September 27, 2015 | aspundir | Leave a comment ज्येष्ठा देवी (द्ररिद्रा देवी) का अवतरण सनत्कुमार-संहिता के कार्तिक माहात्म्य में भगवान सूर्य ने बताया है कि जब द्वापर के अन्त में देवता और दानवों ने भगवान विष्णु और राजा बलि आदि के साथ समुद्र-मन्थन किया तो उस समय मन्दराचल को मथानी और वासुकि नाग को रस्सी बनाया गया। पाँच वर्षों तक मन्थन किया गया तो सबसे पहले झाग उत्पन्न हुआ, फिर तीन वर्षों के बाद सुरा उत्पन्न हुई, तदनन्तर एक वर्ष के बाद कामधेनु, उसके एक वर्ष बाद ऐरावत हाथी, पुनः एक वर्ष बाद सात मुख का घोड़ा, उसके तीन मास बाद अप्सराएँ तथा एक वर्ष बाद चन्द्रमा उत्पन्न हुए। पुनः तीन वर्षों तक मन्थन के बाद भयंकर ज्वालाओं से युक्त कालकूट विष निकला, जिसके प्रभाव से तीनों लोक जलने लगे। उसकी ज्वाला से भगवान् विष्णु नीले पड़ गये। तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। उस समय सभी चकित हो गये थे, तब मैंने पृथ्वी पर अपनी किरणों से जल छिड़का और ब्रह्मा, विष्णु के साथ भगवान् शिवजी से प्रार्थना की। इस पर भगवान् शिव प्रकट हो गये। उन्होंने हलाहल विष को पी लिया। उस विष का दाह दूर करने के लिये उन्होंने गंगाजी को मस्तक पर, चन्द्रमा की कला को ललाट पर धारण किया और कपूर का लेप किया। फिर एक वर्ष समुद्र-मन्थन के बाद धनुष प्रकट हुआ, तदन्तर एक महीने के बाद शंखए एक वर्ष केबाद पारिजात और उसके एक माह के बाद कौस्तुभ मणि उत्पन्न हुई। उसके बाद काषायवस्त्रधारिणी, पिंगल केशवाली, लाल नेत्रोंवाली, कूष्माण्ड के सदृश स्तनवाली, अत्यन्त बूढ़ी, दन्तविहीन तथा चंचल जिह्वा को बाहर निकाले हुए, घट के समान पेटवाली एक ऐसी ज्येष्ठा नामवाली देवी उत्पन्न हुईं, जिन्हें देखकर सारा संसार घबरा गया- उसके बाद तिरछे नेत्रोंवाली, सुन्दरता की खान, पतली कमरवाली, सुवर्ण के समान पीत आभावाली, बड़े और ऊँचे स्तनवाली, क्षीरसमुद्र के समान श्वेत साड़ी पहने हुई तथा दोनों हाथों में कमल की माला लिये हुई भगवती लक्ष्मी उत्पन्न हुईं, जिनके दर्शन मात्र से देवता और दैत्य मोहित हो गवे। पुनः मन्थन करने पर बारह वर्ष के बाद अमृतकलश लिये वैद्य धन्वन्तरि उत्पन्न हुए। इस प्रकार से सभी रत्नों की उत्पत्ति हुई। उन्हीं रत्नों में लक्ष्मी की बड़ी बहन ज्येष्ठा (दरिद्रा) देवि भी उत्पन्न हुईं। लक्ष्मीजी ने भगवान् विष्णु के साथ अपने विवाह के पूर्व कहा कि ज्येष्ठ बहन के विवाह हुए बिना छोटी बहन का विवाह शास्त्रसम्मत नहीं है। तब भगवान् विष्णु ने उद्दालक ऋषि को ज्येष्ठा से विवाह के लिये प्रेरित किया। भगवान् के बहुत समझाने-बुझाने पर ऋषि विवाह के लिये सहमत हो गये, तब कार्तिक मास की द्वादशी तिथि को पिता समुद्र द्वारा ज्येष्ठा देवी का कन्यादान कर दिया गया। उद्दालक ऋषि दरिद्रा देवी को लेकर अपने आश्रम पे आये। महर्षि का आश्रम वेदध्वनि से गुंजित था, इसपर ज्येष्ठादेवी ने कहा- जहाँ वेद की ध्वनि, अतिथि-सत्कार, यज्ञ, दान आदि हो, वहाँ मेरा निवास नहीं हो सकता है-अतः हे प्रभो आप मुझे किसी ऐसे स्थान पर ले चलिये, जहाँ इन कार्यों के विपरीत कार्य होता हो। इसपर ऋषि ने कहा- देवि तुम अश्वत्थ वृक्ष के मूल में बैठी रहो, मैं तुम्हारे अनुरुप आवास को खोज कर आता हूँ। दरिद्रा के लिये स्थान खोजते हुए उद्दालक ऋषि को बहुत समय हो गया, किन्तु कोई स्थान नहीं मिला। इधर दरिद्रादेवी उसी अश्वत्थ वृक्ष के नीचे बैठी रही। जब उन्हें कई दिन तक पीपल के नीचे बैठे रहने से भूख-प्यास ने सताया तो वे व्याकुल होकर रोने लगी। उनके रुदन से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में हाहाकार मच गया। उनके रोने की आवाज को जब उनकी छोटी बहन लक्ष्मी ने सुना तो वे भगवान् विष्णु के साथ उनसे मिलने आयी। ज्येष्ठा ने अपना सम्पूर्ण समाचार उन्हें सुनाया तो भगवान् विष्णु ने कहा- हे दरिद्रे तुम सदा अश्वत्थ वृक्ष के मूल में निवास करो। तुमसे मिलने के लिये मैं लक्ष्मी के साथ प्रत्येक शनिवार को यहाँ आऊँगा और उस दिन जो अश्वत्थवृक्ष का पूजन करेगा, में उसके घर लक्ष्मी के साथ निवास करुँगा। ऐसा कहकर भगवान् विष्णु लक्ष्मी के साथ वैकुण्ठ चले गये और दरिद्रादेवी पीपल के नीचे निवास करने लगी। मंत्रः- “ॐ ह्रीं ज्येष्ठालक्ष्मी स्वयमेव ह्रीं ज्येष्ठायै नमः” Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe