अग्निपुराण – अध्याय 075
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
पचहत्तरवाँ अध्याय
शिवपूजा के अङ्गभूत होम की विधि
अग्निस्थापनादिप्रतिष्ठाकथनम्

भगवान् महेश्वर कहते हैं — स्कन्द ! पूजन के पश्चात् अपने शरीर को वस्त्र आदि से आवृत करके हाथ में अर्घ्यपात्र लिये उपासक अग्निशाला में जाय और दिव्यदृष्टि से यज्ञ के समस्त उपकरणों की कल्पना (संग्रह) करे। उत्तराभिमुख हो कुण्ड को देखे । कुशों द्वारा उसका प्रोक्षण एवं ताडन (मार्जन ) करे। ताडन तो अस्त्र-मन्त्र (फट्) -से करे; किंतु उसका अभ्युक्षण कवच-मन्त्र (हुम्) –से करना चाहिये। खड्ग से कुण्ड का खात उद्धार, पूरण और समता करे। कवच (हुम्) -से उसका अभिषेक तथा शरमन्त्र ( फट् ) से भूमि को कूटने का कार्य करे। सम्मार्जन, उपलेपन, कलात्मक रूप की कल्पना, त्रिसूत्री परिधान तथा अर्चन भी सदा कवच–मन्त्र से ही करना चाहिये। कुण्ड के उत्तर में तीन रेखा करे। एक रेखा ऐसी खींचे, जो पूर्वाभिमुखी हो और ऊपर से नीचे की ओर गयी हो। कुश अथवा त्रिशूल से रेखा करनी चाहिये। अथवा उन सभी रेखाओं में उलट-फेर भी किया जा सकता है ॥ १-५ ॥’

अस्त्र-मन्त्र ( फट् ) – का उच्चारण करके वज्रीकरण की क्रिया करे। ‘नमः’ का उच्चारण करके कुशों द्वारा चतुष्पथ का न्यास करे। कवच- मन्त्र (हुम्) बोलकर अक्षपात्र का और हृदय-मन्त्र (नमः) से विष्टर का स्थापन करे। ‘वागीश्वर्यै नमः।’ ‘ईशाय नमः’ – ऐसा बोलकर वागीश्वरी देवी तथा ईश का आवाहन एवं पूजन करे। इसके बाद अच्छे स्थान से शुद्धपात्र में रखी हुई अग्नि को ले आवे। उसमें से ‘क्रव्यादमग्निं प्रहिणोमि दूरम्०’ (शु० यजु० ३५ । १९) इत्यादि मन्त्र के उच्चारणपूर्वक क्रव्याद के अंशभूत अग्निकण को निकाल दे। फिर निरीक्षण आदि से शोधित औदर्य, ऐन्दव तथा भौत इन त्रिविध अग्नियों को एकत्र करके, ॐ हूं वह्निचैतन्याय नमः।’ का उच्चारण करके अग्निबीज (रं) के साथ स्थापित करे ॥ ६-८१/२

संहिता–मन्त्र से अभिमन्त्रित, धेनुमुद्रा के प्रदर्शनपूर्वक अमृतीकरण की क्रिया से संस्कृत, अस्त्र-मन्त्र से सुरक्षित तथा कवच मन्त्र से अवगुण्ठित एवं पूजित अग्नि को कुण्ड के ऊपर प्रदक्षिणा- क्रम से तीन बार घुमाकर, ‘यह भगवान् शिव का बीज है’ – ऐसा चिन्तन करके ध्यान करे कि ‘वागीश्वरदेव ने इस बीज को वागीश्वरी के गर्भ में स्थापित किया है।’ इस ध्यान के साथ मन्त्र- साधक दोनों घुटने पृथ्वी पर टेककर नमस्कारपूर्वक उस अग्नि को अपने सम्मुख कुण्ड में स्थापित कर दे। तत्पश्चात् जिसके भीतर बीजस्वरूप अग्नि का आधान हो गया है, उस कुण्ड के नाभिदेश में कुशों द्वारा परिसमूहन करे। परिधान सम्भार, शुद्धि, आचमन एवं नमस्कारपूर्वक गर्भाग्नि का पूजन करके उस गर्भज अग्नि की रक्षा के लिये अस्त्र- मन्त्र से भावना द्वारा ही वागीश्वरीदेवी के पाणिपल्लव में कङ्कण (या रक्षासूत्र) बाँधे ॥ ९-१३१/२

सद्योजात-मन्त्र ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः । भवे भवे नातिभवे भवस्व मां भवोद्भवाय नमः ॥ से गर्भाधान के उद्देश्य से अग्नि का पूजन करके हृदय मन्त्र से तीन आहुतियाँ दे फिर भावना द्वारा ही तृतीय मास में होने वाले पुंसवन- संस्कार की सिद्धि के लिये वामदेव मन्त्र ॐ वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कालाय नमः कलविकरणाय नमो बलविकरणाय नमो बलाय नमो बल-प्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मनाय नमः ॥ द्वारा अग्नि की पूजा करके, ‘शिरसे स्वाहा।’ बोलकर तीन आहुतियाँ दे। इसके बाद उस अग्नि पर जलबिन्दुओं से छींटा दे। तदनन्तर छठे मास में होने वाले सीमन्तोन्नयन संस्कार की भावना करके, अघोर- मन्त्र ॐ अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः। सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेऽस्तु रुद्ररूपेभ्यः ॥ से अग्नि का पूजन करके ‘शिखायै वषट्।’ का उच्चारण करते हुए तीन आहुतियाँ दे तथा शिखा मन्त्र से ही मुख आदि अङ्गों की कल्पना करे। मुख का उद्घाटन एवं प्रकटीकरण करे। तत्पश्चात् पूर्ववत् दसवें मास में होनेवाले जातकर्म एवं नरकर्म की भावना से तत्पुरुष-मन्त्र ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि। तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥ द्वारा दर्भ आदि से अग्नि का पूजन एवं प्रज्वलन करके गर्भमल को दूर करने वाला स्नान करावे तथा ध्यान द्वारा देवी के हाथ में सुवर्ण-बन्धन करके हृदय-मन्त्र से पूजन करे। फिर सूतक की तत्काल निवृत्ति के लिये अस्त्र-मन्त्र द्वारा अभिमन्त्रित जल से अभिषेक करे ॥ १४-१९ ॥

कुण्ड का बाहर की ओर से अस्त्र-मन्त्र के उच्चारणपूर्वक कुशों द्वारा ताडन या मार्जन करे। फिर ‘हुम्’ का उच्चारण करके उसे जल से सींचे । तत्पश्चात् कुण्ड के बाहर मेखलाओं पर अस्त्र- मन्त्र से उत्तर और दक्षिण दिशाओं में पूर्वाग्र तथा पूर्व और पश्चिम दिशाओं में उत्तराग्र कुशाओं को बिछावे। उन पर हृदय-मन्त्र से परिधि विष्टर (आठों दिशाओं में आसन विशेष ) स्थापित करे। इसके बाद सद्योजातादि पाँच मुख सम्बन्धी मन्त्रों से तथा अस्त्र-मन्त्र से नालच्छेदन के उद्देश्य से पाँच समिधाओं के मूलभाग को घी में डुबोकर उन पाँचों की आहुति दे । तदनन्तर ब्रह्मा, शंकर, विष्णु और अनन्त का दूर्वा और अक्षत आदि से पूजन करे। पूजन के समय उनके नाम के अन्त में ‘नमः’ जोड़कर उच्चारण करे। यथा — ‘ब्रह्मणे नमः ।’ ‘शंकराय नमः ।’ ‘विष्णवे नमः।’ ‘अनन्ताय नमः ।’ फिर कुण्ड के चारों ओर बिछे हुए पूर्वोक्त आठ विष्टरों पर पूर्वादि दिशाओं में क्रमशः इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, वरुण, वायु, कुबेर और ईशान का आवाहन और स्थापन करके यह भावना करे कि उन सबका मुख अग्निदेव की ओर है। फिर उन सबकी अपनी-अपनी दिशा में पूजा करे। पूजा के समय उनके नाम मन्त्र के अन्त में ‘नमः’ जोड़कर बोले । यथा — ‘इन्द्राय नमः।’ इत्यादि ॥ २०–२३१/२

इसके बाद उन सब देवताओं को भगवान् शिव की यह आज्ञा सुनावे — ‘देवताओ! तुम सब लोग विघ्न समूह का निवारण करके इस बालक (अग्नि) का पालन करो।’ तदनन्तर ऊर्ध्वमुख स्रुक् और स्रुव को लेकर उन्हें बारी-बारी से तीन बार अग्नि में तपावे। फिर कुश के मूल, मध्य और अग्रभाग से उनका स्पर्श करावे । कुश से स्पर्श कराये हुए स्थानों में क्रमशः आत्मतत्त्व, विद्यातत्त्व और शिवतत्त्व — इन तीनों का न्यास करे। न्यास- वाक्य इस प्रकार हैं- ‘ॐ हां आत्मतत्त्वाय नमः।’ ‘ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वाय नमः।’ ‘ॐ हूँ शिवतत्त्वाय नमः।’ ॥ २४-२६१/२

तत्पश्चात् स्रुक् में ‘नमः’ के साथ शक्ति का और स्रुव में शिव का न्यास करे। यथा — शक्त्यै नमः।’ ‘शिवाय नमः।’ फिर तीन आवृत्ति में फैले हुए रक्षासूत्र से स्रुक् और स्रुव दोनों के ग्रीवाभाग को आवेष्टित करे। इसके बाद पुष्पादि से उनका पूजन करके अपने दाहिने भाग में कुशों के ऊपर उन्हें रख दे। फिर गाय का घी लेकर उसे अच्छी तरह देख-भाल कर शुद्ध कर ले और अपने स्वरूप के ब्रह्ममय होने की भावना करके, उस घी के पात्र को हाथ में लेकर हृदय-मन्त्र से कुण्ड के ऊपर अग्निकोण में घुमाकर, पुनः अपने स्वरूप के विष्णुमय होने की भावना करे। तत्पश्चात् घृत को ईशानकोण में रखकर कुशाग्रभाग से घी निकाले और ‘शिरसे स्वाहा।’ एवं ‘विष्णवे स्वाहा।’ बोलकर भगवान् विष्णु के लिये उस घृतबिन्दु की आहुति दे । अपने स्वरूप के रुद्रमय होने की भावना करके, कुण्ड के नाभिस्थान में घृत को रखकर उसका आप्लावन करे ॥ २७-३११/२

(फैलाये हुए अँगूठे से लेकर तर्जनीतक की लंबाई को ‘प्रादेश’ कहते हैं।) प्रादेश बराबर लंबे दो कुशों को अङ्गुष्ठ तथा अनामिका — इन दो अँगुलियों से पकड़कर उनके द्वारा अस्त्र (फट्) – के उच्चारणपूर्वक अग्नि के सम्मुख घी को प्रवाहित करे। इसी प्रकार हृदय-मन्त्र (नमः) – का उच्चारण करके अपने सम्मुख भी घृत का आप्लावन करे। ‘नमः’ के उच्चारणपूर्वक हाथ में लिये हुए कुश के दग्ध हो जाने पर उसे शस्त्रक्षेप (फट् के उच्चारण) – के द्वारा पवित्र करे। एक जलते हुए कुश से उसकी नीराजना (आरती) करके फिर दूसरे कुश से उसे जलावे। उस जले हुए कुश को अस्त्र- मन्त्र से पुनः अग्नि में ही डाल दे। तत्पश्चात् घृत में एक प्रादेश बराबर कुश छोड़े, जिसमें गाँठ लगायी गयी हो। फिर घी में दो पक्षों तथा इडा आदि तीन नाड़ियों की भावना करे। इडा आदि तीनों भागों से क्रमशः स्रुव द्वारा घी लेकर उसका होम करे। ‘स्वा’ का उच्चारण करके स्रुवावस्थित घी को अग्नि में डाले और ‘हा’ का उच्चारण करके हुतशेष घी को उसे डालने के लिये रखे हुए पात्र विशेष में छोड़ दे। अर्थात् ‘स्वाहा’ बोलकर क्रमशः दोनों कार्य (अग्नि में हवन और शेष का पात्रविशेष में प्रक्षेप) करे ॥ ३२-३६ ॥

प्रथम इडा भाग से घी लेकर ‘ॐ हामग्नये स्वाहा।’ इस मन्त्र का उच्चारण करके घी का अग्नि में होम करे और हुतशेष का पात्रविशेष में प्रक्षेप करे। इसी प्रकार दूसरे पिङ्गला भाग से घी लेकर ‘ॐ हां सोमाय स्वाहा।’ बोलकर घी में आहुति दे और शेष का पात्रविशेष में प्रक्षेप करे। फिर ‘सुषुम्णा’ नामक तृतीय भाग से घी लेकर ‘ॐ हामग्नीषोमाभ्यां स्वाहा।’ बोलकर सुवा द्वारा घी अग्नि में डाले और शेष का पात्रविशेष में प्रक्षेपण करे। तत्पश्चात् बालक अग्नि के मुख में नेत्रत्रय के स्थानविशेष में तीनों नेत्रों का उद्घाटन करने के लिये घृतपूर्ण स्रुव द्वारा निम्नाङ्कित मन्त्र बोलकर अग्नि में चौथी आहुति दे — ‘ॐ हामग्नये स्विष्टकृते स्वाहा’ ॥ ३७-३९ ॥

तत्पश्चात् (पहले अध्याय में बताये अनुसार) ‘ॐ हां हृदयाय नमः ।’ इत्यादि छहों अङ्ग- सम्बन्धी मन्त्रों द्वारा घी को अभिमन्त्रित करके धेनुमुद्रा द्वारा जगावे। फिर कवच – मन्त्र (हुम्) – से अवगुण्ठित करके शरमन्त्र ( फट् ) से उसकी रक्षा करे। इसके बाद हृदय-मन्त्र से घृतबिन्दु का उत्क्षेपण करके उसका अभ्युक्षण एवं शोधन करे। साथ ही शिवस्वरूप अग्नि के पाँच मुखों के लिये अभिधार होम, अनुसंधान- होम तथा मुखों के एकीकरण सम्बन्धी होम करे। अभिघार होम की विधि यों है — ‘ॐ हां सद्योजाताय स्वाहा । ॐ हां वामदेवाय स्वाहा । ॐ हां अघोराय स्वाहा। ॐ ह्रां तत्पुरुषाय स्वाहा । ॐ हां ईशानाय स्वाहा।’ — इन पाँच मन्त्रों द्वारा सद्योजातादि पाँच मुखों के लिये अलग-अलग क्रमशः घी की एक-एक आहुति देकर उन मुखों को अभिघारित-घी से आप्लावित करे। यही मुखाभिघार सम्बन्धी होम है। तत्पश्चात् दो-दो मुखों के लिये एक साथ आहुति दे; यही मुखानुसंधान होम है। यह होम निम्नाङ्कित मन्त्रों से सम्पन्न करे — ॐ हां सद्योजातवामदेवाभ्यां स्वाहा । ॐ हां वामदेवाघोराभ्यां स्वाहा । ॐ हां अघोरतत्पुरुषाभ्यां स्वाहा । ॐ हां तत्पुरुषेशानाभ्यां स्वाहा ।’ ४०-४४१/२

तदनन्तर कुण्ड में अग्निकोण से वायव्यकोण तक तथा नैर्ऋत्यकोण से ईशानकोण तक घी की अविच्छिन धारा द्वारा आहुति देकर उक्त पाँचों मुखों की एकता करे। यथा — ‘ॐ हां सद्योजातवामदेवाघोर तत्पुरुषेशानेभ्यःस्वाहा।’ इस मन्त्र से पाँचों मुखों के लिये एक ही आहुति देने से उन सबका एकीकरण होता है। इस प्रकार इष्टमुख में सभी मुखों का अन्तर्भाव होता है, अतः वह एक ही मुख उन सभी मुखों का आकार धारण करता है — उन सबके साथ उसकी एकता हो जाती है। इसके बाद कुण्ड के ईशानकोण में अग्नि की पूजा करके, अस्त्र-मन्त्र से तीन आहुतियाँ देकर अग्नि का नामकरण करे — ” हे अग्निदेव! तुम सब प्रकार से शिव हो, तुम्हारा नाम ‘शिव’ है।” इस प्रकार नामकरण करके नमस्कारपूर्वक, पूजित हुए माता-पिता वागीश्वरी एवं वागीश्वर अथवा शक्ति एवं शिव का अग्नि में विसर्जन करके उनके लिये विधिपूरक पूर्णाहुति दे । मूल मन्त्र के अन्त में ‘वौषट्’ पद जोड़कर (यथा — ॐ नमः शिवाय वौषट् । – ऐसा कहकर ) शिव और शक्ति के लिये विधिपूर्वक पूर्णाहुति देनी चाहिये । तत्पश्चात् हृदय-कमल में अङ्ग और सेनासहित परम तेजस्वी शिव का पूर्ववत् आवाहन करके पूजन करे और उनकी आज्ञा लेकर उन्हें पूर्णतः तृप्त करे ॥ ४५-४९१/२

यज्ञाग्नि तथा शिव का अपने साथ नाडीसंधान करके अपनी शक्ति के अनुसार मूल मन्त्र से अङ्गसहित दशांश होम करे। घी, दूध और मधु का एक एक ‘कर्ष’ (सोलह माशा) होम करना चाहिये । दही की आहुति की मात्रा एक ‘सितुही’ बतायी गयी है। दूध की आहुति का मान एक ‘पसर’ है। सभी भक्ष्य पदार्थों तथा लावा की आहुति की मात्रा एक-एक ‘मुट्ठी’ है। मूल के तीन टुकड़ों की एक आहुति दी जाती है। फल की आहुति उसके अपने ही प्रमाण के अनुसार दी जाती है, अर्थात् एक आहुति में छोटा हो या बड़ा एक फल देना चाहिये। उसे खण्डित नहीं करना चाहिये। अन्न की आहुति का मान आधा ग्रास है जो सूक्ष्म किसमिस आदि वस्तुएँ हैं, उन्हें एक बार पाँच की संख्या में लेकर होम करना चाहिये। ईंख की आहुति का मान एक ‘पोर’ है। लताओं की आहुति का मान दो-दो अङ्गुल का टुकड़ा है। पुष्प और पत्र की आहुति उनके अपने ही मान से दी जाती है, अर्थात् एक आहुति में पूरा एक फूल और पूरा एक पत्र देना चाहिये। समिधाओं की आहुति का मान दस अङ्गुल है ॥ ५०-५४ ॥

कपूर, चन्दन, केसर और कस्तूरी से बने हुए दक्ष कर्दम (अनुलेप विशेष) की मात्रा एक कलाय (मटर या केराव) – के बराबर है। गुग्गुल की मात्रा बेर के बीज के बराबर होनी चाहिये। कंदों के आठवें भाग से एक आहुति दी जाती है। इस प्रकार विचार करके विधिपूर्वक उत्तम होम करे। इस तरह प्रणव तथा बीज – पदों से युक्त मन्त्रों द्वारा होम-कर्म सम्पन्न करना चाहिये ॥ ५५-५६ ॥

तदनन्तर घी से भरे हुए स्रुक् के ऊपर अधोमुख स्रुव को रखकर स्रुक् के अग्रभाग में फूल रख दे। फिर बायें और दायें हाथ से उन दोनों को शङ्ख की मुद्रा से पकड़े। इसके बाद शरीर के ऊपरी भाग को उन्नत रखते हुए उठकर खड़ा हो जाय। पैरों को समभाव से रखे। स्रुक् और स्रुव दोनों के मूलभाग को अपनी नाभि में टिका दे। नेत्रों को स्रुक् के अग्र- भाग पर ही स्थिरतापूर्वक जमाये रखे। ब्रह्मा आदि कारणों का त्याग करते हुए भावना द्वारा सुषुम्णा नाड़ी के मार्ग से निकलकर ऊपर उठे। स्रुक् स्रुव के मूलभाग को नाभि से ऊपर उठाकर बायें स्तन के पास ले आवे। अपने तन मन से आलस्य को दूर रखे तथा (ॐ नमः शिवाय वौषट् । – इस प्रकार) मूल मन्त्र का वौषट् पर्यन्त अस्पष्ट (मन्द स्वर से) उच्चारण करे और उस घी को जौ की-सी पतली धारा के साथ अग्नि में होम दे ॥ ५७-६०१/२

इसके बाद आचमन, चन्दन और ताम्बूल आदि देकर भक्तिभाव से भगवान् शिव के ऐश्वर्य की वन्दना करते हुए उनके चरणों में उत्तम (साष्टाङ्ग) प्रणाम करे। फिर अग्नि की पूजा करके ‘ॐ हः अस्त्राय फट् ।’ के उच्चारणपूर्वक संहारमुद्रा के द्वारा शंवरों का आहरण करके इष्टदेव से ‘भगवन्! ‘मेरे अपराध को क्षमा करें’ — ऐसा कहकर हृदय- मन्त्र से पूरक प्राणायाम के द्वारा उन तेजस्वी परिधियों को बड़ी श्रद्धा के साथ अपने हृदयकमल में स्थापित करे ॥ ६१-६३१/२

सम्पूर्ण पाक (रसोई) से अग्रभाग निकालकर कुण्ड के समीप अग्निकोण में दो मण्डल बनाकर एक अन्तर्बलि दे और दूसरे में बाह्य-बलि । प्रथम मण्डल के भीतर पूर्व दिशा में ‘ॐ हां रुद्रेभ्यः स्वाहा ।’ — इस मन्त्र से रुद्रों के लिये बलि (उपहार) अर्पित करे। दक्षिण दिशा में ‘ॐ हां मातृभ्यः स्वाहा।’ कहकर मातृकाओं के लिये, पश्चिम दिशा में ॐ हां गणेभ्यः स्वाहा तेभ्योऽयं बलिरस्तु ।’ ऐसा कहकर गणों के लिये, उत्तर दिशा में ‘ॐ हां यक्षेभ्यः स्वाहा तेभ्योऽयं बलिरस्तु ।’ कहकर यक्षों के लिये, ईशानकोण में ‘ॐ हां ग्रहेभ्यः स्वाहा तेभ्योऽयं बलिरस्तु।’ ऐसा कहकर ग्रहों के लिये, अग्निकोण में ‘ॐ हां असुरेभ्यः स्वाहा तेभ्योऽयं बलिरस्तु ।’ ऐसा कहकर असुरों के लिये, नैर्ऋत्यकोण में ‘ॐ हां रक्षोभ्यः स्वाहा तेभ्योऽयं बलिरस्तु ।’ ऐसा कहकर राक्षसों के लिये, वायव्यकोण में ‘ॐ हां नागेभ्यः स्वाहा तेभ्योऽयं बलिरस्तु ।’ ऐसा कहकर नागों के लिये तथा मण्डल के मध्यभाग में ‘ॐ हां नक्षत्रेभ्यः स्वाहा तेभ्योऽयं बलिरस्तु’ ऐसा कहकर नक्षत्रों के लिये बलि अर्पित करे ॥ ६४-६७ ॥

इसी तरह ‘ॐ हां राशिभ्यः स्वाहा तेभ्योऽयं बलिरस्तु ।’ ऐसा कहकर अग्निकोण में राशियों के लिये, ॐ हां विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा तेभ्योऽयं बलिरस्तु ।’ ऐसा कहकर नैर्ऋत्यकोण में विश्वेदेवों के लिये तथा ‘ॐ हां क्षेत्रपालाय स्वाहा तस्मा अयं बलिरस्तु ।’ ऐसा कहकर पश्चिम में क्षेत्रपाल को बलि दे ॥ ६८ ॥

तदनन्तर दूसरे बाह्य मण्डल में पूर्व आदि दिशाओं के क्रम से इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, जलेश्वर वरुण, वायु, धनरक्षक कुबेर तथा ईशान के लिये बलि समर्पित करे। फिर ईशानकोण में ॐ ब्रह्मणे नमः स्वाहा।’ कहकर ब्रह्मा के लिये तथा नैर्ऋत्यकोण में ‘ॐ विष्णवे नमः स्वाहा।’ कहकर भगवान् विष्णु के लिये बलि दे । मण्डल से बाहर काक आदि के लिये भी बलि देनी चाहिये। आन्तर और बाह्य-दोनों बलियों में उपयुक्त होनेवाले मन्त्रों को संहारमुद्रा के द्वारा अपने-आप में समेट ले ॥ ६९-७१ ॥

॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘शिवपूजा के अङ्गभूत होम की विधि का निरूपण’ नामक पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७५ ॥

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