श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-030
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
तीसवाँ अध्याय
विष्णुभक्त राजा बलि का आख्यान, बलि के द्वारा सौवाँ अश्वमेधयज्ञ करने पर इन्द्र का चिन्तित होना तथा भगवान् विष्णु को अपनी चिन्ता निवेदित करना, भगवान् विष्णु द्वारा अदिति के गर्भ से वामनरूप में प्रकट होना
अथः त्रिंशोऽध्यायः
बालचरिते वामनावतारकथनं

ब्रह्माजी बोले — बलि भगवान् विष्णु का भक्त था, अतः उसे पिता विरोचन की मृत्यु पर कुछ भी सन्ताप नहीं हुआ। बलि वेद तथा वेदांगों का ज्ञाता, प्रतिभासम्पन्न तथा सभी शास्त्रों में पारंगत था । वह परायी निन्दा, पराये द्रव्य तथा परद्रोह से सर्वथा पराङ्मुख था। वह दानी, यज्ञ करने वाला तथा माननीय जनों का बड़े ही आदर के साथ सम्मान करनेवाला था ॥ १-२ ॥ वह चलते हुए, बोलते हुए, सोते हुए, भोजन करते हुए, बैठते हुए, जप करते हुए तथा पीते हुए — इस प्रकार सभी समयों में अनन्य मन से नित्य ही भगवान् विष्णु का ध्यान किया करता था ॥ ३ ॥

एक बार बलि ने शुक्राचार्यजी को बुलाकर यथाविधि उनकी पूजा करके उनसे नीति-सम्बन्धी यह प्रश्न पूछा कि हे प्राज्ञ! इन्द्र अमरावती का सुख-भोग करते हैं। फिर क्यों नहीं अमरावती के राज्य में हमारा भाग है, जबकि इन्द्र आदि के साथ हमारा निरन्तर भाईचारा है ? मेरे इस संशय का निवारण करने में आप पूर्णरूप से समर्थ हैं ॥ ४-५ ॥

शुक्राचार्य बोले — हे महाभाग ! तुम्हारे पूर्वजों ने इसी कारण निरन्तर देवताओं से वैर किया था। देवताओं ने भगवान् विष्णु की सहायता लेकर नाना प्रकार की माया का आश्रय ग्रहणकर उन सभी का वध कर दिया था । अतः तुम वैरभाव छोड़कर भलीभाँति सौ अश्वमेध यज्ञों को सम्पन्न करो। उस पुण्यबल के प्रभाव से तुम निश्चित ही पूर्ण ऐन्द्रपद को प्राप्त कर लोगे ॥ ६–७१/२

बलि बोला — हे ब्रह्मन् ! आप नीतिशास्त्र में अत्यन्त कुशल हैं। आपने अच्छी बात बतायी है। साम, दान तथा भेदनीति को छोड़कर चौथी नीति निग्रह ( दण्ड- युद्ध ) – को निकृष्ट माना गया है। चौथा वह उपाय दण्डनीति भी पुण्य के प्रभाव से ही सफल हो पाता है, अतः [उसमें भी] पुण्य को ही प्रबल माना गया है ॥ ८-९ ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार का निश्चय करके राजा बलि ने वसिष्ठ आदि महर्षियों को बुलाया और भृगु आदि उन सभी मुनियों की पूजा करके उसने बहुत प्रकार की सामग्रियों से सम्पन्न होने वाले तथा सभी को आनन्द प्रदान करने वाले श्रेष्ठ अश्वमेधयज्ञ का प्रारम्भ किया। उन सभी ऋषि-मुनियों ने [शास्त्रीय रीति से] पूर्व दिशा का निर्धारण करके यज्ञकुण्डों का निर्माण किया। सामग्रियों का संचयन करवाया और भूमि का शोधन करके वेदी तथा मण्डप आदि का निर्माण कराया ॥ १०-१२ ॥ उन सभी ब्राह्मणों ने स्वस्तिवाचन करके आभ्युदयिक श्राद्ध (नान्दीश्राद्ध) तथा मातृकापूजन करने के अनन्तर विविध प्रकार के तत्तद् मन्त्रों के द्वारा बड़े ही आदरभावपूर्वक सभी मण्डप-देवताओं का स्थापन किया ॥ १३१/२

उस यज्ञमण्डप में राजा बलि और उनकी धर्मपत्नी — दोनों दम्पती श्वेत वस्त्रों से विभूषित एवं [ अलंकारादि से ] अलंकृत होकर सुशोभित हो रहे थे। सभी मन्त्रीगण, राजपरिवार के मित्रगण तथा पुरवासी जनों से वे घिरे हुए थे। नगर की सम्मानित स्त्रियाँ झरोखों से देख रही थीं ॥ १४-१५ ॥ उस महोत्सव को यज्ञ के लिये वरण किये गये ब्रह्मा (यज्ञ की रक्षा के लिये कुण्ड के दक्षिण दिशा में स्थित रहने वाले ब्राह्मण आचार्य)-द्वारा अन्वारब्ध किये गये अर्थात् कुश से स्पर्श किये जाते हुए उन ब्राह्मणों ने यज्ञ का पूर्वांग कर्म अर्थात् पंचांग-पूजन आदि सम्पन्न किया । तदनन्तर उन्होंने वेद-कल्पों के वचनों के अनुसार यज्ञीय पशु का आलभन किया ॥ १६ ॥

तदनन्तर उन्होंने उन-उन देवताओं के निमित्त उनके मन्त्रों का उच्चारण करते हुए विधिपूर्वक आहुतियाँ प्रदान कीं । चार द्वारों वाले उस यज्ञमण्डप के परिसर के मार्ग में तीनों वर्णों के सभी लोग सम्मानित होकर बिना रोक- टोक के आवागमन कर रहे थे । वहाँ एक ओर विद्वज्जनों का विवादपूर्वक शास्त्रार्थ चल रहा था ॥ १७-१८ ॥ कहीं अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं और कहीं वैदिक जन वेदमन्त्रों का पाठ कर रहे थे। कहीं पर शैव तथा वैष्णव भक्त मृदंग तथा ताल-वादन के साथ गीतों का गान कर रहे थे। कहीं पर ब्राह्मणजन अपनी इच्छा के अनुसार छः रसों से युक्त व्यंजनों का सेवन कर रहे थे और नाना प्रकार की कथाओं को कह रहे थे। जिसे सुनकर श्रोतागण अत्यन्त आनन्दित हो रहे थे ॥ १९-२० ॥

इस प्रकार से उस यज्ञ के सम्पादित हो जाने पर वसिष्ठ आदि महर्षियों ने अग्नियों में घृत की विशाल धारा (वसोर्धारा) डाली। तदनन्तर उत्तरांग कर्मों के समापन के पश्चात् उन दोनों दम्पती (बलि तथा उनकी पत्नी) – को रथ में विराजमानकर अवभृथ स्नान (यज्ञान्त में किया जाने वाला स्नान) कराने के लिये सभी लोग साथ में गये । उस समय नाना प्रकार के वाद्यों की ध्वनि हो रही थी । श्रेष्ठ बन्दीजनों द्वारा स्तुतिगान हो रहा था । बहुत प्रकार से वेदध्वनियों का उच्चारण हो रहा था तथा भगवान्‌ को प्रिय लगने वाले सामों का गायन हो रहा था ॥ २१-२३ ॥

स्नान करने के अनन्तर वापस आकर राजा बलि ने भगवान् विष्णु का पूजन किया तथा उन वसिष्ठ आदि महर्षियों को अनेक प्रका रके रत्नसमुदाय, सम्पत्तियाँ, अनेक वस्त्र, गौएँ, घोड़े, हाथी, विविध प्रकार के सुगन्धित पदार्थ और इच्छापूर्ति करने वाली वस्तुएँ प्रदानकर सन्तुष्ट किया । इस प्रकार से उन ब्राह्मणों ने राजा बलि के निन्यानबे यज्ञ पूर्ण किये ॥ २४-२५ ॥ सौवाँ यज्ञ प्रारम्भ होने पर देवराज इन्द्र अत्यन्त चिन्तित हो उठे । अपना इन्द्रपद छीने जाने की आशंका से वे इन्द्र क्षीरसागर के मध्य विराजमान रहने वाले अपने कनिष्ठ भ्राता (उपेन्द्र विष्णु) शेषशायी भगवान् विष्णु की शरण में गये। उस समय उन विष्णु के चरणों की मैं ब्रह्मा स्वयं सेवा कर रहा था। वे देवताओं द्वारा सेवित हो रहे थे । वीणा हाथ में धारण करके देवर्षि नारद तुम्बुरु आदि अन्य प्रमुख गन्धर्वों, अप्सरासमूहों तथा किन्नरगणोंसहित बड़े ही आदरपूर्वक उनका गुणगान कर रहे थे ॥ २६-२८ ॥ ऐसे उन भगवान् विष्णु का दर्शनकर इन्द्र ने दोनों हाथ जोड़कर अपने अभीप्सित कार्य की सिद्धि के लिये बड़े ही आदरभाव से उनकी स्तुति की ॥ २९ ॥

इन्द्र बोले — हे अनन्तशक्ति! आपको नमस्कार है। विश्व योनिस्वरूप आपको नमस्कार है । विश्व का भरण-पोषण करने वाले को नमस्कार है । विश्व की सृष्टि करने वाले को नमस्कार है, हे दैत्यों के विनाशक ! आपको नमस्कार है। अनेक स्वरूपों वाले आपको नमस्कार है । भक्तों के मनोभिलषित पदार्थों को उन्हें प्रदान करने वाले को नित्य नमस्कार है ॥ ३० ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार से स्तुति करने के अनन्तर देवराज इन्द्र ने बलि के द्वारा किये जा रहे सौवें अश्वमेध यज्ञ के प्रयत्न के विषय में बताते हुए कहा — विरोचन का पुत्र बलि तीनों लोकों में विख्यात है ॥ ३१ ॥ वह सौवाँ अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न कर लेने के अनन्तर मेरे इन्द्रपद को ले लेगा। जब वे इतना कह ही पाये थे कि भगवान् विष्णु ने सब कुछ जान लिया ॥ ३२ ॥

तदनन्तर भगवान् विष्णु ने इन्द्र के कष्ट के विषय में चिन्ता करते हुए उनसे कहा — हे इन्द्र ! राजा बलि मेरा भक्त है। वह तपस्वी है तथा उसने अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है। वेदवचनों के अनुसार उसे तपस्या के शुभ फल को प्राप्त करना चाहिये । शुभ या अशुभ जो भी कर्म किया जाता है, वह निष्फल नहीं होता ॥ ३३-३४ ॥ हे इन्द्र ! तुम अपना चित्त स्थिर करो। मैं तुम्हारा कार्य अवश्य सिद्ध करूँगा । तदनन्तर वे प्रभु देवी अदिति के गर्भमें आये । देवी अदिति ने नौवें मास में शुभ पुत्र को जन्म दिया। उस शिशु की प्रभा से दीपक निष्प्रभ हो गये ॥ ३५-३६ ॥ प्रसवगृह के वे बुद्धिमान् कश्यपजी ने शीघ्र ही शीतल जल से स्नान करने के अनन्तर स्वस्तिवाचनपूर्वक उस बालक का यथाविधि जातकर्म-संस्कार किया । तदनन्तर मातृपूजन करने के अनन्तर नान्दीमुख श्राद्ध करके बालक को घृत तथा मधु का प्राशन कराकर उसको देखा ॥ ३७-३८ ॥

उस बालक को ह्रस्व किंतु प्रशस्त मस्तकवाला, छोटे पैर, विशाल शरीरयुक्त एवं दिव्य ज्ञान से समन्वित, दिव्य देहवाला, चार भुजाओं वाला तथा विविध प्रका रके अलंकरणों से समन्वित देखकर कश्यपजी ने उसे साक्षात् विष्णु समझकर उसको प्रणाम किया और आनन्दित होकर कहा — आज मेरा तप, मेरा वंश, मेरे नेत्र, मेरा ज्ञान तथा मेरा यह आश्रम धन्य हो गया है। आप सच्चिदानन्द- स्वरूप का दर्शनकर आज यह धरती, स्वर्ग और रसातल भी धन्य हो गया है ॥ ३९-४१ ॥

ब्रह्माजी बोले —  महर्षि कश्यप के इस प्रकार के वचनों को सुनकर वे जगदीश्वर बोले — माता अदिति की तपस्या से प्रसन्न होकर पृथ्वी के महान् भार का हरण करने के लिये तथा बड़े भ्राता देवराज इन्द्र के कार्य को सफल बना नेके लिये मैं आपके यहाँ पुत्ररूप में प्रकट हुआ हूँ। ऐसा कहकर वे सामान्य बालक बनकर रोने लगे और उन्होंने माता के स्तनों का पान किया ॥ ४२-४३ ॥ तदनन्तर कश्यपमुनि ने उस बालक का नामकरण, निष्क्रमण तथा अन्नप्राशन- संस्कार किया । तदुपरान्त तीसरे वर्ष में चूडाकरण और पाँचवें वर्ष में यज्ञोपवीत- संस्कार सम्पन्न किया ॥ ४४ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘वामनावतार – वर्णन’ नामक तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३० ॥

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