श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-द्वादशः स्कन्धः-अध्याय-13
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-द्वादशः स्कन्धः-त्रयोदशोऽध्यायः
तेरहवाँ अध्याय
राजा जनमेजय द्वारा अम्बा यज्ञ और श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण का माहात्म्य
जनमेजयेनाम्बामखकरण-देवीभागवतश्रवणपूर्वकं स्वपित्रुद्धारवर्णनम्

व्यासजी बोले — हे राजन् ! हे अनघ ! आपने मुझसे जो-जो पूछा था, वह मैंने आपको बता दिया, जिसे पूर्व में नारायण ने महात्मा नारद से कहा था ॥ १ ॥ महादेवी का यह परम अद्भुत पुराण सुनकर मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है और वह भगवती का प्रियतम हो जाता है ॥ २ ॥ हे राजेन्द्र ! चूँकि अपने पिता की दुर्गति के विषय में जानकर आप अत्यन्त विषादग्रस्त हैं, अतएव हे राजन् ! अब आप अपने पिता के उद्धार के निमित्त देवीयज्ञ कीजिये। आप विधि-विधान के अनुसार महादेवी के सर्वोत्तमोत्तम मन्त्र की दीक्षा ग्रहण कीजिये, जो मनुष्य- जन्म को सार्थक कर देता है ॥ ३-४ ॥

सूतजी बोले — उसे सुनकर नृपश्रेष्ठ जनमेजय ने मुनीन्द्र व्यास से प्रार्थना करके उन्हीं से विधिपूर्वक देवी के प्रणवसंज्ञक महामन्त्र की दीक्षा ग्रहण की। तत्पश्चात् महाराज ने नवरात्र के आने पर धौम्य आदि मुनियों को बुलाकर धन की कृपणता किये बिना शीघ्रतापूर्वक अम्बायज्ञ आरम्भ कर दिया। इसमें उन्होंने भगवती जगदम्बा की प्रसन्नता के लिये उनके समक्ष ब्राह्मणों के द्वारा इस परम उत्तम देवीभागवत-महापुराण का पाठ कराया ॥ ५–७१/२

इस यज्ञ में उन्होंने असंख्य ब्राह्मणों, सुवासिनी स्त्रियों, कुमारी कन्याओं, ब्रह्मचारियों, दीनों तथा अनाथों को भोजन कराया। तत्पश्चात् धन-दान के द्वारा उन सभी को पूर्ण सन्तुष्ट करने के बाद पृथ्वीपति जनमेजय यज्ञ समाप्त करके ज्यों ही अपने स्थान पर विराजमान हुए, उसी समय प्रज्वलित अग्नि की शिखा के समान तेजवाले देवर्षि नारद अपनी महती नामक वीणा बजाते हुए आकाश से उतरे ॥ ८–१०१/२

उन नारदमुनि को देखकर आश्चर्यचकित हो महाराज जनमेजय अपने आसन से उठ खड़े हुए और उन्होंने आसन आदि उपचारों से उनका पूजन किया । तत्पश्चात् वे कुशल-क्षेमसम्बन्धी प्रश्न करके उनके आने का कारण पूछने लगे ॥ ११-१२ ॥

राजा बोले — हे साधो ! आप कहाँ से आ रहे हैं ? आप मुझे यह बताइये कि मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? मैं आपके आगमन से सनाथ और कृतार्थ हो गया हूँ ॥ १३ ॥

राजा की यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ नारद ने कहा — हे नृपश्रेष्ठ ! आज मैंने देवलोक में एक आश्चर्यजनक घटना देखी है । उसी को बताने के लिये मैं विस्मित होकर आपके पास आया हूँ ॥ १४१/२

अपने विपरीत कर्मों के कारण आपके पिताजी दुर्गति में पड़े हुए थे । वे ही अब दिव्य शरीर धारण करके श्रेष्ठ विमान पर चढ़कर श्रेष्ठ देवताओं तथा अप्सराओं से चारों ओर से भलीभाँति स्तुत होते हुए मणिद्वीप को चले गये हैं ॥ १५-१६१/२

इस देवीभागवत के श्रवणजनितफल तथा देवीयज्ञ के फल से ही आपके पिताजी उत्तम गति को प्राप्त हुए हैं । हे कुलभूषण ! आप धन्य तथा कृतकृत्य हो गये हैं और आपका जीवन सफल हो गया । आपने नरक से अपने पिताजी का उद्धार कर दिया है और आज देवलोक में आपकी महान् कीर्ति और अधिक विस्तृत हो गयी है ॥ १७–१९ ॥

सूतजी बोले — [ हे मुनीश्वरो ! ] नारदजी का यह वचन सुनकर महाराज जनमेजय का हृदय प्रेम से गद्गद हो गया और वे अद्भुत कर्मों वाले व्यासजी के चरण-कमलों पर गिर पड़े। [ वे कहने लगे ] हे देव! आपकी कृपा से ही मैं कृतार्थ हुआ हूँ । हे महामुने ! नमस्कार के अतिरिक्त मैं आपके लिये विशेष कर ही क्या सकता हूँ । हे मुने! आप मुझपर इसी प्रकार अनुग्रह सदा करते रहें ॥ २०-२११/२

राजा का यह वचन सुनकर भगवान् बादरायण व्यास ने अपने आशीर्वचनों से उनका अभिनन्दन कर मधुर वाणी में कहा — हे राजन् ! सब कुछ त्याग करके आप भगवती के चरणकमलों की उपासना कीजिये और दत्तचित्त होकर नित्य देवीभागवतपुराण का पाठ कीजिये। साथ ही नित्य आलस्यरहित होकर भक्तिपूर्वक देवीयज्ञ का अनुष्ठान कीजिये; उसके फलस्वरूप आप भव-बन्धन से अनायास ही छूट जायँगे ॥ २२-२४१/२

यद्यपि विष्णुपुराण तथा शिवपुराण आदि अनेक पुराण हैं, किंतु वे इस देवीभागवतपुराण की सोलहवीं कला की भी समता नहीं कर सकते। यह देवीभागवत समस्त वेदों तथा पुराणों का सारस्वरूप है | २५-२६ ॥ हे नृपश्रेष्ठ! जिस देवीभागवत में साक्षात् मूल-प्रकृति का ही प्रतिपादन किया गया है, उसके समान अन्य कोई पुराण भला कैसे हो सकता है ? ॥ २७ ॥ हे जनमेजय ! जिस देवीभागवत-पुराण का पाठ करने से वेद-पाठ के समान पुण्य प्राप्त होता है, उसका पाठ श्रेष्ठ विद्वानों को प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये ॥ २८ ॥

उन नृपश्रेष्ठ जनमेजय से ऐसा कहकर मुनिराज व्यास चले गये । उसके बाद विमलात्मा धौम्य आदि मुनि भी अपने-अपने स्थानों को चले गये । उन्होंने देवीभागवत की ही श्रेष्ठ प्रशंसा की । तदनन्तर सन्तुष्ट मन वाले महाराज जनमेजय देवीभागवतपुराण का निरन्तर पाठ तथा श्रवण करते हुए पृथ्वी का शासन करने लगे ॥ २९-३ ०॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत बारहवें स्कन्ध का ‘जनमेजय के द्वारा अम्बामखकरण और देवीभागवतश्रवणपूर्वक स्वपित्रुद्धारवर्णन ‘नामक तेरहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १३ ॥

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