुष्यों को साक्षात् श्रीहरि का रूप प्रदान करती है। वैष्णवजन श्रीहरि का सारूप्य प्रदान करने वाली भक्ति की कामना करते हैं और अन्य ब्रह्मवेत्ता योगी निर्वाणपद देने वाली भक्ति चाहते हैं ॥ ८-९१/२

कर्म का जो बीजरूप है, वह उसका सदा फल प्रदान करने वाला है। कर्म परमात्मा भगवान् श्रीहरि तथा परा प्रकृति का ही रूप है । वे परमात्मा ही कर्म के कारणरूप हैं, यह शरीर तो सदा से नश्वर है ॥ १०-११ ॥ पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये सूत्ररूप पंच महाभूत हैं, जो परमात्मा के सृष्टि-प्रकरण में प्रयुक्त होते हैं ॥ १२ ॥ कर्म करने वाला जीव देही है और वही अन्तर्यामी रूप से भोजयिता भी है । सुख और दुःख के साक्षात् स्वरूप वैभव को ही भोग कहते हैं और इससे छूटने को ही ‘निष्कृति’ (मोक्ष) कहा गया है ॥ १३ ॥ सत् तथा असत् में भेद करने का जो प्रधान बीजरूप हेतु है, वही ज्ञान है और वह ज्ञान अनेक भेदों वाला होता है । वह ज्ञान घट-पट आदि विषयों के भेद का कारण कहा गया है ॥ १४ ॥ विवेचनमयी शक्ति ही बुद्धि है । वह श्रुति में ज्ञानबीज नाम से विख्यात है । वायु के विभिन्न रूप प्राण हैं । ये देहधारियों के लिये बलस्वरूप हैं ॥ १५ ॥ जो इन्द्रियों में प्रमुख, ईश्वर का अंशरूप, अतर्क्य, कर्मों का प्रेरक, देहधारियों के लिये दुर्निवार्य, अनिरूप्य, अदृश्य तथा बुद्धि का भेदक है; उसी को मन कहा गया है ॥ १६१/२

आँख, कान, नाक, त्वचा और जिह्वा ये कर्मेन्द्रियाँ प्राणियों के अंगरूप, सभी कर्मों की प्रेरक, शत्रुरूप, मित्ररूप, [सत्कार्य में प्रवृत्त होने पर ] सुख देने वाली तथा [बुरे कार्य में प्रवृत्त होने पर ] दुःख देने वाली हैं । सूर्य, वायु, पृथ्वी, ब्रह्मा आदि इन्द्रियों के देवता कहे गये हैं ॥ १७-१८१/२

जो प्राण तथा देह को धारण करता है, उसे जीव कहा गया है। प्रकृति से परे तथा कारण का भी कारण जो सर्वव्यापी निर्गुण ब्रह्म है, वही परमात्मा कहा जाता है। [हे सावित्रि!] इस प्रकार तुमने जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने तुम्हें शास्त्रानुसार बतला दिया । यह प्रसंग ज्ञानियों के लिये ज्ञानरूप है । हे वत्से ! अब तुम सुखपूर्वक चली जाओ ॥ १९–२१ ॥

सावित्री बोली — [ हे प्रभो ! ] मैं अपने इन प्राणनाथ तथा ज्ञान के सागरस्वरूप आपको छोड़कर कहाँ जाऊँ? इस समय मैं आपसे जो-जो प्रश्न कर रही हूँ, उन्हें आप मुझे बताइये ॥ २२ ॥ हे पितः ! किस-किस कर्म के प्रभाव से जीव किस-किस योनि में जाता है, वह किस कर्म से स्वर्ग तथा किस कर्म से नरक में जाता है ? ॥ २३ ॥ ब्रह्मन् ! किस कर्म से मुक्ति होती है तथा किस कर्म से गुरु के प्रति भक्ति होती है ? उसी तरह किन- किन कर्मों के प्रभाव से प्राणी योगी, रोगी, दीर्घजीवी, अल्पायु, दुःखी, सुखी, अंगहीन, काना, बहरा, अन्धा, पंगु, उन्मादी, पागल, अत्यन्त लोभी अथवा चोर हो जाता है ? किस कर्म के द्वारा मनुष्य सिद्धि, सालोक्य आदि चारों प्रकार की मुक्तियाँ, ब्राह्मणत्व, तपस्विता, स्वर्गके भोग आदि, वैकुण्ठ और सर्वोत्तम तथा विशुद्ध गोलोक प्राप्त करता है ? ॥ २४-२८१/२

कितने प्रकार के नरक हैं, उनकी संख्या कितनी है, उनके नाम क्या – क्या हैं? कौन प्राणी किस नरक में जाता है और वहाँ कितने समय तक निवास करता है ? किस कर्म प्रभाव से पापी मनुष्यों को कौन-सी व्याधि होती है ? [हे प्रभो!] मैंने अपनी जो-जो प्रिय बात आपसे पूछी है, उसे कृपा करके मुझे बताइये ॥ २९-३० ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत नौवें स्कन्ध का नारायण-नारद- संवाद के सावित्री – उपाख्यान में यम-सावित्री-संवादवर्णन’ नामक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २८ ॥

ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 24

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