May 29, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-एकादशः स्कन्धः-अध्याय-03 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-एकादशः स्कन्धः-तृतीयोऽध्यायः तीसरा अध्याय सदाचार-वर्णन और रुद्राक्ष धारण का माहात्म्य रुद्राक्षमाहात्म्यवर्णनम् श्रीनारायण बोले — (शुद्ध, स्मार्त, पौराणिक, वैदिक, तान्त्रिक तथा श्रौत — यह छः प्रकार का श्रुति- प्रतिपादित आचमन कहा गया है । मल-मूत्रादि के विसर्जन के पश्चात् शुद्धि के लिये किया जाने वाला आचमन शुद्ध आचमन कहा गया है। कर्म के पूर्व किया गया आचमन स्मार्त तथा पौराणिक कहा जाता है। ब्रह्मयज्ञ (वेदपाठ) आरम्भ करने के पूर्व किया गया आचमन वैदिक तथा श्रौत एवं अस्त्र – विद्या आदि कर्मों के प्रारम्भ से पूर्व कृत आचमन तान्त्रिक आचमन कहा जाता है | ) ॐकार तथा गायत्री मन्त्र का स्मरण करके शिखाबन्धन करे। तत्पश्चात् आचमन करके हृदय, दोनों भुजाओं तथा दोनों स्कन्धों का स्पर्श करे ॥ १ ॥ छींकने, थूकने, दाँतों से जूठन का स्पर्श हो जाने, झूठ बोलने तथा पतितों से बातचीत हो जाने पर शुद्धिहेतु दाहिने कान का स्पर्श करना चाहिये। हे नारद! अग्नि, जल, चारों वेद, चन्द्रमा, सूर्य तथा वायु — ये सब ब्राह्मण के दाहिने कान पर विराजमान रहते हैं ॥ २-३ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ! तत्पश्चात् नदी आदि पर जाकर देह – शुद्धि के लिये विधिपूर्वक प्रात: कालिक स्नान करना चाहिये। नौ द्वारों से निरन्तर मल निकालने वाला शरीर अत्यन्त अशुद्ध रहता है, अतएव उसकी शुद्धि के लिये प्रभात – वेला में स्नान किया जाता है। अगम्या स्त्री के साथ गमन करने, प्रतिग्रह स्वीकार करने तथा एकान्त में निन्द्य कर्म करने से जो पाप लगता है, उन सभी से मनुष्य प्रातः स्नान कर लेने से मुक्त हो जाता है ॥ ४–६ ॥ चूँकि प्रात: स्नान न करने वाले की सभी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं, अतएव प्रतिदिन प्रातः कालीन स्नान अवश्य ही करना चाहिये ॥ ७ ॥ स्नान तथा सन्ध्यावन्दन – कार्य कुशसहित करना चाहिये। सात दिनों तक प्रात:काल स्नान न करने वाला, तीन दिनों तक सन्ध्योपासन न करने वाला तथा बारह दिनों तक अग्निकर्म ( हवन) न करने वाला द्विज शूद्रत्व को प्राप्त हो जाता है ॥ ८१/२ ॥ स्नानादि के अधिक समय-साध्य होने के फलस्वरूप हवन – कर्म के लिये कम समय बचने के कारण प्रात:काल उस प्रकार स्नान न करे कि होम – कार्य उचित समय पर सम्पन्न न हो पाने से कर्ता को निन्दा का पात्र बनना पड़े ॥ ९१/२ ॥ गायत्री से बढ़कर इस लोक तथा परलोक में दूसरा कुछ भी नहीं है। चूँकि यह उच्चारण करने वाले की रक्षा करती है, अतः इसे गायत्री नाम से अभिहित किया जाता है ॥ १० ॥ तीन बार प्राणायाम करके विप्र को प्राणवायु को अपानवायु में नियन्त्रित करना चाहिये और प्रणव ( ॐकार ) तथा व्याहृतियों (भूर्भुवः स्वः ) – सहित गायत्री – जप करना चाहिये ॥ १११/२ ॥ श्रुति – सम्पन्न ब्राह्मण को सदा अपने धर्म का पालन करना चाहिये । उसे वैदिक मन्त्र का जप करना चाहिये, लौकिक मन्त्र का जप कभी नहीं करना चाहिये ॥ १२१/२ ॥ गाय की सींग पर सरसों जितने समय तक स्थिर रह सकती है, उतने समय भी जिनका प्राणवायु प्राणायाम-काल में नहीं रुकता, वे अपने दोनों पक्षों (माता-पिता) – की एक सौ एक पीढ़ियों के पितरों को कभी नहीं तार सकते । जपसहित किया गया प्राणायाम सगर्भ और केवल ध्यानयुक्त प्राणायाम अगर्भ नामवाला है ॥ १३-१४ ॥ देवताओं, ऋषियों तथा पितरों को सन्तुष्ट करने के निमित्त स्नानांग-तर्पण करना चाहिये । पुनः जल से बाहर आकर दो शुद्ध वस्त्र धारण करके विभूति तथा रुद्राक्ष की माला धारण करनी चाहिये । इस प्रकार जप- साधना करने वालों को क्रम से यह सब सदैव करना चाहिये ॥ १५-१६ ॥ जो व्यक्ति अपने कण्ठ में बत्तीस, मस्तक पर चालीस, दोनों कानों में छः-छः, दोनों हाथों में बारह- बारह, दोनों बाहुओं में चन्द्रकला के बराबर सोलह- सोलह, दोनों नेत्रों में एक-एक, शिखा में एक तथा वक्ष:स्थल पर एक सौ आठ रुद्राक्ष धारण करता है, वह साक्षात् नीलकण्ठ शिव हो जाता है ॥ १७ ॥ हे मुने! सोने अथवा चाँदी के तार में पिरोकर मनुष्य को शिखा में, दोनों कानों में, यज्ञोपवीत में, हाथ में, कण्ठ में तथा उदर पर श्रीपंचाक्षर मन्त्र ‘नमः शिवाय’ अथवा प्रणव (ओंकार) – के जप के साथ समाहित होकर रुद्राक्ष धारण करना चाहिये ॥ १८-१९ ॥ मेधावी पुरुष को निष्कपट भक्ति के साथ प्रसन्नतापूर्वक रुद्राक्ष धारण करना चाहिये; क्योंकि रुद्राक्ष धारण करना साक्षात् शिवज्ञान की प्राप्ति का साधन है ॥ २० ॥ जो रुद्राक्ष शिखा में धारण किया जाता है, उसे तारक तत्त्व की भाँति समझना चाहिये । हे ब्रह्मन् ! दोनों कानों में धारण किये गये रुद्राक्ष में शिव तथा शिवा की भावना करनी चाहिये । यज्ञोपवीत में धारण किये गये रुद्राक्ष को चारों वेद तथा हाथ में धारण किये गये रुद्राक्ष को दिशाएँ जानना चाहिये। कण्ठ में धारित रुद्राक्ष को देवी सरस्वती तथा अग्नि के तुल्य मानना चाहिये ॥ २१-२२ ॥ सभी आश्रमों तथा वर्णों के लोगों के लिये रुद्राक्ष- धारण करने का विधान है । द्विजों को मन्त्रोच्चारण के साथ रुद्राक्ष धारण करना चाहिये, किंतु अन्य वर्ण के लोगों को नहीं ॥ २३ ॥ रुद्राक्ष धारण कर लेने से व्यक्ति साक्षात् रुद्ररूप हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं है । निषिद्ध चीजों को देखने, उनके विषय में सुनने, उनका स्मरण करने, उन्हें सूँघने, खाने, निरन्तर उनके विषयमें बातचीत करने, सदा ऐसे कर्म करने, अपरित्याज्य अर्थात् विहित का परित्याग करने पर रुद्राक्ष धारण कर लेने से मनुष्य सभी प्रकार के पापों से प्रभावित नहीं होता। ऐसे व्यक्ति ने जो कुछ ग्रहण कर लिया, उसे मानो शिवजी ने स्वीकार कर लिया, उसने जो भी पी लिया, उसे शिवजी ने पी लिया तथा जो कुछ सूँघ लिया, उसे भी मानो शिवजी ने ही सूँघ लिया ॥ २४-२६१/२ ॥ हे महामुने ! जो लोग रुद्राक्ष धारण करने में लज्जा का अनुभव करते हैं, करोड़ों जन्मों में भी संसार से उनका मोक्ष नहीं हो सकता ॥ २७१/२ ॥ किसी रुद्राक्ष धारण करनेवालेको देखकर जो मनुष्य उसकी निन्दा करता है, उसके उत्पन्न होनेमें वर्णसंकरताका दोष निश्चितरूपसे विद्यमान होता है ॥ २८१/२ ॥ रुद्राक्ष धारण करने से ही रुद्र रुद्रत्व को प्राप्त हुए, मुनिगण सत्यसंकल्प वाले हुए तथा ब्रह्माजी ब्रह्मत्व को प्राप्त हुए। अतएव रुद्राक्ष धारण करने से अतिरिक्त कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है ॥ २९-३० ॥ जो मनुष्य रुद्राक्ष धारण करने वाले को भक्तिपूर्वक वस्त्र तथा अन्न प्रदान करता है, वह सभी पापों से मुक्त होकर शिवलोक को जाता है ॥ ३१ ॥ जो व्यक्ति प्रसन्न होकर रुद्राक्ष धारण करने वाले को श्राद्धकर्म में भोजन कराता है, वह पितृलोक को प्राप्त होता है; इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ ३२ ॥ रुद्राक्ष धारण करने वाले के दोनों चरणों को जल से प्रक्षालित करके उस जल को पीने वाला मनुष्य सभी पापों से मुक्त होकर शिवलोक में प्रतिष्ठित होता है ॥ ३३ ॥ भक्तिपूर्वक रुद्राक्षसहित हार, कड़ा या स्वर्णाभूषण धारण करने वाला द्विजश्रेष्ठ रुद्रत्व को प्राप्त होता है ॥ ३४ ॥ हे महामते! जो कोई भी मनुष्य जहाँ-कहीं भी समन्त्रक या अमन्त्रक अथवा भावरहित होकर अथवा लज्जा से भी भक्तिपूर्वक केवल रुद्राक्ष धारण करता है, वह समस्त पापों से मुक्त होकर सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति कर लेता है ॥ ३५-३६ ॥अहो, मैं रुद्राक्षमाहात्म्य का वर्णन करने में समर्थ नहीं हूँ, अतएव पूर्ण प्रयत्न के साथ रुद्राक्ष धारण करना चाहिये ॥ ३७ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत ग्यारहवें स्कन्ध का ‘सदाचारनिरूपण में रुद्राक्षमाहात्म्यवर्णन’ नामक तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३ ॥ Content is available only for registered users. 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