ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 03
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
तीसरा अध्याय
पुत्र प्राप्त्यर्थ पार्वती को पुण्यक व्रत का उपदेश

महादेवजी ने कहा — पार्वति ! मैं उपाय बतलाता हूँ, सुनो। उससे तुम्हारा परम कल्याण होगा; क्योंकि त्रिलोकी में उपाय करने से कार्यसिद्धि होती ही है । मैं तुमसे जिस उपाय का वर्णन करूँगा, वह सम्पूर्ण अभीष्ट-सिद्धि का बीजरूप, परम मङ्गलदायक तथा मन को हर्ष प्रदान करनेवाला है । वरानने! तुम श्रीहरि की आराधना करके व्रत आरम्भ करो । एक वर्ष तक इसका अनुष्ठान करना होगा। इस व्रत का नाम पुण्यक है । यह महाकठोर बीज, कल्पतरु के समान अभीष्ट सिद्ध करनेवाला, उत्कृष्ट, सुखदायक, पुण्यदाता, साररूप, पुत्रप्रद और समस्त सम्पत्तियों को देनेवाला है।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

प्रिये ! जैसे नदियों में गङ्गा, देवताओं में श्रीहरि, वैष्णवों में मैं (शिव), देवियों में तुम, वर्णों में ब्राह्मण, तीर्थों में पुष्कर, पुष्पों में पारिजात, पत्रों में तुलसीदल, पुण्य प्रदान करने वालों में एकादशी तिथि, वारों में पुण्यप्रद रविवार, मासों में मार्गशीर्ष, ऋतुओं में वसन्त, वत्सरों में संवत्सर, युगों में कृतयुग, पूजनीयों में विद्या पढ़ानेवाले गुरु, गुरुजनों में माता, आप्तजनों में साध्वी पत्नी, विश्वस्तों में मन, धनों में रत्न, प्रियजनों में पति, बन्धुजनों में पुत्र, वृक्षों में कल्पतरु, फलों में आमका फल, वर्षों में भारतवर्ष, वनों में वृन्दावन, स्त्रियों में शतरूपा, पुरियों में काशी, तेजस्वियों में सूर्य, सुखदाताओं में चन्द्रमा, रूपवानों में कामदेव, शास्त्रों में वेद, सिद्धों में कपिल मुनि, वानरों में हनुमान्, क्षेत्रों में ब्राह्मणका मुख, यश प्रदान करनेवालों में विद्या तथा मनोहारिणी कविता, व्यापक वस्तुओं में आकाश, शरीरके अङ्गों में नेत्र, विभवों में हरिकथा, सुखों में हरिस्मरण, स्पर्शो  में पुत्रका स्पर्श, हिंसकों में दुष्ट, पापों में असत्यभाषण, पापियों में पुंश्चली स्त्री, पुण्यों में सत्यभाषण, तपस्याओं में श्रीहरिकी सेवा, गव्य पदार्थों में घृत, तपस्वियों में ब्रह्मा, भक्ष्य वस्तुओं में अमृत, अन्नों में धान, पवित्र करनेवालों में जल, शुद्ध पदार्थों में अग्नि, तैजस वस्तुओं में सुवर्ण, मीठे पदार्थों में प्रियभाषण, पक्षियों में गरुड़, हाथियों में इन्द्रका वाहन ऐरावत, योगियों में कुमार (सनत्कुमार आदि), देवर्षियों में नारद, गन्धर्वों में चित्ररथ, बुद्धिमानों में बृहस्पति, श्रेष्ठ कवियों में शुक्राचार्य, काव्यों में पुराण, सोतों में समुद्र, क्षमाशीलों में पृथ्वी, लाभों में मुक्ति, सम्पत्तियों में हरिभक्ति, पवित्रों में वैष्णव, वर्णों में ॐकार, मन्त्रों  में विष्णुमन्त्र, बीजों में प्रकृति, विद्वानों में वाणी, छन्दों में गायत्री छन्द, यक्षों में कुबेर, सर्पों में वासुकिनाग, पर्वतों में तुम्हारे पिता हिमवान्, गौओं में सुरभि, वेदों में सामवेद, तृणों में कुश, सुखप्रदों में लक्ष्मी, शीघ्रगामियों में मन, अक्षरों में अकार, हितैषियों में पिता, यन्त्रों में शालग्रामशिला, पशु-अस्थियों में विष्णुपञ्जर, चौपायों में सिंह, जीवधारियों में मनुष्य, इन्द्रियों में मन, रोगों में मन्दाग्नि, बलवानों में शक्ति, शक्तिमानों में अहंकार, स्थूलों में महाविराट्, सूक्ष्मों में परमाणु, अदितिपुत्रों में इन्द्र, दैत्यों में बलि, साधुओं में प्रह्लाद, दानियों में दधीचि, अस्त्रों में ब्रह्मास्त्र, चक्रों में सुदर्शनचक्र, मनुष्यों में राजा रामचन्द्र और धनुर्धारियों में लक्ष्मण श्रेष्ठ हैं तथा जैसे श्रीकृष्ण सर्वाधार, समस्त जीवों द्वारा सेवनीय, सबके बीजस्वरूप, सर्वाभीष्ट-प्रदाता और सम्पूर्ण वस्तुओं के साररूप हैं, उसी प्रकार यह पुण्यक-व्रत सम्पूर्ण व्रतों में श्रेष्ठ है।

इसलिये महाभागे ! तुम इस व्रत का अनुष्ठान करो, यह तीनों लोकों में दुर्लभ है। इस व्रत पालन से ही तुम्हें सम्पूर्ण वस्तुओं का साररूप पुत्र प्राप्त होगा। इस व्रत के द्वारा सम्पूर्ण प्राणियों के मनोरथ सिद्ध करने वाले श्रीकृष्ण की आराधना की जाती है, जिनके सेवन से मनुष्य अपने करोड़ों पितरों के साथ मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य विष्णु-मन्त्र ग्रहण करके श्रीहरि की सेवा करता है, वह भारतवर्ष में अपने जन्म-धारण को सफल कर लेता है। वह अपने पूर्वजों का उद्धार करके निश्चय ही वैकुण्ठ में जाता है और श्रीकृष्ण का पार्षद होकर सुखपूर्वक आनन्द का उपभोग करता है । वह भक्त अपने भाई, बन्धु-बान्धव, भृत्य, संगी- साथी तथा अपनी स्त्री का उद्धार करके श्रीहरि के परमपद को प्राप्त हो जाता है ।

इसलिये गिरिजे ! तुम इस परम दुर्लभ विष्णुमन्त्र को ग्रहण करो और उस व्रतकाल में इसी मन्त्र का जप करो; क्योंकि यह पितरों की मुक्ति का कारण है । यों कहकर भगवान् शंकर गिरिजा के साथ तुरंत ही गङ्गा-तट पर गये और उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक कवच तथा स्तोत्र सहित मनोहर विष्णुमन्त्र पार्वतीजी को बतलाया। मुने ! तत्पश्चात् उन्होंने पार्वती से पूजा की विधि एवं नियमों का भी वर्णन किया । (अध्याय ३)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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