भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १३०
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – १३०
मन्दिर—निर्माण—योग्य भूमि एवं मन्दिर में प्रतिमाओं के स्थानका निरूपण

राजा शतानीक ने पूछा — मुने ! साम्ब ने भगवान् सूर्य की प्रतिमा की प्रतिष्ठा किस प्रकार की ? किसके कथनानुसार उन्होंने भगवान् आदित्य के प्रासाद का निर्माण कराया ।om, ॐसुमन्तु मुनि बोले — चन्द्रभागा नदी से प्रतिमा प्राप्त करने के बाद साम्ब ने देवर्षि नारद का स्मरण किया । स्मरण करते ही वे वहाँ उपस्थित हो गये । साम्ब ने विधिवत् उनका पूजन-सत्कार आदि करके उनसे पूछा— ‘महाराज ! भगवान् के मन्दिर को जो बनवाता है तथा प्रतिमा की जो प्रतिष्ठा करता है, उन दोनों का क्या फल है ?’

नारदजी ने कहा— नरशार्दूल ! जो रमणीय स्थानों में सूर्य-मन्दिर का निर्माण कराता है, वह व्यक्ति सूर्यलोक में जाता है, इसमें संदेह नहीं ।

साम्ब ने पूछा — सूर्य-मन्दिर का निर्माण किस प्रकार तथा किस स्थान पर कराना चाहिये ? आप इसे बतायें ।
नारद बोले — जहाँ जलराशि निरन्तर विद्यमान रहे, वहाँ मन्दिर बनवाना चाहिये अर्थात् सर्वप्रथम एक विशाल जलाशय का निर्माण कराना चाहिये । यश और धर्म की अभिवृद्धि के लिये वहीं देवमन्दिर का निर्माण कराना चाहिये । उसके समीप उद्यान एवं पुष्पवाटिका भी लगवाने चाहिये । ब्राह्मण आदि वर्णों के लिये जैसी भूमि वास्तुशास्त्र की दृष्टि से प्रासाद-निर्माण के लिये वर्णित है, वैसी ही भूमि देवप्रासाद के लिये भी प्रशस्त मानी गयी है ।
सूर्यनारायण का मन्दिर पूर्वाभिमुख बनवाना चाहिये, पूर्व की ओर द्वार रखने का स्थान न हो तो पश्चिमाभिमुख बनवाये । परंतु मुख्य पूर्वाभिमुख ही है । स्थान की इस प्रकार कल्पना करे कि मुख्य मन्दिर से दक्षिण की ओर भगवान् सूर्य का स्नान-गृह और उत्तर की ओर यज्ञशाला रहे । भगवान् शिव और मातृका का मन्दिर उत्तराभिमुख, ब्रह्मा का पश्चिम और विष्णु का उत्तर-मुख बनवाना चाहिये । भगवान् सूर्य के दाहिने पार्श्व में निभा तथा बायें पार्श्व में राज्ञी को स्थापित करना चाहिये । सूर्यनारायण के दक्षिणभाग में पिङ्गल, वामभाग में दण्डनायक, सम्मुख श्री और महाश्वेता की स्थापना करनी चाहिये । देवगृह के बाहर अश्विनीकुमारों का स्थान बनाना चाहिये । मन्दिर के दूसरे कक्ष में राज्ञ और श्रौष, तीसरे कक्ष में कल्माष और पक्षी, दक्षिण में दण्ड और माठर, उत्तर में लोकपूजित कुबेर को स्थापित करना चाहिये । कुबेर से उत्तर रेवन्त एवं विनायक की स्थापना करनी चाहिये या जिस दिशा में उत्तम स्थान हो वहीं पर उनकी स्थापना करे । दाहिनी एवं बायीं ओर अर्घ्य प्रदान करने के लिये दो मण्डल बनवाये । उदय के समय दक्षिण मण्डल में और अस्त के समय वाम मण्डल में भगवान् को अर्घ्य दे । चक्राकार पीठ के ऊपर स्नानगृह में चार कलशों से भगवान् सूर्य की प्रतिमा को सविधि स्नान कराये । स्नान के समय शङ्ख आदि मङ्गल वाद्य बजाने चाहिये । तीसरे मण्डल में सूर्यनारायण की पूजा करे । सूर्यनारायण के सामने दिण्डी की स्थानक (खड़ी हुई) प्रतिमा स्थापित करनी चाहिये । सूर्यनारायण के सम्मुख समीप में ही सर्वदेवमय व्योम की रचना करनी चाहिये । मध्याह्न के समय वहाँ सूर्य को अर्घ्य देना चाहिये अथवा मध्याह्न में अर्घ्य देने के लिये चन्द्र नामक तृतीय मण्डल बनाये । प्रथम स्नान कराकर बाद में अर्घ्य दे । भगवान् सूर्य के समीप ही उचित स्थान पर पुराणका पाठ करने के लिये स्थान बनाना चाहिये । यह देवताओं के स्थापन का विधान है । गृहराज और सर्वतोभद्र — ये दो प्रासाद सूर्यनारायण को अतिशय प्रिय हैं ।
(अध्याय १३०)

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