April 17, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-चतुर्थ स्कन्धः-अध्याय-12 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-चतुर्थ: स्कन्धः-द्वादशोऽध्यायः बारहवाँ अध्याय महात्मा भृगु द्वारा विष्णु को मानवयोनि में जन्म लेने का शाप देना, इन्द्र द्वारा अपनी पुत्री जयन्ती को शुक्राचार्य के लिये अर्पित करना, देवगुरु बृहस्पति द्वारा शुक्राचार्य का रूप धारणकर दैत्यों का पुरोहित बनना जयन्त्या शुक्रसहवासवर्णनम् व्यासजी बोले — [ हे राजन् ! ] उस भयानक वध को देखकर भगवान् भृगु अत्यन्त कुपित हुए और दु:ख से व्याकुल होकर काँपते हुए वे मधुसूदन विष्णु से कहने लगे ॥ १ ॥ भृगु बोले — हे महाबुद्धिमान् विष्णो ! जो नहीं करना चाहिये वह पाप आपने जानबूझकर कर डाला। विप्र-स्त्री के इस वध की तो मन से कल्पना करना भी अनुचित है ॥ २ ॥ आप तो सत्त्वगुण से सम्पन्न कहे गये हैं, ब्रह्मा रजोगुणी और शिव तमोगुणी बताये गये हैं; तब आपने अपने गुण के विपरीत कार्य क्यों किया ? आप तामसी कैसे हो गये, जिससे आपने यह घोर निन्दनीय कर्म कर डाला ? हे विष्णो! आपने उस अवध्य तथा निरपराध स्त्री को क्यों मार डाला ? ॥ ३-४ ॥ [ उन्होंने क्रोधपूर्वक कहा कि ] अब मैं तुझ दुराचारी को शाप दे रहा हूँ, इसके अतिरिक्त तुम्हारा क्या प्रतीकार करूँ? अरे पापी! तुमने इन्द्र के हित के लिये मुझे विधुर बना दिया। हे मधुसूदन! मैं इन्द्र को शाप नहीं दूँगा, बल्कि तुम्हें ही शाप दूँगा । कृष्ण सर्पसदृश दुरभिप्रायवाले तुम सदा छल करने में ही तत्पर रहते हो ॥ ५-६ ॥ हे जनार्दन ! जो मुनि तुम्हें सात्त्विक कहते हैं, वे निश्चय ही मूर्ख हैं। मैंने तो प्रत्यक्ष जान लिया कि तुम तमोगुणी तथा दुराचारी हो। अतः हे जनार्दन ! मेरे शाप से मृत्युलोक में तुम्हारे अनेक अवतार हों और [ इस स्त्री- वधजन्य ] पाप के कारण बार-बार गर्भवास से होने वाले दुःख को भोगो ॥ ७-८ ॥ व्यासजी बोले — उसी शाप के कारण भगवान् विष्णु धर्म का ह्रास होने पर संसार के कल्याण के लिये बार-बार मानवरूपों में प्रकट होते हैं ॥ ९ ॥ राजा बोले — [ हे व्यासजी!] जब अमित तेजस्वी चक्र के द्वारा भृगुपत्नी का वध हो गया, उसके बाद महात्मा भृगु का गार्हस्थ्य-जीवन कैसे व्यतीत हुआ ? ॥ १० ॥ व्यासजी बोले — इस प्रकार रोषपूर्वक भगवान् विष्णु को शाप देकर कार्यकुशल महर्षि भृगु तत्काल उस [कटे] सिर को लेकर शीघ्रतापूर्वक [ अपनी पत्नी के] धड़ में जोड़ते हुए बोले — हे देवि ! विष्णु के द्वारा तुम मारी जा चुकी हो, किंतु अब मैं तुम्हें फिर से जीवित कर रहा हूँ। यदि मैं सम्पूर्ण धर्म जानता हूँ तथा उसका सम्यक् आचरण करता हूँ और सदा सत्य भाषण करता हूँ तो उसी सत्य के प्रभाव से तुम जीवित हो जाओ। सभी देवता मेरे महान् तेज- बल को देख लें। यदि मुझमें सत्य, पवित्रता, वेदाध्ययन तथा तपस्या का बल होगा तो मैं उन्हीं के प्रभाव से शीतल जल प्रोक्षण करके तुम्हें जीवित कर दूँगा ॥ ११–१४ ॥ व्यासजी बोले — तब जल से प्रोक्षित करते ही मधुर मुसकानवाली वे भृगुपत्नी शीघ्र ही जीवित हो गयीं और बड़ी प्रसन्नतापूर्वक उठकर खड़ी हो गयीं ॥ १५ ॥ तब सोकर उठी हुई के समान उसे देखकर सब ओर से लोग ‘साधु-साधु’ – ऐसा कहकर भृगुमुनि तथा उनकी भार्या दोनों की स्तुति करने लगे ॥ १६ ॥ इस प्रकार उन महर्षि भृगु ने उस सुन्दरी को जीवित कर दिया। यह देखकर इन्द्रसहित सभी देवता अत्यन्त आश्चर्यचकित हो उठे ॥ १७ ॥ तत्पश्चात् इन्द्र ने देवताओं से कहा — भृगु मुनि ने अपनी साध्वी भार्या को जीवित कर दिया। साथ ही मन्त्रज्ञानी शुक्राचार्य कठोर तपस्या करके [शिव से मन्त्र प्राप्तकर ] पता नहीं क्या कर डालेंगे ! ॥ १८ ॥ व्यासजी बोल — हे राजन् ! मन्त्रप्राप्ति के लिये शुक्राचार्य के अत्यन्त कठोर तप का स्मरण करके इन्द्र की नींद समाप्त हो गयी और उनके शरीर में व्याकुलता होने लगी ॥ १९ ॥ तब मन में भली-भाँति विचार करके इन्द्र ने सुन्दर स्वरूपवाली अपनी पुत्री जयन्ती से मुसकराते हुए कहा — हे पुत्रि ! मैंने तुम्हें तपस्वी शुक्राचार्य को सौंप दिया। अतः हे तन्वंगि! अब तुम जाओ और मेरे कल्याण के लिये उनकी सेवा करो और उन्हें वश में कर लो। उस उत्तम आश्रम में शीघ्र जाकर उनके मन को प्रिय लगने वाले विविध उपचारों से उन्हें प्रसन्न करके मेरा भय दूर करो ॥ २०-२२ ॥ विशाल नयनों वाली वह सुन्दर कन्या पिता की बात सुनकर [शुक्राचार्य के] आश्रम में गयी और वहाँ पर उसने मुनि को [ नीचे की ओर सिर करके] धुएँ का सेवन करते हुए देखा ॥ २३ ॥ तब उनके [ तपोरत] शरीर को देखकर और पिता की बात याद करके वह केले का एक पत्ता लेकर मुनि को पंखा झलने लगी ॥ २४ ॥ तबसे वह उनके पीने के लिये अत्यन्त स्वच्छ, शीतल, सुगन्धित तथा रुचिकर जल ले आकर [ उनके समक्ष ] श्रद्धापूर्वक उपस्थित किया करती। सूर्य के मध्य आकाश में होते ही वह सुन्दरी उनके ऊपर वस्त्र से छतरी बनाकर छाया कर देती थी। वह साध्वी सदा पातिव्रत्य धर्म का पालन करती थी ॥ २५-२६ ॥ वह शास्त्रविहित दिव्य, पके तथा मीठे फल लाकर खाने के लिये उन मुनि के समक्ष रख देती थी। वह कन्या उनके नित्यकर्म के सम्पादनार्थ पुष्प और तोते के वर्ण के समान प्रादेशमात्र मापवाले हरे-हरे कुश उनके आगे प्रस्तुत कर देती थी। उनके शयन के लिये वह कोमल-कोमल पत्तों का बिछौना तैयार करती थी और फिर उन मुनि के प्रति आदरभाव रखकर धीरे-धीरे पंखा झलने लगती थी ॥ २७–२९ ॥ मुनि के शाप से भयभीत होकर वह जयन्ती उनके मन में विकार उत्पन्न करने वाला कोई हाव-भाव प्रदर्शित नहीं करती थी ॥ ३० ॥ सुकुमार अंगों वाली तथा मृदुभाषण करने वाली वह कन्या उन महात्मा के मन के अनुकूल तथा प्रीति उत्पन्न करने वाले शब्दों से उनकी स्तुति करती थी। तत्पश्चात् उनके जाग जाने पर आचमन के लिये जल लाकर रख देती थी। इस प्रकार सदा उनके मन के अनुकूल कार्य करती हुई उनके साथ व्यवहार करती थी ॥ ३१-३२ ॥ चिन्ता से व्याकुल इन्द्र भी उन जितेन्द्रिय मुनि की प्रवृत्ति जानने की इच्छा से अपने सेवक भेजते रहते थे ॥ ३३ ॥ इस प्रकार वह साध्वी कन्या क्रोधपर विजय प्राप्त करके, निर्विकार होकर तथा ब्रह्मचर्यपरायण रहती हुई बहुत वर्षों तक मुनि की सेवामें संलग्न रही ॥ ३४ ॥ तदनन्तर हजार वर्ष पूर्ण होने पर महेश्वर शिव प्रसन्न हो गये और प्रसन्नतापूर्वक वे शुक्राचार्य से वर माँगने के लिये कहने लगे ॥ ३५ ॥ ईश्वर बोले — हे ब्रह्मन् ! हे भृगुनन्दन ! जगत् में जो कुछ भी विद्यमान है, आप जो सब देख रहे हैं तथा जो किसी की भी वाणी का विषय नहीं है — उन सबके स्वामित्व से आप युक्त हो जायँगे; इसमें कोई सन्देह नहीं है। आप सभी प्राणियों से अवध्य होंगे। आप प्रजाओं के स्वामी तथा श्रेष्ठ ब्राह्मण के रूप में प्रतिष्ठित होंगे ॥ ३६-३७ ॥ व्यासजी बोले — इस प्रकार वर प्रदान करके शिवजी वहीं अन्तर्धान हो गये । तत्पश्चात् जयन्ती को देखकर शुक्राचार्य ने उससे कहा — हे सुश्रोणि! तुम कौन हो और किसकी पुत्री हो; मुझे अपनी अभिलाषा बताओ। हे सुन्दरि ! तुम यहाँ किसलिये आयी हो, अपना कार्य बताओ। हे सुनयने! तुम क्या चाहती हो; यदि वह कार्य दुष्कर भी हो तो भी मैं उसे अभी कर दूँगा । हे सुव्रते ! आज मैं तुम्हारी सेवासे प्रसन्न हूँ, अतः वर माँग लो ॥ ३८-४० ॥ तदनन्तर प्रसन्न मुखमण्डल वाली जयन्ती ने मुनि से कहा — हे भगवन् ! आप तो अपनी तपस्या से मेरा अभिलषित जान लेने में समर्थ हैं ॥ ४१ ॥ शुक्राचार्य बोले — वह तो मैंने जान लिया, फिर भी जो तुम्हारा मनोभिलषित है, उसे तुम मुझे बताओ। मैं हर तरह से तुम्हारा कल्याण करूँगा; क्योंकि मैं तुम्हारी सेवासे प्रसन्न हूँ ॥ ४२ ॥ जयन्ती बोली — हे ब्रह्मन् ! मैं इन्द्र की पुत्री हूँ और पिताजी ने मुझे आपको सौंप दिया है। हे मुने! मेरा नाम जयन्ती है और मैं जयन्त की छोटी बहन हूँ ॥ ४३ ॥ हे विभो ! मैं आप पर आसक्त हूँ, अतः मेरी अभिलाषा पूर्ण कीजिये। हे महाभाग ! मैं पातिव्रत धर्म के अनुसार प्रेमपूर्वक आपके साथ विहार करूँगी ॥ ४४ ॥ शुक्राचार्य बोले — हे सुश्रोणि ! हे भामिनि ! तुम सभी प्राणियों से अदृश्य रहती हुई दस वर्षों तक इच्छानुसार मेरे साथ यहाँ विहार करो ॥ ४५ ॥ व्यासजी बोले — ऐसा कहकर शुक्राचार्य ने घर जाकर जयन्ती के साथ विवाह किया। तत्पश्चात् माया से आच्छादित होकर सभी प्राणियों से अदृश्य रहते हुए वे ऐश्वर्यसम्पन्न मुनि शुक्राचार्य देवी जयन्ती के साथ दस वर्षों तक वहाँ रहे ॥ ४६१/२ ॥ गुरु शुक्राचार्य को अपने उद्देश्य में सफल हो मन्त्र से युक्त होकर आया हुआ सुनकर सभी दैत्य उनके दर्शन की इच्छा से प्रसन्नतापूर्वक उनके घर गये, किंतु वे उन्हें देख न सके; क्योंकि उस समय वे जयन्ती के साथ विहार कर रहे थे ॥ ४७-४८ ॥ इससे उन सभी दैत्यों का मन उदास हो गया और उनके सभी उद्योग व्यर्थ हो गये। वे बहुत चिन्तित और दुःखी होकर उन्हें बार-बार खोजते रहे। अन्त में [माया से ] आच्छादित उन मुनि को न देखकर वे चिन्तित तथा भयभीत दैत्य जैसे आये थे वैसे ही अपने घर लौट गये ॥ ४९-५० ॥ तत्पश्चात् शुक्राचार्य को विहार करता हुआ जानकर इन्द्र ने अपने गुरु महाभाग बृहस्पति से कहा — अब क्या किया जाय ? हे ब्रह्मन्! आप दानवों के पास जाइये और माया के द्वारा उन्हें मोह में डाल दीजिये। हे मानद ! बुद्धि से भलीभाँति विचार करके आप हमारा कार्य सिद्ध कर दीजिये ॥ ५१-५२ ॥ इन्द्र की बात सुनकर देवगुरु बृहस्पति शुक्राचार्य को मायाच्छादित होने के कारण [ अदृश्य हो जयन्ती के साथ ] क्रीडा करते जानकर उन्हीं का रूप धारण करके दैत्यों के पास गये ॥ ५३ ॥ वहाँ पहुँचकर उन्होंने बड़े आदर के साथ दानवों को बुलवाया। तब सभी दानव आ गये और उन्होंने शुक्राचार्य को अपने सम्मुख देखा ॥ ५४ ॥ माया से विमोहित सभी दैत्य [उन छद्मवेषधारी देवगुरु बृहस्पति को ही] शुक्राचार्य समझकर उन्हें प्रणाम करके उनके समक्ष खड़े हो गये। वे शुक्राचार्य का कृत्रिम रूप प्रकट करने वाली देवगुरु बृहस्पति की माया को नहीं जान सके ॥ ५५ ॥ तत्पश्चात् छद्म माया से शुक्राचार्य का रूप धारण करने वाले गुरु बृहस्पति ने उनसे कहा — मेरे यजमानों का स्वागत है । मैं आप लोगों के हित के लिये अब आ गया हूँ। मैंने आप सबके कल्याण के लिये तपस्या के द्वारा भगवान् शिव को प्रसन्न कर लिया और अब मैं उनसे प्राप्त विद्या को निष्कपट भाव से आप लोगों को बता दूँगा ॥ ५६-५७ ॥ यह सुनकर वे श्रेष्ठ दानव प्रसन्नचित्त हो गये। गुरु शुक्राचार्य को अपने उद्देश्य में सफल समझकर वे मोहग्रस्त दानव बहुत हर्षित हुए और बड़ी प्रसन्नता के साथ उन्हें प्रणाम किया। वे भयमुक्त तथा सन्तापरहित हो गये। अब देवताओं का भय छोड़कर वे सभी दैत्य स्वस्थचित्त होकर रहने लगे ॥ ५८-५९ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत चतुर्थ स्कन्ध का ‘जयन्ती का शुक्रसहवासवर्णन’ नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥ Content is available only for registered users. 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