भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ३०
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — द्वितीय भाग)
अध्याय – ३०
पितृशर्मा और उनके वंशज — व्याडि, पाणिनि और वररुचि आदि की कथा

ऋषियों ने कहा — भगवन ! तीनों दुःखों के विनाश करनेवाले व्रतों में सर्वश्रेष्ठ सत्यनारायण व्रत को हमलोगों ने सुना, अब आपसे हमलोग ब्रह्मचर्य का महत्त्व सुनना चाहते है ।

सूतजी बोले — ऋषियों ! कलियुग में पितृशर्मा नाम का एक श्रेष्ठ ब्राह्मण था । वह वेद-वेदाङ्गों के तत्त्वों को जाननेवाला था और पापकर्मों से डरता रहता था । कलियुग के भयंकर समय को देखकर वह बहुत चिन्तित हुआ । उसने सोचा कि किस आश्रम के द्वारा मेरा कल्याण होगा, क्योंकि कलिकाल में संन्यास-मार्ग दम्भ और पाखंण्ड के द्वारा खण्डित हो गया है, वानप्रस्थ तो समाप्त-सा ही है, बस, कहीं-कहीं ब्रह्मचर्य रह गया है, किन्तु गार्हस्थ-जीवन का कर्म सभी कर्मों में श्रेष्ठ माना गया है । om, ॐअतः इस घोर कलियुग में मुझे गृहस्थ-धर्म का पालन करने के लिये विवाह करना चाहिये । यदि भाग्य से अपनी मनोवृत्ति के अनुसार आचरण करनेवाली स्त्री मिल जाती है, तब मेरा जन्म सफल एवं कल्याणकारी हो जायगा । इस प्रकार विचार करते हुए पितृशर्मा ने उत्तम पत्नी प्राप्त करने के लिये विश्वेश्वरी जगन्माता भगवती की चन्दन आदि से पूजाकर स्तुति प्रारम्भ की —

“नमः प्रकृत्यै सर्वायै कैवल्यायै नमो नमः ।
त्रिगुणैक्यस्वरुपायै तुरियायै नमो नमः ॥
महत्तत्त्वजनन्यै च द्वन्दकत्र्यै नमो नमः ।
ब्रह्ममातर्नम्स्तुभ्यं साहं कारपितामहि ॥
पृथग्गुणायै शुद्धायै नमो मातर्नमो नमः ।
विद्यायै शुद्धसत्त्वायै लक्ष्म्यै सत्त्वरजोमयि ॥
नमो मातरविद्यायै ततः शुद्ध्यै नमो नम: ।
काल्यै सत्त्वतमोभूत्यै नमो मातर्नमो नमः ॥
स्त्रियै शुद्धरजोमूर्त्यै नमस्त्रैलोक्यवासिनि ।
नमो रजस्तमोमुर्त्यै दुर्गायै च नमो नमः ॥”

(प्रतिसर्गपर्व २ । ३० । १०-१४)
‘सर्वरूपप्रकृति को नमस्कार है, उस केवल स्वरूप को नमस्कार है, तीनों गुणों की एक मूति तथा तुरीय (चौथे) स्वरूप को बार-बार नमस्कार है, महत्तत्व को जन्म देने वाली को नमस्कार है, जो सुखदुःखादि की प्रदान करती रहती है, ब्रह्ममातः ! तथा अहंकार समेत पितामहि ! तुम्हें नमस्कार है, मातः ! तुम्हारे निर्गुण एवं शुद्धस्वरूप को नमस्कार है, सत्वरजोगुणात्मके ! विद्या, शुद्धसत्व, एवं पितामही को नमरकार है, मातः ! अविद्या तथा उससे शुद्ध रूप को बार-बार नमस्कार है, मातः ! सत्व तथा तमोगुण वाली काली को बार-बार नमस्कार है, शुद्धरज वाली स्त्री स्वरूप और त्रैलोक्य निवासिनी को नमस्कार है, रज तथा तमोमूत दुर्गा जी को बार-बार नमस्कार है ।’

पितृशर्मा की स्तुति सुनकर देवी प्रसन्न हो गयी और उन्होंने कहा — ‘हे द्विजश्रेष्ठ ! मैंने तुम्हारी स्त्री के रूप में विष्णुयशा नामक ब्राह्मण की कन्या को निर्दिष्ट किया है ।’ तदनन्तर पितृशर्मा उस देवी ब्रह्मचारिणी से विवाह करके मथुरा में निवास करते हुए गृहस्थ-धर्मानुसार जीवन-यापन करने लगा । ऋतुकालीन (मासिक धर्म) स्नान के अनन्तर वह ब्राह्मण उसमें ऋतुदान करने लगा जिससे कुछ दिनों में उनके चार पुत्र उत्पन्न हुए । जो चारों ऋग्, यजु, सास और अथर्ववेद के निष्णात् विद्वान् थे। उनमें ऋगवेद के व्याडि (व्याधि) नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो न्यायशास्त्र में निपुण था। यजुर्वेदी के लोक प्रख्यात मीमांसा नामक पुत्र हुआ, सामवेदी के शब्द-शास्त्र (व्याकरण) का पारगामी विद्वान् पाणिनि नामक हुआ और अथर्ववेदी के वररुचि नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो राजप्रिय एवं श्रेष्ठ था ।

एक समय ये चारों पितृशर्मा के साथ मगध देश के अधिपति राजा चन्द्रगुप्त की सभा में गये । अतिशय सम्मानपूर्वक राजा ने उन लोगों का पूजनकर पूछा — ‘द्विजगण ! कौन-सा ब्रह्मचर्यव्रत श्रेष्ठ हैं ? ‘ इसपर व्याडि ने कहा — ‘महाराज ! जो व्यक्ति उस परम पुरुषदेव की न्यायपूर्वक आराधना में तत्पर रहता है, वह श्रेष्ठ ब्रह्मचारी है ।’ मीमांसा ने कहा — ‘राजन ! जो श्रेष्ठ व्यक्ति यज्ञ में ब्रह्मा आदि देवताओं का यजन करता है और रोचना आदि से उनका अर्चन एवं तर्पण आदि करता है तथा भगवान् के प्रसाद को ग्रहण करता है, वह ब्रह्मचारी है ।’ यह सुनकर पाणिनि ने कहा — ‘राजन ! उदात्त, अनुदात्त और स्वरित स्वरों से या परा, पश्यन्ती, मध्यमा वाणी से शब्दब्रह्म का आराधक तथा लिंग, धातु एवं गणों से समन्वित सुत्र-पाठों से शब्दब्रह्म की आराधना करनेवाला सच्चा ब्रह्मचारी है और वही ब्रह्म को प्राप्त करता है ।’ यह सुनकर वररुचि ने कहा – ‘हे मगधाधिपते ! जो व्यक्ति उपनीत होकर गुरुकुल में निवास करता हुआ दंड, केश और नखधारी भिक्षार्थी वेदाध्ययन में तत्पर रहते हुए गुरु की आज्ञा के अनुसार गुरु के गृह में निवास करता है, वह ब्रह्मचारी कहा गया है ।’

इनके वचनों को सुनकर पितृशर्मा ने कहा कि ‘जो गृहस्थधर्म में रहता हुआ पितरों, देवताओं और अतिथियों का सम्मान करता है और इन्द्रिय-संयमपूर्वक ऋतुकाल में ही भार्या का उपगमन करता है, वही मुख्य ब्रह्मचारी है ।’ यह सुनकर राजा ने कहा – ‘स्वामिन ! कलिकाल के लिये आपका ही कथन उचित, सुगम और उत्तम धर्म है, यही मेरा भी मत है ।’
यह कहकर वह राजा पितृशर्मा का शिष्य हो गया और उसने अन्तमें स्वर्गलोक को प्राप्त किया । पितृशर्मा भी भगवान् श्रीहरि का ध्यान करते हुए हिमालय पर्वत पर जाकर योगध्यान परायण हो गया ।
(अध्याय ३०)

See Also :-

1.  भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६
2. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १९ से २१
3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १९ से २१

4. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व तृतीय – अध्याय २०
5. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व प्रथम – अध्याय ७
6. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १
7. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २
8. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ३
9. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ४
10. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ५
11. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ६
12. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ७
13. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ८
14. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ९
15. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १०
16. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ११
17. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १२
18. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १३
19. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १४
20. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १५
21. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १६
22. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १७
23. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १८
24. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १९
25. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २०
26. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २१
27. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २२
28. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २३
29. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २४
30. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २५
31. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २६
32. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २७
33. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २८
34. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २९

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