॥ अथ त्र्यक्षरी मृत्युञ्जय मंत्र विविध प्रयोगः ॥

बहुधा मृत्युञ्जय प्रयोग रोग-पीड़ा निवारण में ही करते हैं । ग्रहपीड़ा शमन में भी शुभ है । शिव प्रतिमा व शिवलिङ्ग पर अलग-अलग कामना के लिये अलग-अलग अभिषेक द्रव्य हैं । अभिचार व प्रेतादि दोष में सरसों के तेल का अभिषेक, उष्णज्वर, टाईफाईड में दही की छाछ से, लक्ष्मी प्राप्ति हेतु गन्ने का रस, पुष्टि के लिए आम्ररस, ब्लडप्रेशर में मौसमी-संतरा, हृदय पीड़ा में दूर्वा रस के साथ फलों का रस, सर्वशांति हेतु बैल के श्रृंग द्वारा या ताम्र, रजत के श्रृंग द्वारा कामना द्रव्यों से अभिषेक करें । यंत्रार्चन में अधिकांशतः चतुर्लिंगतोभद्र मण्डल या द्वादशलिङ्गतोभद्र मण्डल बनाते है । यंत्र का प्रचलन कम है ।
मृत्युञ्जय यन्त्र के अर्चन से पूजा अधिक फलदायी है ।

एकाक्षर मन्त्र – ‘‘हौं” ।
त्र्यक्षरी मन्त्र – “ॐ जूं सः” । इति मन्त्र ।
अन्य ऋषिमत से – “हौं जूं सः”। (मन्त्र महोदधि एवं शारदा-तिलक)
चतुरक्षरी मृत्युञ्जय मंत्र – यथा ॐ हौं जूं सः
चतुरक्षरी अमृतमृत्युञ्जय मन्त्रः यथा – ॐ वं जूं सः । इनके ऋष्यादि पूर्ववत् त्र्यक्षरी मन्त्र के समान है ।

विनियोगः – ॐ अस्य श्रीत्र्यक्षरात्मक मृत्युञ्जय मंत्रस्य कहोल ऋषिः । देवी गायत्री छन्दः । श्रीमृत्युञ्जय देवता जूं बीजं, सः शक्तिः ॐ कीलकम् । सर्वेष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।

ऋषिन्यासः :- कहोलऋषये नमः शिरसि । देवी गायत्रीछन्दसे नमः मुखेः । मृत्युञ्जयदेवतायै नमः हृदि । जूं बीजाय नमः गुह्ये । सः शक्तये नमः पादयोः । सर्वेष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।

करन्यासः :- सां अंगुष्ठाभ्यां नमः। सीं तर्जनीभ्यां नमः । सूं मध्यमाभ्यां नमः । सैं अनामिकाभ्यां नमः । सौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः । सः करतलपृष्ठाभ्यां नमः ।

हृदयादियादिन्यास :- सां हृदयाय नमः । सीं शिरसे स्वाहा । सूं शिखायै वषट् । सैं नेत्रत्रयाय वौषट् । सौं कवचाय हूँ । सः अस्त्राय फट् ।

इस प्रकार न्यासं करके मृत्युञ्जयं भगवान् का ध्यान करें –

ॐ चन्द्राग्निविलोचनं स्मितमुखं पद्मद्वयान्तः स्थितं
मुद्रापाशामृगाक्षसूत्र विलसत्पाणि हिमांशुप्रभम्
कोटीरेन्दुगलंत्सुधास्नुततनुं हारादिभूषज्ज्वलं
कान्त्याविश्वविमोहनं पशुपतिं मृत्युञ्जयं भावयेत् ॥

जिनके सूर्य, चन्द्र और अग्नि स्वरूप तीन नेत्र हैं, जिनका मुखमण्डल स्मित से युक्त है, जिनके शिरोभाग दो कमलों के मध्य स्थित हैं अर्थात् एक ऊर्ध्वमुख एवं उसके ऊपर विद्यमान दूसरा कमल अधोमुख रूप से विद्यमान है । जिन्होंने अपने हाथों में मुद्रा, पाश, मृग, अक्षमाला धारण किया है, जिनके शरीर की कान्ति चन्द्रमा के समान उज्ज्वल है, जिनका शरीर किरीट में जटित चन्द्र-मण्डल से चूते हुए अमृतकणों से आप्लावित है और हारादि नाना प्रकार के भूषणों से उज्ज्वल है – ऐसे महामृत्युञ्जय पशुपति का ध्यान करना चाहिए जो अपनी कान्ति से विश्व को मोहित कर रहे हैं ॥
ॐ जूं सः, इति मूलमंत्र जपेत् ।


यन्त्रपूजनम्
सर्वतोभद्रमण्डल या लिंगतोभद्रमण्डल में अथवा यंत्र मध्य में षट्कोण बनायें और उसके बाहर भूपुर बनायें ।
“मंडूकादि परतत्त्वान्त पीठ देवताभ्यो नमः” से पूजन करे से पीठ शक्तियों का पूजन करें ।
शक्तयो रुद्रपीठस्थाः सिंदूरारुण विग्रहाः ।
रक्तोत्पलक पालाभ्यामलंकृतकरांबुजा ॥

इति ध्यात्वा ॥
यन्त्र मध्य में पूर्वादिक्रम से वामादि नवपीठ शक्तियों का पूजन करें । यथा – ॐ वामायै नमः, ॐ ज्यैष्ठायै नमः, ॐ काल्यै नमः, ॐ कलविकरिण्यै नमः, ॐ बलविकरिण्यै नमः, ॐ बलप्रमथिन्यै नमः, ॐ सर्वभूतदमन्यै नमः, मध्ये – ॐ मनोन्मन्यै नमः।
इससे पूजा करके स्वर्णादि से निर्मित यन्त्र या मूर्ति को ताम्रपत्र में रखकर घी से उसका अभ्यङ्ग करके उसपर दुग्धधारा और जलधारा डाल कर स्वच्छ वस्त्र से उसे पोछकर —
ॐ नमो भगवते सकलगुणात्मशक्तियुक्ताय अनन्ताय योगपीठात्मने नमः ॥ इस मन्त्र से पुष्पाद्यासन देकर पीठ के मध्य स्थापित करके प्रतिष्ठा करे । पुनः ध्यान करके मूल मन्त्र से मूति की कल्पना करके पाद्यादि-पुष्पान्त उपचारों से पूजा कर के देवता की आज्ञा ले कर आवरण पूजा करे —
संविन्मयः परोदेवः परामृतरसप्रिय ।
अनुज्ञां शिव मे देहि परिवारार्चनाय मे ॥

प्रथमावरणम् — षट्कोण में सां सीं सूं सैं सौं सः इत्यादि जो षडङ्गन्यास करें । उन्हे पहले आग्नेयादि चार कोणों में पश्चात् देवता के अग्र व पृष्ठभाग में हृदयादि न्यास से पूजा करे । यथा – ॐ सां हृदयाय नमः । हृदय श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ॐ सीं शिरसे स्वाहा । शिर श्रीपा० ॥ ॐ हूं शिखायै वषट । शिखा श्रीपा० ॥ ॐ कवचाय हूं । कवच श्रीपा॰ ॥ ॐ सौं नेत्रत्रयाय वौषट । नेत्रत्रय श्रीपा० ॥ ॐ सः अस्त्राय फट् । अस्त्र श्री पा० ॥
इससे षडङ्गों की पूजा करने के बाद पुष्पाञ्जलि लेकर मून मन्त्र का उच्चारण करके —
अभीष्टसिद्धि मे देहि शरणागतवत्सल ।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं प्रथमावरणार्चनम् ॥

यह पढ़कर और पुष्पाञ्जलि देकर विशेषार्घ से जलविन्दु गिरा कर ‘पूजितास्तर्पिताः सन्तु’ यह कहे ।

द्वितीयावरणम् — में इन्द्रादिलोकपालों का – इन्द्राय नमः । इन्द्र श्री पादुकां पूजयामि तर्पयामि । इसी तरह अग्नि, यम, नैऋति, वरुण, वायव्य, कुबेर, ईशान, ब्रह्म एवं अनन्त सभी दिक्पालों का पूजन करें ।
पुष्पाञ्जलि –
ॐ अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल ।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं द्वितीयावरणाचर्नम् ॥

यह पढ़कर और पुष्पाञ्जलि देकर विशेषार्घ से जलविन्दु गिरा कर ‘पूजितास्तर्पिताः सन्तु’ यह कहे ।

तृतीयावरणम् – उनके बाहर उनके आयुधों की तृतीय आवरण की पूजा अर्चन तर्पण कर पुष्पाञ्जलि प्रदान करें ।
ॐ वज्राय नमः। ॐ शक्त्यै नमः। ॐ दण्डाय नमः। ॐ खङ्गाय नमः। ॐ पाशायै नमः। ॐ अङ्कुशाय नमः । ॐ गदायै नमः। ॐ त्रिशूलाय नमः। ॐ पद्माय नमः । ॐ चक्राय नमः।
पुष्पाञ्जलि –
ॐ अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल ।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं तृतीयावरणाचर्नम् ॥

यह पढ़कर और पुष्पाञ्जलि देकर विशेषार्घ से जलविन्दु गिरा कर ‘पूजितास्तर्पिताः सन्तु’ यह कहे ।

इस प्रकार आवरण पूजा करके धूपादि-नमस्कारान्त पूजन करके जप करे । इसका पुरश्चरण तीन लाख जप है । पुरश्चरण का दशांश दूध और घी में भिगो कर अमृता (गिलोय) के टकड़ों से होम और तत्तद्दशांश तर्पण मार्जन और ब्राह्मण भोजन करना चाहिये । ऐसा करने से मन्त्र सिद्ध हो जाता है और सिद्ध मन्त्र से साधक प्रयोगों को सिद्ध करे ।

शारदातिलक में कहा भी गया है कि बुद्धिमान साधक को तीन लाख मन्त्रों का जप और शुद्ध दूध और घी में भिगो कर गिलोय के टुकड़ों से होम करना चाहिये । क्रम से जप पूजा आदि से सिद्ध इस मन्त्र से अभीष्ट सिद्धि के लिये कल्पोक्त प्रयोगों को करे ॥

साधक जितेन्द्रिय होकर विधिवत दूध से सिक्त सेहुँड के टुकड़ों से एक मास तक प्रतिदिन पूजित अग्नि में एक हजार आहुतियाँ दे । इससे सन्तुष्ट शङ्कर सुधाप्लावित शरीरवाले होकर आयु, आरोग्य, सम्पत्ति, यश और पुत्रों की वृद्धि करते हैं ।

सेहुड़ और बरगद, तिल और दूब, दूध और घी, दूध और हवि इन सात द्रव्यों से सात दिन तक हवन करे तथा क्रम से दशांश एक सौ आठ नित्य होम करे और सात से अधिक ब्राह्मणों को नित्य मधुर भोजन कराये । विकर के अनुसार साधक होम के दिनों को बढ़ाये । होताओं को दूध देने वाली लाल गायें दक्षिणा में देवे । गुरु को देवबुद्धि से धन आदि से प्रसन्न करे । इस विधि से देवता को सिद्ध करके द्रोह ज्वर आदि से मुक्त होकर साधक सौ वर्ष तक जीवित रहता है । अभिचार में, तीव्र ज्वर में, घोर उन्माद में, शिर के रोग में, असाध्य रोगों और कम्पन आदि में और भयङ्कर रोग में यह होम’ शान्तिदायक तथा समस्त सम्पत्तिप्रदायक कहा गया है ।

जो इन द्रव्यों से अश्विनी, मघा तथा मूल नक्षत्रों में विधिपूर्वक हवन तथा वेदज्ञ ब्राह्मणों को भोजन कराता है वह दीर्घायु तथा सम्पत्ति प्राप्त हरता है ।

बुद्धिमान साधक नित्य ग्यारह दूवओं से होम करे तो वह अपमृत्यु को जीत कर आयु और आरोग्य की वृद्धि करता है ।

अश्विनी, मघा तथा मूल नक्षत्रों में से सेहुंड, गिलोय, काश्मरी तथा मौलसरी की उत्तम समिधाओं से किया गया होम भारी ज्वर का भी नाशक होता है ।

अपामार्ग की समिधाओं से किया गया होम समस्त रोगों को दूर करनेवाला होता है ।

 

 

 

 

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