श्रीमद्भागवतमहापुराण – द्वादशः स्कन्ध – अध्याय ७
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
सातवाँ अध्याय
अथर्ववेद की शाखाएँ और पुराणों के लक्षण

सूतजी कहते हैं — शौनकादि ऋषियो ! मैं कह चुका हूँ कि अथर्ववेद के ज्ञाता सुमन्तु मुनि थे । उन्होंने अपनी संहिता अपने प्रिय शिष्य कबन्ध को पढ़ायी । कबन्ध ने उस संहिता के दो भाग करके पथ्य और वेददर्श को उसका अध्ययन कराया ॥ १ ॥ वेददर्श के चार शिष्य हुए — शौल्कायनि, ब्रह्मबलि, मोदोष और पिप्पलायन । अब पथ्य के शिष्यों के नाम सुनो ॥ २ ॥ शौनकजी ! पथ्य के तीन शिष्य थे — कुमुद, शुनक और अथर्ववेत्ता जाजलि । अङ्गिरा-गोत्रोत्पन्न शुनक के दो शिष्य थे — बभ्रु और सैन्धवायन । उन लोगों ने दो संहिताओं का अध्ययन किया । अथर्ववेद के आचार्यों में इनके अतिरिक्त सैन्धवायनादि के शिष्य सावर्ण्य आदि तथा नक्षत्रकल्प, शान्ति, कश्यप, आङ्गिरस आदि कई विद्वान् और भी हुए । अब मैं तुम्हें पौराणिकों के सम्बन्ध में सुनाता हूँ ॥ ३-४ ॥

शौनकजी ! पुराणों के छः आचार्य प्रसिद्ध हैं — त्रय्यारुणि, कश्यप, सावर्णि, अकृतव्रण, वैशम्पायन और हारीत ॥ ५ ॥ इन लोगों ने मेरे पिताजी से एक-एक पुराण-संहिता पढ़ी थी और मेरे पिताजी ने स्वयं भगवान् व्यास से उन संहिताओं का अध्ययन किया था । मैंने उन छहों आचार्यों से सभी संहिताओं का अध्ययन किया था ॥ ६ ॥ उन छः संहिताओं के अतिरिक्त और भी चार मूल संहिताएँ थीं । उन्हें भी कश्यप, सावर्णि, परशुरामजी के शिष्य अकृतव्रण और उन सबके साथ मैंने व्यासजी के शिष्य श्रीरोमहर्षणजी से, जो मेरे पिता थे, अध्ययन किया था ॥ ७ ॥

शौनकजी ! महर्षियों ने वेद और शास्त्रों के अनुसार पुराणों के लक्षण बतलाये हैं । अब तुम स्वस्थ होकर सावधानी से उनका वर्णन सुनो ॥ ८ ॥ शौनकजी ! पुराणों के पारदर्शी विद्वान् बतलाते हैं कि पुराणों के दस लक्षण हैं — विश्व-सर्ग, विसर्ग, वृति, रक्षा, मन्वन्तर, वंश, वंशानुचरित, संस्था (प्रलय), हेतु (ऊति) और अपाश्रय । कोई-कोई आचार्य पुराणों के पाँच ही लक्षण मानते हैं । दोनों ही बातें ठीक हैं, क्योंकि महापुराणों में दस लक्षण होते हैं और छोटे पुराणों में पाँच । विस्तार करके दस बतलाते हैं और संक्षेप करके पाँच ॥ ९-१० ॥ (अब इनके लक्षण सुनो) जब मूल प्रकृति में लीन गुण क्षुब्ध होते हैं, तब महत्तत्त्व की उत्पत्ति होती है । महत्तत्त्व से तामस, राजस और वैकारिक (साविक ) — तीन प्रकार के अहङ्कार बनते हैं । त्रिविध अहङ्कार से ही पञ्चतन्मात्रा, इन्द्रिय और विषयों की उत्पत्ति होती हैं । इसी उत्पत्ति-क्रम को नाम सर्ग है ॥ ११ ॥ परमेश्वर के अनुग्रह से सृष्टि को सामर्थ्य प्राप्त करके महत्तत्त्व आदि पूर्वकर्मों के अनुसार अच्छी और बुरी वासनाओं की प्रधानता से जो यह चराचर शरीरात्मक जीव को उपाधि को सृष्टि करते हैं, एक बीज से दूसरे बीज के समान, इसी विसर्ग कहते हैं ॥ १२ ॥

चर प्राणियों की अचर-पदार्थ ‘वृत्ति’ अर्थात् जीवन-निर्वाह की सामग्री हैं । चर प्राणियों के दुग्ध आदि भी । इनमें से मनुष्यों ने कुछ तो स्वभाववश कामना के अनुसार निश्चित कर ली है और कुछ ने शास्त्र के आज्ञानुसार ॥ १३ ॥ भगवान् युग-युग में पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋषि, देवता आदि के रूप में अवतार ग्रहण करके अनेकों लीलाएँ करते हैं । इन्हीं अवतारों में वे वेदधर्म के विरोधियों का संहार भी करते हैं । उनकी यह अवतार-लीला विश्व की रक्षा के लिये ही होती है, इसीलिये उसका नाम ‘रक्षा’ है ॥ १४ ॥ मनु, देवता, मनुपुत्र, इन्द्र, सप्तर्षि और भगवान् के अंशावतार — इन्हीं छः बातों की विशेषता से युक्त समय को ‘मन्वन्तर’ कहते हैं ॥ १५ ॥ ब्रह्माजी से जितने राजाओं की सृष्टि हुई है, उनकी भूत, भविष्य और वर्तमानकालीन सन्तान-परम्परा को ‘वंश’ कहते हैं । उन राजाओं के तथा उनके वंशधरों के चरित्र को नाम ‘वंशानुचरित’ हैं ॥ १६ ॥ इस विश्व-ब्रह्माण्ड का स्वभाव से ही प्रलय हो जाता है । उसके चार भेद हैं — नैमित्तिक, प्राकृतिक, नित्य और आत्यन्तिक। तत्त्वज्ञ विद्वानों ने इन्हीं को ‘संस्था’ कहा है ॥ १७ ॥

पुराणों के लक्षण में हेतु’ नाम से जिसका व्यवहार होता है, वह जीव ही है; क्योंकि वास्तव में वही सर्ग-विसर्ग आदि का हेतु है और अविद्यावश अनेक प्रकार के कर्मकलाप में उलझ गया हैं । जो लोग उसे चैतन्य-प्रधान की दृष्टि से देखते हैं, वे उसे अनुशयी अर्थात् प्रकृति में शयन करनेवाला कहते हैं; और जो उपाधिक दृष्टि से कहते हैं, वे उसे अव्याकृत अर्थात् प्रकृति-रूप कहते हैं ॥ १८ ॥ जीव की वृत्तियों के तीन विभाग हैं — जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति । जो इन अवस्थाओं में इनके अभिमान विश्व, तैजस और प्राज्ञ के मायामय रूपों में प्रतीत होता है और इन अवस्थाओं से परे तुरीयतत्त्व रूप में भी लक्षित होता है, वही ब्रह्म है; उसको यहाँ ‘अपाश्रय’ शब्द से कहा गया हैं ॥ १९ ॥ नामविशेष और रूपविशेष से युक्त पदार्थों पर विचार करें, तो वे सत्तामात्र वस्तु के रूप में सिद्ध होते हैं । उनकी विशेषताएँ लुप्त हो जाती हैं । असल में वह सत्ता हो उन विशेषताओं के रूप में प्रतीत भी हो रही है और उनसे पृथक् भी है । ठीक इसी न्याय से शरीर और विश्वब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से लेकर मृत्यु और महाप्रलयपर्यन्त जितनी भी विशेष अवस्थाएँ हैं, उनके रूप में परम सत्यस्वरूप ब्रह्म ही प्रतीत हो रहा हैं और वह उनसे सर्वथा पृथक् भी है । यही वाक्य-भेद से अधिष्ठान और साक्षी के रूप में ब्रह्म ही पुराणोक्त आश्रय-तत्व हैं ॥ २० ॥

जब चित स्वयं आत्मविचार अथवा योगाभ्यास के द्वारा सत्त्वगुण-रजोगुण-तमोगुण सम्बन्धी व्यावहारिक वृत्तियों और जाग्रत्-स्वप्न आदि स्वाभाविक वृत्तियों का त्याग करके उपराम हो जाता है, तव शान्तवृत्ति में ‘तत्त्वमसि’ आदि महावाक्यों के द्वारा आत्मज्ञान का उदय होता है । उस समय आत्मवेत्ता पुरुष अविद्याजनित कर्म-वासना और कर्मप्रवृति से निवृत हो जाता है ॥ २१ ॥

शौनकादि ऋषियो ! पुरातत्त्ववेत्ता ऐतिहासिक विद्वानों ने इन्हीं लक्षणों के द्वारा पुराणों की यह पहचान बतलायी है । ऐसे लक्षणों से युक्त छोटे-बड़े अठारह पुराण हैं ॥ २२ ॥ उनके नाम ये हैं — ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, शिवपुराण, लिङ्गपुराण, गरुडपुराण, नारदपुराण, भागवतपुराण, अग्निपुराण, स्कन्दपुराण, भविष्यपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, मार्कण्डेयपुराण, वामनपुराण, वराहपुराण, मस्यपुराण, कूर्मपुराण और ब्रह्माण्डपुराण यह अठारह हैं ॥ २३-२४ ॥ शौनकजी ! व्यासजी की शिष्य-परम्परा ने जिस प्रकार वेदसंहिता और पुराणसंहिताओं का अध्ययन-अध्यापन, विभाजन आदि किया वह मैंने तुम्हें सुना दिया । यह प्रसङ्ग सुनने और पढ़नेवालों के ब्रह्मतेज की अभिवृद्धि करता है ॥ २५ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे सप्तमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.