दारुब्रह्म (भगवान् जगन्नाथ )-का प्राकट्य-रहस्य

एक समय श्रीधाम द्वारका में भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र रात्रिकाल में श्रीरुक्मिणी, सत्यभामा प्रभृति प्रधान अष्ट-राजमहिषियों के मध्य शयन कर रहे थे । स्वप्नावस्था में आप अकस्मात् ‘हा राधे! हा राधे !’ उच्चारण करते हुए क्रन्दन करने लगे । जब अन्य किसी प्रकार प्रभु का क्रन्दन नहीं रुका, तब बाध्य होकर महारानी श्रीरुक्मिणीदेवी ने अपने प्राणवल्लभ को चरणसंवाहनपूर्वक जाग्रत् किया ।

भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र निद्राभंग होने पर किंचित् लज्जित हुए और उन्होंने अति चतुराई से अपना भाव गोपन कर लिया और पुन: निद्रित हो गये; परंतु इसका रहस्य जानने के लिये महारानियों के हृदय में अत्यन्त व्यग्रता उत्पन्न हुई । सब परस्पर कहने लगीं ‘देखो, हम सब मिलकर सोलह सहस्र एक सौ आठ महिषियाँ हैं और कुल, शील, रूप एवं गुण में कोई भी अन्य किसी रमणी से न्यून नहीं है; तथापि हमारे प्राणवल्लभ किसी अन्य रमणी के लिये इतने व्याकुल हैं, यह तो बड़े ही विस्मय की बात है ! रात्रि में स्वप्नावस्था में भी जिस रमणी के लिये प्रभु इतने व्याकुल होते हैं, वह रमणी भी न जाने कितनी रूप-गुणवती होगी !’ इस पर श्रीरुक्मिणीदेवी कहने लगीं, ‘हमने सुना है कि वृन्दावन में राधा-नाम्नी एक गोपकुमारी है, उसके प्रति हमारे प्राणेश्वर अत्यन्त आकृष्ट हैं; इसीलिये रूप-लावण्य-वैदग्ध्य-पुंज नयनाभिराम श्रीप्राणनाथ हम सबके द्वारा परिसेवित होकर भी उस सर्वचित्ताकर्षक-चित्ताकर्षिणी के अलौकिक गुणग्राम भूल नहीं सके हैं ।’ श्रीसत्यभामादेवी कहने लगीं, ‘सब ठीक ही है, तो भी वह एक गोपकन्या के सिवा तो कुछ नहीं; फिर उसके प्रति हमारे प्राणकान्त इतने आसक्त क्यों हैं ? अस्तु, जो कुछ भी क्यों न हो, हमारी सम्मति में तो इस सम्बन्ध में रोहिणीमाता को पूछने पर ही इसका ठीक-ठीक पता लग सकेगा; क्योंकि उन्होंने स्वयं वृन्दावन में वास किया है और उस समय की सम्पूर्ण घटनाओं को वे भली-भाँति जानती हैं । यह प्रस्ताव सबको रुचा । रात्रि बीती, प्रातःकाल हुआ ।

श्रीकृष्णचन्द्र प्रातःकृत्य समापन करके राजसभा को पधारे और यथासमय पुनः अन्तःपुर में पधारकर स्नानादि करके समाधानपूर्वक भोजन करने बैठे । राजभोग सम्मुख आकर उपस्थित हुए, उद्धवादि सखा-वृन्द सहित प्रभु ने भोजन किया और आचमन करके किंचित् विश्रामपूर्वक पुनः राजसभा को गमन किया । इस अवसर को पाकर महारानियों ने श्रीरोहिणीदेवी को पूर्वरात्रि की घटना सुनाकर उनसे व्रज-वृत्तान्त पूछा । माताजी कहने लगीं, ‘प्यारी पुत्रियो ! यद्यपि मैं व्रजलीला की अधिकांश घटनाएँ जानती हूँ, तथापि माता होकर पुत्र की गुप्त लीलाओं का रहस्य किस प्रकार कह सकती हूँ ? यदि राम-कृष्ण यह कथा सुन लें तो फिर लज्जा की सीमा न रहेगी ।’ इस पर महिषीगण कहने लगीं, ‘माताजी ! जिस किसी प्रकार भी हो सके, हमें व्रजलीला की कथा तो आपको अवश्य ही सुनानी होगी । माताजी ने कहा — ‘तब एक उपाय करो — सुभद्रा को द्वार पर पहरे के लिये बैठा दो, किसी को अंदर न आने दे; फिर मैं निस्संकोच तुम्हारे निकट व्रजलीला का वर्णन करूँगी ।’ माताजी ने यह कहकर सुभद्रा की ओर देखा और कहा, ‘सुभद्रे ! यदि राम-कृष्ण आयें तो उन्हें भी कदापि भीतर मत आने देना । माताजी का आदेश पालन किया गया । सुभद्रा ‘जो आज्ञा’ कहकर द्वार-रक्षा करने लगीं । महिषी-वृन्द माताजी को चारों ओर से घेरकर बैठ गयीं और माताजी ने सुमधुर व्रजलीला वर्णन करना आरम्भ किया ।

इधर राजसभा में राम-कृष्ण दोनों भाई चंचल हो उठे । जब किसी प्रकार भी राजसभा में नहीं ठहर सके, तब उत्कण्ठित चित्त होकर अन्तःपुर की ओर चल पड़े । आकर देखते हैं कि सुभद्रादेवी द्वार पर खड़ी हैं । उन्होंने सुभद्रादेवी से पूछा, “तुम आज यहाँ क्यों खड़ी हो ? द्वार छोड़ दो, हम लोग भीतर जायँ ।’ श्रीमती सुभद्रादेवी ने कहा, ‘रोहिणी माँ ने इस समय तुम्हारा अन्तःपुर में प्रवेश करना निषेध कर रखा है, अतः तुमलोग अभी भीतर नहीं जा सकोगे ।’ यह सुनकर जब दोनों भाई आश्चर्यान्वित होकर इस निषेध का कारण ढूँढने लगे, तब माताजी की वह रहस्यपूर्ण व्रजलीलात्मक वार्ता उन्हें सुनायी दी । यह वार्ता श्रीवृन्दावनचन्द्र की परम कल्याणमय, परमपावन, अद्भुत, मंगलमय रासविहारात्मक थी । सुनते-सुनते दोनों भाइयों के मंगल श्रीअंग में अद्भुत प्रेम-विकार के लक्षण दिखायी देने लगे । क्रमशः दोनों ही प्रेमानन्द में विह्वल हो गये । अविश्रान्त प्रेमाश्रु की मन्दाकिनी-धारा प्रवाहित होकर दोनों के गण्डस्थल एवं वक्षःस्थल को प्लावित करने लगी ।

यह देखकर श्रीमती सुभद्रादेवी भी एक अनिर्वचनीय महाभावावस्था को प्राप्त हो गयीं । जिस समय माताजी स्वामिनी श्रीवृन्दावनेश्वरी की अद्भुत प्रेमवैचित्त्यावस्था का वर्णन करने लगीं, उस समय श्रीबलरामजी किसी प्रकार भी धैर्य धारण न कर सके । उनके धैर्य का बाँध टूट गया, श्रीअंग में इस प्रकार महाभाव का प्रकाश हुआ कि उनके श्रीहस्तपद संकुचित होने लगे और जब माताजी निभृत निगूढ़ विलास-वर्णन करने लगीं तब तो श्रीकृष्णचन्द्र की भी यही अवस्था हुई । दोनों भाइयों की यह अद्भुत अवस्था देखकर श्रीमती सुभद्रादेवी की भी यही अवस्था हुई । तीनों ही मंगल-स्वरूप महाभाव-स्वरूपिणी स्वामिनी श्रीवृन्दावनेश्वरी के अपार महाभावसिन्धु में निमज्जित होकर ऐसी स्वसंवेद्यावस्था को प्राप्त हो गये कि वे लोगों के देखने में निश्चल स्थावर प्रतिमूर्ति-स्वरूप परिलक्षित होने लगे । निश्चल, निर्वाक्, स्पन्दरहित महाभावावस्था ! अतिशय मनोऽभिनिवेशपूर्वक दर्शन करने पर भी श्रीहस्तपदावयव किंचित् भी परिलक्षित नहीं होते थे । आयुधराज श्रीसुदर्शन ने भी विगलित होकर लम्बिताकार धारण कर लिया ।
om, ॐ
इसी समय स्वच्छन्दगति देवर्षि नारदजी भगवद्दर्शन के अभिप्राय से श्रीधाम द्वारका में आ उपस्थित हुए । उन्होंने राजसभा में जाकर सुना कि राम-कृष्ण दोनों भाई अन्तःपुर पधारे हैं । देवर्षि की सर्वत्र अबाध गति तो है ही; अन्तःपुर के द्वार पर जाकर उन्हें जो अद्भुत दर्शन हुए, उससे देवर्षि स्तम्भित हो गये । इस प्रकार का दर्शन उन्होंने पूर्व में कभी नहीं किया था । निज प्राणनाथ की ऐसी अद्भुत अवस्था के कारण का विचार करते हुए प्रेमविवश स्तम्भ-भाव को प्राप्त होकर देवर्षि भी वहीं चुपचाप खड़े रह गये । कुछ ही क्षण पश्चात् जब माताजी ने पुनर्वार किसी एक रसान्तर का प्रसंग उठाया, तब उन सबको पूर्ववत् स्वास्थ्य-लाभ हुआ । सिद्धान्ततः रसान्तर द्वारा रसापत्ति का विदूरित होना संगत ही है । इसी अवसर पर महाभावविस्मित देवर्षि नारदजी ने बहुविध स्तव-स्तुति करना आरम्भ कर दिया ।

करुणावरुणालय श्रीभगवान् कृष्णचन्द्र ने देवर्षि द्वारा स्तुत होकर प्रसन्नतापूर्वक कहा — ‘देवर्षे ! आज बड़े ही आनन्द का अवसर है । कहिये, मैं आपका क्या प्रीति-सम्पादन करूँ ?’ देवर्षि ने कर जोड़ प्रार्थना की — ‘प्रभो! वर्तमान में यहाँ पर उपस्थित होकर आप सबका जो एक अदृष्टाश्रुतपूर्व महाभावावेश परिलक्षित हुआ है, स्वरूपतः वह क्या पदार्थ है और किस प्रकार उस महावस्था का प्राकट्य हुआ ? कृपया सविशेष उल्लेख करके दास को कृतार्थ कीजिये । सर्वप्रथम तो सेवामें यही एकान्त निवेदन है ।’

भक्तवत्सल श्रीभगवान् अमन्दहास्यचन्द्रिकापरि-शोभित सुन्दर श्रीवदन-चन्द्रमा से देवर्षि नारदजी के सर्वात्मा को आप्यायित करते हुए इस प्रकार वचनामृतवर्षण करने लगे — ‘देवर्षे! प्रातः तथा मध्याह्नकृत्य — समापनपूर्वक जिस समय हम दोनों भाई राजसभा में समासीन थे, उसी समय महिषीगण के द्वारा पूछे जाने पर माता रोहिणीदेवी ने महाचित्ताकर्षिणी अपार माधुर्यमयी व्रज-लीला-कथा की अवतारणा की । महामाधुर्यशिखरिणी व्रजलीलावार्ता का ऐसा प्रभाव है कि हम जहाँ और जिस अवस्था में भी हों, हमें वहीं से और उसी अवस्था में आकर्षण करके वह कथास्थल पर खींच लाता है । हम दोनों भाई उसी तरह आकर्षित होकर यहाँ उपस्थित हुए और देखा कि सुभद्रा द्वारपालिका रूप में द्वार पर खड़ी हैं । उत्कण्ठावश अन्तःप्रवेशकाम हम दोनों श्रीसुभद्रा द्वारा रोके जाने पर प्रवेश निषेध का कारण ढूँढ़ते रहे, उसी समय श्रीमाताजी के मुखारविन्दविगलित अत्यद्भुत व्रजलीलामाधुरी ने कर्णगत होकर हमारे हृदय विगलित कर दिये । तत्पश्चात् जो अवस्था हुई, उसका तो आपने प्रत्यक्ष दर्शन किया ही है ।

मेरी प्राणेश्वरी महाभावरूपिणी श्रीराधा के महाभावकर्तृक सम्पूर्ण भाव से ग्रस्त होने के कारण हम आपका पधारना भी नहीं जान सके ।’ इतना कहकर भगवान् ने जब देवर्षि से पुन: वरग्रहण का अनुरोध किया, तब देवर्षि प्रार्थना करने लगे — “भगवन् ! मैं और किसी वर का प्रार्थी नहीं हूँ, निजजनों के सर्वाभीष्टप्रदाता चरणयुगल में केवल यही प्रार्थना है कि आप चारों की जिस अत्यद्भुत महाभावावेशमूर्ति का मैंने प्रत्यक्ष दर्शन किया है, वे ही भुवनमंगल चारों स्वरूप जनसाधारण के नयनगोचरीभूत होकर सर्वदा इस पृथिवीतल पर विराजमान रहें । माया-संनिपात में ग्रस्त जीवसमूह एवं प्रभु-दर्शनविरहकातर भक्तजन के लिये वह महासंजीवन-रसायन स्वरूपचतुष्टय सर्वोत्कर्षसहित जययुक्त हो ।’ करुणायतन भक्तवांछा-पूर्णकारी श्रीभगवान् ने कहा — ‘देवर्षे ! इस विषय में मैं पूर्व से ही अपने दो और भक्तों के प्रति भी आपके प्रार्थनानुरूप ही वचनबद्ध हूँ एक भक्तचूडामणि महाराज इन्द्रद्युम्न और द्वितीय परमभक्तिस्वरूपिणी श्रीविमलादेवी ।

निखिलप्राणि-कल्याणहित भक्तचूडामणि महाराज इन्द्र-द्युम्न की घोरतर तपस्या से प्रसन्न होकर मैं नीलाचल क्षेत्र में दारुब्रह्मस्वरूप में अवतीर्ण होकर जनसाधारण को दर्शन देने का वर प्रदान कर चुका हूँ तथा महाविद्या-स्वरूपिणी श्रीविमलादेवी द्वारा अनुष्ठित महातपस्या से प्रसन्न होकर उनकी प्राणिमात्र को बिना विचार किये महाप्रसाद वितरण करने की प्रतिज्ञा को उक्त स्वरूप से ही पूर्ण करने की स्वीकृति दे चुका हूँ । अतएव इन तीनों उद्देश्यों की पूर्ति के लिये हम चारों इसी स्वरूप में आगामी कलियुग में लवण — समुद्रतटवर्ती नीलाचल-क्षेत्र में अवतीर्ण होकर प्रकाशमान रहेंगे ।’ सर्वजीव-कल्याणव्रत देवर्षि श्रीनारदजी ने मनोवांछित वर प्राप्त कर प्रभुचरणारविन्द में भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और मधुर वीणा से करुणावारिधि श्रीप्रभु के अमृतमय नाम-गुणों की माधुरी का गान करते-करते यदृच्छागमन किया । श्रीराम-कृष्ण ने भी माताजी के कथंचित् संकोच की आशंका करके उस स्थान से प्रस्थान किया ।

ये ही मूर्तिचतुष्टय श्रीजगन्नाथजी (श्रीकृष्ण), श्रीबलभद्रजी (श्रीबलराम), श्रीसुभद्राजी एवं सुदर्शनरूप से श्रीनीलाचल-क्षेत्र को विभूषित करके अद्यापि विराजमान हैं ।

 

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