February 14, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 25 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ पच्चीसवाँ अध्याय जमदग्नि और कार्तवीर्य का युद्ध तथा ब्रह्मा द्वारा उसका निवारण नारायण कहते हैं — नारद! तदनन्तर कार्तवीर्य ने दुःखी हृदय से श्रीहरि का स्मरण किया और कुपित हो मुनि के पास दूत भेजकर कहलवाया- ‘मुनिश्रेष्ठ ! युद्ध कीजिये अथवा मुझ अतिथि एवं भृत्य को मेरी वाञ्छित गौ दीजिये । भली-भाँति विचार करके जो उचित समझिये वही कीजिये ।’ दूत की यह बात सुनकर मुनिवर जमदग्नि ठहाका मारकर हँस पड़े और जो हितकारक, सत्य, नीतिका सार तत्त्व था, वह सब दूत से कहने लगे । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मुनि बोले — दूत ! राजा को आहाररहित देखकर मैं उसे अपने घर ले आया और यथोचितरूप से शक्ति के अनुसार अनेक प्रकार के व्यञ्जन भोजन कराये। अब वह राजा मेरी प्राणों से प्यारी कपिला को बलपूर्वक माँग रहा है। उसे देने में सर्वथा असमर्थ हूँ; अतः युद्ध-दान दूँगा—यह निश्चित है । मुनि का वह वचन सुनकर दूत लौट गया और सभा के मध्यभाग में भय के कारण कवच धारण करके बैठे हुए नरेश से सारा वृत्तान्त कह सुनाया । इधर मुनि ने कपिला से कहा- ‘इस समय मैं क्या करूँ; क्योंकि जैसे कर्णधार के बिना नौका अनियन्त्रित रहती है, वही दशा मेरे बिना इस सेना की हो रही है ।’ तब कपिला ने मुनि को अनेक प्रकार के शस्त्र, युद्धशास्त्र की शिक्षा और उसके उपयोग में आने वाले संधान आदि का ज्ञान प्रदान करते हुए कहा – ‘विप्रवर! आपकी जय हो। आप युद्ध में निश्चय ही शत्रु को जीत लेंगे तथा यह भी ध्रुव है कि अमोघ दिव्यास्त्र के बिना आपकी मृत्यु नहीं होगी। आप ब्राह्मण हैं; अतः आपका दत्तात्रेय के शिष्य एवं अमोघ शक्तिधारी राजा के साथ युद्ध होना युक्त नहीं है ।’ ब्रह्मन् ! इतना कहकर मनस्विनी कपिला चुप हो गयी । तब मनस्वी मुनि ने सेना को सुसज्जित किया और उस सारी सेना को साथ लेकर वे युद्धस्थल को प्रस्थित हुए। उधर राजा भी युद्ध के लिये आ डटा। उसने मुनिवर जमदग्नि को प्रणाम किया। फिर दोनों सेनाओं में अत्यन्त दुष्कर युद्ध होने लगा। उस युद्ध में कपिला की सेना ने बलपूर्वक राजा की सारी सेना को जीत लिया और खेल-ही- खेल में राजा के विचित्र रथ को चूर-चूर कर दिया । फिर हँसते-हँसते राजा के कवच और धनुष को भी छिन्न-भिन्न कर डाला। इस प्रकार राजा कार्तवीर्य कपिला की सेना को जीतने में असमर्थ हो गया। उन सेनाओं ने शस्त्रों की वर्षा से राजा को हथियार रख देने के लिये विवश कर दिया। तत्पश्चात् बाणों तथा शस्त्रों की वर्षा से राजा मूर्च्छित हो गया। उस समय राजाकी कुछ सेना तो मर चुकी थी और कुछ भाग खड़ी हुई। मुने! जब कृपासागर मुनिवर जमदग्नि ने देखा कि मेरा अतिथि बना हुआ राजराजेश्वर कार्तवीर्य मूर्च्छित हो गया है, तब कृपापरवश हो उन्होंने उस सेना को लौटा लिया । फिर तो वह कृत्रिम सेना जाकर कपिला के शरीर में विलीन हो गयी । तदनन्तर कृपालु मुनि ने शीघ्र ही राजा को अपनी चरण-धूलि देकर ‘तुम्हारी जय हो’ ऐसा शुभाशीर्वाद प्रदान किया और अपने कमण्डलु के जल के छींटे देकर उसे चैतन्य कराया। होश में आने पर वह राजा युद्धभूमि में उठकर खड़ा हो गया और भक्तिपूर्वक हाथ जोड़े हुए उसने मुनिवर को सिर झुकाकर प्रणाम किया। तब मुनि ने राजा को शुभाशीष देकर हृदय से लगा लिया और पुनः उसे स्नान कराकर यत्नपूर्वक भोजन कराया; क्योंकि ब्राह्मणों का हृदय सदा मक्खन के समान कोमल होता है; परंतु दूसरों का हृदय सदा छुरे की धार के सदृश तेज, असाध्य और दारुण होता है । तत्पश्चात् मुनिवर ने राजा से कहा — ‘नरेश ! अब तुम अपने घर लौट जाओ।’ तब राजा ने कहा — महाबाहो ! युद्ध कीजिये अथवा मेरी अभीष्ट गौ मुझे समर्पित कीजिये । (अध्याय २५) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे जमदग्निकार्तवीर्यार्जुनयुद्धवर्णनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related