May 27, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-नवमः स्कन्धः-अध्याय-46 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-नवमः स्कन्धः-षट्चत्वारिंशोऽध्यायः छियालीसवाँ अध्याय भगवती षष्ठी की महिमा के प्रसंग में राजा प्रियव्रत की कथा षष्ठ्युपाख्यानवर्णनम् नारदजी बोले — हे ब्रह्मन् ! हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ! मैंने अनेक उत्तम देवियोंका उत्तम आख्यान सुन लिया; अब आप दूसरी देवियोंके चरित्रका वर्णन कीजिये ॥ १ ॥ श्रीनारायण बोले — हे विप्र ! पूर्वकालमें कही गयी सभी देवियोंके चरित्र वेदोंमें अलग-अलग बताये गये हैं, आप इनमेंसे किनका चरित्र सुनना चाहते हैं ? ॥ २ ॥ नारदजी बोले — भगवती षष्ठी, मंगलचण्डी और मनसादेवी मूलप्रकृति की कला हैं; मैं इनकी उत्पत्ति तथा इनका चरित्र साररूप में सुनना चाहता हूँ ॥ ३ ॥ श्रीनारायण बोले — मूलप्रकृति के छठे अंश से जो देवी आविर्भूत हैं, वे भगवती षष्ठी कही गयी हैं। ये बालकों की अधिष्ठात्री देवी हैं। इन्हें विष्णुमाया और बालदा भी कहा जाता है। ये मातृकाओं में देवसेना नाम से प्रसिद्ध हैं । उत्तम व्रत का पालन करने वाली तथा साध्वी ये भगवती षष्ठी स्वामी कार्तिकेय की भार्या हैं और उन्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। ये बालकों को आयु प्रदान करने वाली, उनका भरण-पोषण करने वाली तथा उनकी रक्षा करने वाली हैं । ये सिद्धयोगिनी देवी अपने योग के प्रभाव से शिशुओं के पास निरन्तर विराजमान रहती हैं ॥ ४-६ ॥ हे ब्रह्मन् ! उन षष्ठीदेवी की पूजाविधि तथा यह इतिहास भी सुनिये, जिसे मैंने धर्मदेव के मुख से सुना है; यह आख्यान पुत्र तथा परम सुख प्रदान करनेवाला है ॥ ७ ॥ स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत नाम वाले एक राजा थे। योगिराज प्रियव्रत विवाह नहीं करना चाहते थे । वे सदा तपस्याओं में संलग्न रहते थे, किंतु ब्रह्माजी की आज्ञा तथा उनके प्रयत्न से उन्होंने विवाह कर लिया ॥ ८ ॥ हे मुने! विवाह करने के अनन्तर बहुत समय तक जब उन्हें पुत्रप्राप्ति नहीं हुई, तब महर्षि कश्यप ने उनसे पुत्रेष्टियज्ञ कराया । मुनि ने उनकी प्रिय भार्या मालिनी को यज्ञचरु प्रदान किया। उस चरु को ग्रहण कर लेने पर उन्हें शीघ्र ही गर्भ स्थित हो गया। वे देवी उस गर्भ को दिव्य बारह वर्षों तक धारण किये रहीं ॥ ९–११ ॥ हे ब्रह्मन् ! तत्पश्चात् उन्होंने स्वर्णसदृश कान्ति वाले, शरीर के समस्त अवयवों से सम्पन्न, मरे हुए तथा उलटी आँखों वाले पुत्र को जन्म दिया ॥ १२ ॥ उसे देखकर सभी स्त्रियाँ तथा बान्धवों की पत्नियाँ रोने लगीं और महान् पुत्रशोक के कारण उसकी माता मूर्च्छित हो गयीं ॥ १३ ॥ हे मुने! उस बालक को लेकर राजा प्रियव्रत श्मशान गये और वहाँ निर्जन स्थान में पुत्र को अपने वक्ष से लगाकर रुदन करने लगे । राजा ने उस पुत्र को नहीं छोड़ा। वे प्राणत्याग करने को तत्पर हो गये । अत्यन्त दारुण पुत्रशोक के कारण राजा का ज्ञानयोग विस्मृत हो गया ॥ १४-१५ ॥ इसी बीच वहाँ उन्होंने शुद्ध स्फटिकमणि के समान प्रकाशमान, बहुमूल्य रत्नों से निर्मित, तेज से निरन्तर देदीप्यमान, रेशमी वस्त्र से सुशोभित, अनेक प्रकार के अद्भुत चित्रों से विभूषित और पुष्प तथा मालाओं से सुसज्जित एक विमान देखा। साथ ही उन्होंने उस विमान में कमनीय, मनोहर, श्वेत चम्पा के वर्ण के समान आभा वाली, सदा स्थायी रहने वाले तारुण्य से सम्पन्न, मन्द मन्द मुसकानयुक्त, प्रसन्न मुखमण्डल वाली, रत्ननिर्मित आभूषणों से अलंकृत, कृपा की साक्षात् मूर्ति, योगसिद्ध और भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये परम आतुर प्रतीत होने वाली देवी को भी देखा ॥ १६–१९ ॥ उन देवी को समक्ष देखकर राजा ने उस बालक को भूमि पर रखकर परम आदरपूर्वक उनका स्तवन तथा पूजन किया । हे नारद! तत्पश्चात् राजा प्रियव्रत प्रसन्नता को प्राप्त, ग्रीष्मकालीन सूर्य के समान प्रभा वाली, अपने तेज से देदीप्यमान तथा शान्त स्वभाववाली उन कार्तिकेयप्रिया [ भगवती षष्ठी] – से पूछने लगे — ॥ २०-२१ ॥ राजा बोले — हे सुशोभने ! हे कान्ते ! हे सुव्रते ! हे वरारोहे ! समस्त स्त्रियों में परम धन्य तथा आदरणीय तुम कौन हो, किसकी भार्या हो और किसकी पुत्री हो ?॥ २२ ॥ [ हे नारद! ] नृपेन्द्र प्रियव्रत की बात सुनकर जगत् का कल्याण करने में दक्ष तथा देवताओं के लिये संग्राम करने वाली भगवती देवसेना उनसे कहने लगीं। वे देवी प्राचीनकाल में दैत्यों के द्वारा पीडित देवताओं की सेना बनी थीं। उन्होंने उन्हें विजय प्रदान किया था, इसलिये वे देवसेना नाम से विख्यात हैं ॥ २३-२४ ॥ श्रीदेवसेना बोलीं — हे राजन् ! मैं ब्रह्माकी मानसी कन्या हूँ। सब पर शासन करने वाली मैं ‘देवसेना’ नाम से विख्यात हूँ । विधाता ने अपने मन से मेरी सृष्टि करके स्वामी कार्तिकेय को सौंप दिया। मातृकाओं में विख्यात मैं स्वामी कार्तिकेय की पतिव्रता भार्या हूँ। भगवती परा-प्रकृति का षष्ठांश होने के कारण मैं विश्व में ‘ षष्ठी’ — इस नाम से प्रसिद्ध हूँ। मैं पुत्रहीन को पुत्र, पति को प्रिय पत्नी, दरिद्रों को धन देने वाली और कर्म करने वालों को उनके कर्म का फल प्रदान करने वाली हूँ ॥ २५–२७ ॥ हे राजन्! सुख, दुःख, भय, शोक, हर्ष, मंगल, सम्पत्ति और विपत्ति — यह सब कर्मानुसार होता है। अपने कर्म से मनुष्य अनेक पुत्रों वाला होता है, कर्म से ही वह वंशहीन होता है, कर्म से ही उसे मरा हुआ पुत्र होता है और कर्म से ही वह पुत्र दीर्घजीवी होता है। मनुष्य कर्म से ही गुणी, कर्म से ही अंगहीन, कर्म से ही अनेक पत्नियों वाला तथा कर्म से ही भार्याहीन होता है। कर्म से ही मनुष्य रूपवान् तथा कर्म से ही निरन्तर रोगग्रस्त रहता है, कर्म से ही व्याधि तथा कर्म से ही नीरोगता होती है । अतः हे राजन्! कर्म सबसे बलवान् है — ऐसा श्रुति में कहा गया है ॥ २८-३११/२ ॥ हे मुने! इस प्रकार कहकर उन भगवती षष्ठी ने बालक को लेकर अपने महाज्ञान के द्वारा खेल-खेल में उसे जीवित कर दिया। अब राजा प्रियव्रत स्वर्ण की प्रभा के समान कान्ति से सम्पन्न तथा मुसकानयुक्त उस बालक को देखने लगे। उसी समय वे भगवती देवसेना बालक को देख रहे राजा से कहकर उस बालक को ले करके आकाश में जाने को उद्यत हो गयीं ॥ ३२-३४ ॥ [ यह देखकर] शुष्क कण्ठ, ओष्ठ तथा तालुवाले वे राजा उन भगवती की स्तुति करने लगे, तब राजा के स्तोत्र से वे देवी षष्ठी अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं और हे ब्रह्मन् ! उन राजा से कर्मनिर्मित वेदोक्त वचन कहने लगीं ॥ ३५१/२ ॥ देवी बोलीं — तुम स्वायम्भुव मनु के पुत्र हो और तीनों लोकों के राजा हो। तुम सर्वत्र मेरी पूजा कराकर स्वयं भी करो, तभी मैं तुम्हें कुल के कमलस्वरूप यह मनोहर पुत्र प्रदान करूँगी । यह सुव्रत नाम से विख्यात होगा, यह गुणी तथा विद्वान् होगा, इसे पूर्वजन्म की बातें याद रहेंगी, यह योगीन्द्र होगा तथा भगवान् नारायण की कला से सम्पन्न होगा, यह क्षत्रियों में श्रेष्ठ तथा सभी के द्वारा वन्दनीय होगा और सौ अश्वमेधयज्ञ करने वाला होगा। यह बालक लाखों मतवाले हाथियों के समान बल धारण करेगा तथा महान् कल्याणकारी होगा। यह धनी, गुणवान्, शुद्ध, विद्वानों का प्रिय और योगियों, ज्ञानियों तथा तपस्वियों का सिद्धिस्वरूप, समस्त लोकों में यशस्वी तथा सभी को समस्त सम्पदाएँ प्रदान करनेवाला होगा ॥ ३६–४०१/२ ॥ ऐसा कहकर उन देवी ने वह बालक राजा को दे दिया । राजा प्रियव्रत ने भी पूजा की बातें स्वीकार कर लीं । तब भगवती भी उन्हें कल्याणकारी वर देकर स्वर्ग चली गयीं और राजा प्रसन्नचित्त होकर मन्त्रियों के साथ अपने घर आ गये। घर आकर उन्होंने पुत्रविषयक वृत्तान्त सबसे कहा। हे नारद! उसे सुनकर समस्त नर तथा नारी परम प्रसन्न हुए ॥ ४१-४३१/२ ॥ राजा ने पुत्र-प्राप्ति के उपलक्ष्य में सर्वत्र मंगलोत्सव कराया, भगवती षष्ठी की पूजा की तथा ब्राह्मणों को धन प्रदान किया ॥ ४४ ॥ उसी समय से राजा प्रियव्रत प्रत्येक महीने में शुक्लपक्ष की षष्ठी तिथि को भगवती षष्ठी का महोत्सव प्रयत्नपूर्वक सर्वत्र कराने लगे ॥ ४५१/२ ॥ सूतिकागृह में बालकोंके जन्म के छठें दिन, इक्कीसवें दिन, बालकों से सम्बन्धित किसी भी मांगलिक कार्य में तथा शुभ अन्नप्राशन के अवसर पर वे भगवती की पूजा कराने लगे और स्वयं भी करने लगे, इस प्रकार उन्होंने सर्वत्र भगवती की पूजा का प्रचार कराया ॥ ४६-४७१/२ ॥ हे सुव्रत ! अब आप मुझसे भगवती षष्ठी के ध्यान, पूजाविधान तथा स्तोत्र को सुनिये, जिसे मैंने धर्मदेव के मुख से सुना था और जो सामवेद की कौथुमशाखा में वर्णित है ॥ ४८१/२ ॥ हे मुने! शालग्राम, कलश अथवा वट के मूल में अथवा दीवाल पर पुत्तलिका बनाकर भगवती प्रकृति के छठें अंश से प्रकट होने वाली, शुद्धस्वरूपिणी तथा दिव्य प्रभा से सम्पन्न षष्ठीदेवी को प्रतिष्ठित करके बुद्धिमान् मनुष्य को उनकी पूजा करनी चाहिये ॥ ४९-५० ॥ सुपुत्रदां च शुभदा दयारूपां जगत्प्रसूम् । श्वेतचम्पकवर्णाभां रत्नभूषणभूषिताम् ॥ ५१ ॥ पवित्ररूपां परमां देवसेनां परां भजे । ‘उत्तम पुत्र प्रदान करने वाली, कल्याणदायिनी, दयास्वरूपिणी, जगत् की सृष्टि करने वाली, श्वेत चम्पा के पुष्प की आभा के समान वर्ण वाली, रत्नमय आभूषणों से अलंकृत, परम पवित्रस्वरूपिणी तथा अतिश्रेष्ठ परा भगवती देवसेनाकी मैं आराधना करता हूँ ।’ विद्वान् पुरुष को चाहिये कि इस विधि से ध्यान करके [हाथ में लिये हुए ] पुष्प को अपने मस्तक से लगाकर उसे भगवती को अर्पण कर दे । पुनः ध्यान करके मूलमन्त्र के उच्चारणपूर्वक पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, गन्ध, पुष्प, दीप, विविध प्रकार के नैवेद्य तथा सुन्दर फल आदि उपचारों के द्वारा उत्तम व्रत में निरत रहने वाली साध्वी भगवती देवसेना की पूजा करनी चाहिये और उस मनुष्य को ‘ॐ ह्रीं षष्ठीदेव्यै स्वाहा’ इस अष्टाक्षर महामन्त्र का अपनी शक्ति के अनुसार विधिपूर्वक जप भी करना चाहिये । तदनन्तर एकाग्रचित्त होकर भक्तिपूर्वक स्तुति करके देवी को प्रणाम करना चाहिये । पुत्र – फल प्रदान करने वाला यह उत्तम स्तोत्र सामवेद में वर्णित है । जो मनुष्य भगवती षष्ठी के अष्टाक्षर महामन्त्र का एक लाख जप करता है, वह निश्चितरूप से सुन्दर पुत्र प्राप्त करता है – ऐसा ब्रह्माजी ने कहा है ॥ ५१-५६१/२ ॥ मुनिश्रेष्ठ ! अब आप सम्पूर्ण शुभ कामनाओं को प्रदान करने वाले, सभी प्राणियों को वांछित फल प्रदान करने वाले तथा वेदों में रहस्यमय रूप से प्रतिपादित स्तोत्र का श्रवण कीजिये ॥ ५७१/२ ॥ वाञ्छाप्रदं च सर्वेषां गूढं वेदेषु नारद । नमो देव्यै महादेव्यै सिद्ध्यै शान्त्यै नमो नमः ॥ ५८ ॥ शुभायै देवसेनायै षष्ठ्यै देव्यै नमो नमः । वरदायै पुत्रदायै धनदायै नमो नमः ॥ ५९ ॥ सुखदायै मोक्षदायै षष्ठ्यै देव्यै नमो नमः । सृष्ट्यै षष्ठांशरूपायै सिद्धायै च नमो नमः ॥ ६० ॥ मायायै सिद्धयोगिन्यै षष्ठीदेव्यै नमो नमः । सारायै शारदायै च परादेव्यै नमो नमः ॥ ६१ ॥ बालाधिष्ठातृदेव्यै च षष्ठीदेव्यै नमो नमः । कल्याणदायै कल्याण्यै फलदायै च कर्मणाम् ॥ ६२ ॥ प्रत्यक्षायै स्वभक्तानां षष्ठ्यै देव्यै नमो नमः । पूज्यायै स्कन्दकान्तायै सर्वेषां सर्वकर्मसु ॥ ६३ ॥ देवरक्षणकारिण्यै षष्ठीदेव्यै नमो नमः । शुद्धसत्त्वस्वरूपायै वन्दितायै नृणां सदा ॥ ६४ ॥ हिंसाक्रोधवर्जितायै षष्ठीदेव्यै नमो नमः । धनं देहि प्रियां देहि पुत्रं देहि सुरेश्वरि ॥ ६५ ॥ मानं देहि जयं देहि द्विषो जहि महेश्वरि । धर्मं देहि यशो देहि षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ ६६ ॥ देहि भूमिं प्रजां देहि विद्यां देहि सुपूजिते । कल्याणं च जयं देहि षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ ६७ ॥ देवी को नमस्कार है, महादेवी को नमस्कार है, भगवती सिद्धि एवं शान्ति को नमस्कार है। शुभा, देवसेना तथा देवी षष्ठी को बार-बार नमस्कार है। वरदा, पुत्रदा तथा धनदा देवी को बार- बार नमस्कार है। सुखदा, मोक्षदा तथा भगवती षष्ठी को बार-बार नमस्कार है । मूलप्रकृति के छठें अंश से अवतीर्ण, सृष्टिस्वरूपिणी तथा सिद्धस्वरूपिणी भगवती को बार- बार नमस्कार है। माया तथा सिद्धयोगिनी षष्ठीदेवी को बार-बार नमस्कार है । सारस्वरूपिणी, शारदा तथा परादेवी को बार-बार नमस्कार है । बालकों की अधिष्ठात्री देवी को नमस्कार है । षष्ठीदेवी को बार-बार नमस्कार है। कल्याण प्रदान करने वाली, कल्याणस्वरूपिणी, सभी कर्मों के फल प्रदान करने वाली तथा अपने भक्तों को प्रत्यक्ष दर्शन देने वाली देवी षष्ठी को बार-बार नमस्कार है। सम्पूर्ण कार्यों में सभी के लिये पूजनीय तथा देवताओं की रक्षा करने वाली स्वामी कार्तिकेय की भार्या देवी षष्ठी को बार-बार नमस्कार है। शुद्धसत्त्वस्वरूपिणी, मनुष्यों के लिये सदा वन्दनीय तथा क्रोध – हिंसा से रहित षष्ठीदेवी को बार-बार नमस्कार है। हे सुरेश्वरि ! आप मुझे धन दीजिये, प्रिय भार्या दीजिये, पुत्र प्रदान कीजिये, मान प्रदान कीजिये तथा विजय प्रदान कीजिये और हे महेश्वरि ! मेरे शत्रुओं का संहार कर डालिये। मुझे धर्म दीजिये और कीर्ति दीजिये, आप षष्ठीदेवी को बार- बार नमस्कार है। हे सुपूजिते ! भूमि दीजिये, प्रजा दीजिये, विद्या दीजिये, कल्याण और जय प्रदान कीजिये, आप षष्ठीदेवी को बार-बार नमस्कार है ॥ ५८–६७ ॥ इस प्रकार भगवती षष्ठी की स्तुति करके महाराज प्रियव्रत ने षष्ठीदेवी की कृपा से यशस्वी पुत्र प्राप्त कर लिया ॥ ६८ ॥ हे ब्रह्मन्! जो एक वर्ष तक भगवती षष्ठी के इस स्तोत्र का श्रवण करता है, वह पुत्रहीन मनुष्य सुन्दर तथा दीर्घजीवी पुत्र प्राप्त कर लेता है । जो एक वर्ष तक भक्तिपूर्वक देवी षष्ठी की विधिवत् पूजा करके इस स्तोत्र का श्रवण करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। महावन्ध्या स्त्री भी इसके श्रवण से प्रसव के योग्य हो जाती है और वह भगवती षष्ठी की कृपा से वीर, गुणी, विद्वान्, यशस्वी तथा दीर्घजीवी पुत्र उत्पन्न करती है । यदि कोई स्त्री काकवन्ध्या अथवा मृतवत्सा हो तो भी वह एक वर्ष तक इस स्तोत्र का श्रवण करके षष्ठीदेवी के अनुग्रह से पुत्र प्राप्त कर लेती है । पुत्र के व्याधिग्रस्त हो जाने पर यदि माता- पिता एक मास तक इस स्तोत्र को सुनें तो षष्ठीदेवी की कृपा से वह बालक रोगमुक्त हो जाता है ॥ ६९-७३ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत नौवें स्कन्ध का ‘नारायण-नारद- संवाद में षष्ठी – उपाख्यानवर्णन’ नामक छियालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४६ ॥ Content is available only for registered users. 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