ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 11
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
ग्यारहवाँ अध्याय
श्रीराधाजी का गङ्गा पर रोष, श्रीकृष्ण के प्रति राधा का उपालम्भ, श्रीराधा के भय से गङ्गा का श्रीकृष्ण के चरणों में छिप जाना, जलाभाव से पीड़ित देवताओं का गोलोक में जाना, ब्रह्माजी की स्तुति से राधा का प्रसन्न होने का प्रसङ्ग

नारदजी ने पूछा सुरेश्वर ! कलि के पाँच हजार वर्ष बीत जाने पर गङ्गा का कहाँ जाना होगा ? महाभाग ! यह प्रसङ्ग मुझे बताने की कृपा कीजिये ।

भगवान् नारायण ने कहा नारद! सरस्वती के शाप से गङ्गा भारतवर्ष में आयीं । शाप की अवधि पूरी हो जाने पर वह पुनः भगवान् श्रीहरि की आज्ञा से वैकुण्ठ में चली जायँगी। ऐसे ही सरस्वती भारतवर्ष को छोड़कर श्रीहरि के धाम में पधारेंगी । शाप समाप्त हो जाने पर लक्ष्मी का भी भगवान्‌ के पास पधारना होगा । नारद! ये ही गङ्गा, सरस्वती और लक्ष्मी भगवान् श्रीहरि की प्रेयसी पत्नियाँ हैं । ब्रह्मन् ! तुलसी सहित चार पत्नियाँ वेदों में प्रसिद्ध हैं।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय


नारदजी ने पूछा — भगवन् ! भगवान् श्रीहरि के चरणकमलों से प्रकट हुई गङ्गादेवी किस प्रकार परब्रह्म के कमण्डलु में रहीं तथा शंकर की प्रिया होने का सुअवसर उन्हें कैसे मिला? मुनिवर ! गङ्गा भगवान् नारायण की प्रेयसी भी हो चुकी हैं। अहो ! किस प्रकार ये सभी बातें संघटित हुईं? आप यह रहस्य मुझे बताने की कृपा कीजिये ।

भगवान् नारायण ने कहा — नारद! पूर्वकाल में जलमयी गङ्गा गोलोक में विराजमान थीं। राधा और श्रीकृष्ण के अङ्ग से प्रकट हुई यह गङ्गा उनका अंश तथा उन्हीं का स्वरूप हैं ।

द्रवाधिष्ठातृरूपा या रूपेणाप्रतिमा भुवि ।
नवयौवनसम्पन्ना रत्नाभरणभूषिता ॥ ८ ॥
शरन्मध्याह्नपद्मास्या सस्मिता सुमनोहरा ।
तप्तकाञ्चनवर्णाभा शरच्चन्द्रसमप्रभा ॥ ९ ॥
स्निग्धप्रभाऽतिसुस्निग्धा शुद्धसत्त्वस्वरूपिणी ।
सुपीनकठिनश्रोणी सुनितम्बयुगं वरम् ॥ १० ॥
पीनोन्नतं सुकठिनं स्तनयुग्मं सुवर्तुलम् ॥
सुचारु नेत्रयुगलं सुकटाक्षं सुवक्रिमम् ॥ ११ ॥
वक्रिमं कबरीभारं मालतीमाल्यसंयुतम् ।
सिन्दूरबिन्दुललितं सार्द्धं चन्दनबिन्दुभिः ॥ १२ ॥
कस्तूरीपत्रिकायुक्तं गण्डयुग्मं मनोहरम् ।
बन्धूककुसुमाकारमधरोष्ठं च सुंदरम् ॥ १३ ॥
पक्वदाडिमबीजाभदन्तपंक्तिसमुज्ज्वला ।
वाससी वह्निशुद्धे च नीवीयुक्ते च बिभ्रती ॥ १४ ॥
सा सकामा कृष्णपार्श्वे समुत्तस्थे सुलज्जिता ।
पद्मपत्रसमानाभ्यां लोचनाभ्यां विभो मुखम् ॥ १५ ॥
निमेषरहिताभ्यां च पिबन्ती सततं मुदा ।
प्रफुल्लवदना हर्षान्नवसङ्गमलालसा ॥ १५ ॥
मूर्च्छिता प्रभुरूपेण पुलकाङ्कितविग्रहा ।

द्रव की अधिष्ठात्री देवी के रूप में अत्यन्त सुन्दर रूप धारण कर के भू-मण्डल पर पधारीं । उस समय भूमण्डल में उनके रूप-लावण्य की कहीं तुलना नहीं थी । उनका शरीर नूतन यौवन से सम्पन्न था। उनके सभी अङ्ग रत्नमय अलंकारों से अलंकृत थे । शरद् ऋतु के मध्याह्न-काल में खिले हुए कमल की भाँति उनका मुस्कान भरा मुख परम मनोहर था । उनकी आभा तपाये हुए सुवर्ण के सदृश थी । तेज में वह शरत्काल के चन्द्रमा को भी परास्त कर रही थीं । मनोहर से भी मनोहर उनकी कान्ति थी । उन्होंने शुद्ध सात्त्विक स्वरूप धारण कर रखा था । विशाल दो नेत्र अनुपम शोभा बढ़ा रहे थे । अत्यन्त कटाक्षपूर्ण दृष्टि से वे देख रही थीं । सुन्दर अलकावली शोभा बढ़ा रही थी । उसमें उन्होंने मालती के पुष्पों का मनोहर हार लगा रखा था । ललाट पर चन्दन-बिन्दुओं के साथ सिन्दूर की सुन्दर बिंदी थी। दोनों मनोहर गण्डस्थलों पर कस्तूरी से पत्ररचनाएँ हुई थीं। नीचे उनका अधर-ओष्ठ इतना सुन्दर था मानो दुपहरिया का विकसित फूल हो । दाँतों की अत्यन्त उज्ज्वल पंक्ति पके हुए अनार के दानों की भाँति चमक रही थी । अग्नि-शुद्ध दो दिव्य वस्त्रों को उन्होंने धारण कर रखा था । ऐसी वे गङ्गा लज्जा का भाव प्रदर्शित करती हुई भगवान् श्रीकृष्ण के पास विराजमान हो गयीं। वे अञ्चल से अपना मुँह ढककर निर्निमेष नेत्रों से भगवान्‌ के मुखरूपी अमृत का निरन्तर प्रसन्नतापूर्वक पान कर रही थीं। उनका मुखमण्डल प्रसन्नता से खिल रहा था । भगवान् श्रीकृष्ण के रूप ने उन्हें बेसुध तथा अत्यन्त पुलकायमान बना दिया था ।

गोपीत्रिंशत्कोटियुक्ता कोटिचन्द्रसमप्रभा ।
कोपेन रक्तपद्मास्या रक्तपङ्कजलोचना ॥ १८ ॥
श्वेतचम्पकवर्णाभा मत्तवारणगामिनी ।
अमूल्यरत्नखचितनानाभरणभूषिता ॥ १९ ॥
माणिक्यखचितं हारममूल्यं वह्निशौचकम् ॥
पीताभवस्त्रयुगलं नीवीयुक्तं च बिभ्रती ॥ २० ॥
स्थलपद्मप्रभाजुष्टं कोमलं च सुरञ्जितम् ।
कृष्णदत्तार्घ्यसंयुक्तं विन्यस्यन्ती पदाम्बुजम् ॥ २१ ॥
रत्नेन्द्रराजखचितविमानादवरुह्य च ।
सेव्यमाना च सखिभिः श्वेत चामरवायुना ॥ २२ ॥
कस्तूरीबिन्दुतिलकं चन्दनेन्दुसमन्वितम् ।
दीप्तदीपप्रभाकारं सिन्दूरारुणसुन्दरम् ॥ २३ ॥
दधती भालमध्ये च सीमन्ताधस्तदुज्ज्वलम् ।
पारिजातप्रसूनादिमालायुक्तं सुवक्रिमम् ॥ २४ ॥
सुचारुकबरीभारं कम्पयन्ती च कम्पिता ।
सुचारुनासासंयुक्तमोष्ठं कम्पयती रुषा ॥ २५ ॥

इतने में भगवती राधिका वहाँ पधारकर विराजमान हो गयीं। उस समय राधा के साथ असंख्य गोपियाँ थीं। राधा की कान्ति ऐसी थी मानो करोड़ों चन्द्रमाओं की ज्योत्स्ना एक साथ प्रकट हो । वे उस समय क्रोध की लीला करना चाहती थीं; अतः उनकी आँखें लाल कमल की तुलना करने लगीं। उनका वर्ण पीले चम्पक की तुलना कर रहा था तथा उनकी चाल ऐसी थी मानो मतवाला गजराज हो । अमूल्य रत्नों से बने हुए नाना प्रकार के आभूषण उनके श्रीविग्रह की शोभा बढ़ा रहे थे। उनके शरीर पर अमूल्य रत्नों से जटित दो दिव्य चिन्मय पीताम्बर शोभा पा रहे थे। भगवान् श्रीकृष्ण के अर्घ्य से सुशोभित चरणकमलों को उन्होंने हृदय में धारण कर रखा था। सर्वोत्तम रत्नों से बने हुए विमान से उतरकर वहाँ पधारी थीं। ऋषिगण उनकी सेवामें संलग्न थे। स्वच्छ चँवर डुलाया जा रहा था । कस्तूरी के बिन्दु से युक्त, चन्दनों से समन्वित, प्रज्वलित दीपक के समान आकारवाला बिन्दुरूप में शोभायमान सिन्दूर उनके ललाट के मध्यभाग में शोभा पा रहा था । उनके सीमन्त का निचला भाग परम स्वच्छ था । पारिजात के पुष्पों की सुन्दर माला उनके गले में सुशोभित थी। अपनी सुन्दर अलकावली को कँपाती हुई वे स्वयं भी कम्पित हो रही थीं । रोष के कारण उनके सुन्दर रागयुक्त ओष्ठ फड़क रहे थे।

भगवान् श्रीकृष्ण के पास जाकर वे सुन्दर रत्नमय सिंहासन पर विराजित हो गयीं। उनको पधारे देखकर भगवान् श्रीकृष्ण उठ गये और कुछ हँसकर आश्चर्य प्रकट करते हुए मधुर वचनों में उनसे बातचीत करने लगे । उस समय गोपों के भय की सीमा नहीं रही । नम्रता के कारण कंधे झुकाकर उन्होंने भगवती राधिका को प्रणाम किया और वे उनकी स्तुति करने लगे। परब्रह्म श्रीकृष्ण ने भी राधिका की स्तुति की। गङ्गा भी तुरंत उठ गयीं और उन्होंने राधा का स्तवन किया। उनके हृदय में भय छा गया था। अत्यन्त विनय प्रकट करते हुए उन्होंने राधा से कुशल पूछी। वे डरकर नीचे खड़ी हो गयीं। उन्होंने ध्यान के द्वारा मन-ही-मन श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों की शरण ली । गङ्गा के हृदयस्थित कमल के आसन पर विराजमान भगवान् श्रीकृष्ण उस समय डरी हुई गङ्गा को आश्वासन दिया। इस प्रकार सर्वेश्वर श्रीकृष्ण से वर पाकर देवी गङ्गा स्थिरचित्त हो सकीं।

अब गङ्गा ने देखा, देवी राधिका ऊँचे सिंहासन पर बैठी हैं। उनका रूप परम मनोहर है। वे देखने में बड़ी सुखप्रद हैं । ब्रह्मतेज से उनका श्रीविग्रह प्रकाशमान हो रहा है। वे सनातनी देवी सृष्टि के आदि में असंख्य ब्रह्माओं को रचती हैं। उनकी अवस्था सदा बारह वर्ष की रहती है। अभिनव यौवन से उनका विग्रह परम शोभा पाता है। अखिल विश्व में उनके सदृश रूपवती और गुणवती कोई भी नहीं है । वे परम शान्त, कमनीय, अनन्त, परम साध्वी तथा आदि-अन्त-रहित हैं। उन्हें ‘शुभा’, ‘सुभद्रा’ और ‘सुभगा’ कहा जाता है। अपने स्वामी सौभाग्य से वे सदा सम्पन्न रहती हैं । सम्पूर्ण स्त्रियों में वे श्रेष्ठ हैं तथा परम सौन्दर्य से सुशोभित हैं। उन्हें भगवान् श्रीकृष्ण की अर्द्धाङ्गिनी कहा जाता है। तेज, अवस्था और प्रकाश में वे भगवान् श्रीकृष्ण के ही समान हैं। लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु ने लक्ष्मी को साथ लेकर उन महालक्ष्मी की उपासना की है। परमात्मा श्रीकृष्ण की समुज्ज्वल सभा को ये अपनी कान्ति से सदा आच्छादित करती हैं। सखियों का दिया हुआ दुर्लभ पान उनके मुख में शोभा पा रहा है । वे स्वयं अजन्मा होती हुई भी अखिल जगत् की जननी हैं। उनकी कीर्ति और प्रतिष्ठा विश्व में सर्वत्र विस्तृत है । वे भगवान् श्रीकृष्ण के प्राणों की साक्षात् अधिष्ठात्री देवी हैं। उन परम सुन्दरी देवी को भगवान् प्राणों से भी अधिक प्रिय मानते हैं ।

नारद! रासेश्वरी श्रीराधा की इस अनुपम झाँकी को देखकर गङ्गा का मन तृप्त न हो सका । वे निर्निमेष नेत्रों से निरन्तर राधा-सौन्दर्य-सुधा का पान करती रहीं । मुने! इतने में राधा ने मधुर वाणी में जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण से कहा । उस समय श्रीराधा का विग्रह परम शान्त था। उनमें नम्रता आ गयी थी और उनके मुख पर मुस्कान छायी थी ।

श्रीराधा ने कहा — प्राणेश! आपके प्रसन्न मुखकमल को मुस्करा कर निहारनेवाली यह कल्याणी कौन है ? इसके तिरछे नेत्र आपको लक्ष्य कर रहे हैं। इसके भीतर मिलनेच्छा का भाव जाग्रत् है । आपके मनोहर रूप ने इसे अचेत कर दिया है। इसके सर्वाङ्ग पुलकित हो रहे हैं । वस्त्र से मुख ढँककर बार-बार आपको देखा करना मानो इसका स्वभाव ही बन गया है। आप भी उसकी ओर दृष्टिपात करके मधुर-मधुर हँस रहे हैं। आप अनेक बार ऐसा करते हैं और कोमल-स्वभाव की स्त्री-जाति होने के कारण प्रेमवश मैं क्षमा कर देती हूँ । आपने ‘विरजा’ (रजोगुणरहिता देवी ) – से प्रेम किया । फिर वह अपना शरीर त्यागकर महान् नदी के रूप में परिणत हो गयी। आपकी सत्कीर्ति-स्वरूपिणी वह देवी नदी-रूप में अब भी विराजमान है। आपके औरस पुत्र के रूप में उससे समयानुसार सात समुद्र उत्पन्न हो गये ।

प्राणनाथ ! आपने ‘शोभा’ से प्रेम किया । वह भी शरीर त्यागकर चन्द्रमण्डल में चली गयी । तदनन्तर उसका शरीर परम स्निग्ध तेज बन गया। आपने उस तेज को टुकड़े-टुकड़े करके वितरण कर दिया । रत्न, सुवर्ण, श्रेष्ठ मणि, स्त्रियों के मुखकमल, राजा, पुष्पों की कलियाँ, पके हुए फल, लहलहाती खेतियाँ, राजाओं के सजे-धजे महल, नवीन पात्र और दूध — ये सब आपके द्वारा उस शोभा के कुछ-कुछ भाग पा गये। मैंने आपको ‘प्रभा’  के साथ प्रेम करते देखा । वह भी शरीर त्यागकर सूर्यमण्डल में प्रवेश कर गयी। उस समय उसका शरीर अत्यन्त तेजोमय बन गया था। उस तेजोमयी प्रभा को आपने विभाजन कर के जगह-जगह बाँट दिया। श्रीकृष्ण ! आपकी आँखों से दूर हुई प्रभा अग्नि, यक्ष, नरेश, देवता, वैष्णवजन, नाग, ब्राह्मण, मुनि, तपस्वी, सौभाग्यवती स्त्री तथा यशस्वी पुरुष — इन सबको थोड़े-थोड़े रूपों में प्राप्त हुई।

एक बार मैंने आपको ‘शान्ति’ नामक गोपी के साथ रासमण्डल में प्रेम करते देखा था । प्रभो ! वह शान्ति भी अपने उस शरीर को छोड़कर आप में लीन हो गयी। उस समय उसका शरीर उत्तम गुण के रूप में परिणत हो गया। तदनन्तर आपने उसको विभाजित कर के विश्व में बाँट दिया। प्रभो ! उसका कुछ अंश मुझ (राधा)  –  में, कुछ इस निकुञ्ज में और कुछ ब्राह्मण में प्राप्त हुआ । विभो ! फिर आपने उसका कुछ भाग शुद्ध सत्त्वस्वरूपा लक्ष्मी को, कुछ अपने मन्त्र के उपासकों को, कुछ वैष्णवों को, कुछ तपस्वियों को, कुछ धर्म को और कुछ धर्मात्मा पुरुषों को सौंप दिया ।

पूर्व-समय की बात है, ‘क्षमा’  के साथ आप मुझे प्रेम करते दृष्टिगोचर हुए थे। उस समय क्षमा अपना वह शरीर त्यागकर पृथ्वी पर चली गयी। तदनन्तर उसका शरीर उत्तम गुण के रूप में परिणत हो गया था। फिर उसके शरीर का आपने विभाजन किया और उसमें से कुछ-कुछ अंश विष्णु को, वैष्णवों को, धार्मिक पुरुषों को, धर्म को, दुर्बलों को, तपस्वियों को, देवताओं और पण्डितों को दे दिया। प्रभो ! इतनी सब बातें तो मैं सुना चुकी । आप के ऐसे-ऐसे बहुत-से गुण हैं। आप सदा ही उच्च सुन्दरी देवियों से प्रेम किया करते हैं ।

इस प्रकार रक्त कमल के समान नेत्रों वाली राधा ने भगवान् श्रीकृष्ण से कहकर साध्वी गङ्गा से कुछ कहना चाहा। गङ्गा योग में परमप्रवीण थीं । योग के प्रभाव से राधा का मनोभाव उन्हें ज्ञात हो गया । अतः बीच सभा में ही अन्तर्धान होकर वे अपने जल में प्रविष्ट हो गयीं। तब सिद्धयोगिनी राधा ने योग द्वारा इस रहस्य को जानकर सर्वत्र विद्यमान उन जलस्वरूपिणी गङ्गा को अञ्जलि से उठाकर पीना आरम्भ कर दिया। ऐसी स्थिति में राधा का अभिप्राय पूर्ण योगसिद्धा गङ्गा से छिपा नहीं रह सका। अतः वे भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में जाकर उनके चरणकमलों में लीन हो गयीं ।

तब राधा ने गोलोक, वैकुण्ठलोक तथा ब्रह्मलोक आदि सम्पूर्ण स्थानों में गङ्गा को खोजा; परंतु कहीं भी वह दिखायी नहीं दीं। उस समय सर्वत्र जल का नितान्त अभाव हो गया था । कीचड़ तक सूख गया था । जलचर जन्तुओं के मृत शरीर से ब्रह्माण्ड का कोई भी भाग खाली नहीं रहा था। फिर तो ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, अनन्त, धर्म, इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य, मनुगण, मुनि-समाज, देवता, सिद्ध और तपस्वी – सभी गोलोक में आये । उस समय उनके कण्ठ, ओठ और तालू सूख गये थे। प्रकृति से परे सर्वेश भगवान् श्रीकृष्ण को सबने प्रणाम किया; क्योंकि ये श्रीकृष्ण सब के परम पूज्य हैं।

वर देना इन सर्वोत्तम प्रभु का स्वाभाविक गुण है । इन्हें वर का प्रवर्तक ही माना जाता है। ये परमप्रभु सम्पूर्ण गोप और गोपियों के समाज में प्रमुख हैं। इन्हें निरीह, निराकार, निर्लिस, निराश्रय, निर्गुण, निरुत्साह, निर्विकार और निरञ्जन कहा गया है। भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये अपनी इच्छा से ये साकार रूप में प्रकट हो जाते हैं। ये सत्त्वस्वरूप, सत्येश, साक्षीरूप और सनातन पुरुष हैं। इनसे बढ़कर जगत् में दूसरा कोई शासक नहीं है। अतएव इन पूर्णब्रह्म परमेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण को उन ब्रह्मादि समस्त उपस्थित देवताओं ने प्रणाम करके स्तवन आरम्भ कर दिया । भक्ति के कारण उनके कंधे झुक गये थे। उनकी वाणी गद्गद हो गयी थी। आँखों में आँसू भर आये थे। उनके सभी अङ्गों में पुलकावली छायी थी। सबने उन परात्पर ब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति की।

इन सर्वेश प्रभु का विग्रह ज्योतिर्मय है । सम्पूर्ण कारणों के भी ये कारण हैं। ये उस समय अमूल्य रत्नों से निर्मित दिव्य सिंहासन पर विराजमान थे । गोपाल इनकी सेवा में संलग्न होकर श्वेत चँवर डुला रहे थे। गोपियों के नृत्य को देखकर प्रसन्नता के कारण इनका मुखमण्डल मुस्कान से भरा था । प्राणों से भी अधिक प्रिय श्रीराधा इनके वक्षःस्थल पर शोभा पा रही थीं । उनके दिये हुए सुवासित पान ये चबा रहे थे । ऐसे ये देवाधिदेव परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण रासमण्डल में विराजमान थे ।

वहीं मुनियों, मनुष्यों, सिद्धों और तपस्वियों ने तप के प्रभाव से इन के दिव्य दर्शन प्राप्त किये। दिव्य दर्शन से सब के मन में अपार हर्ष हुआ । साथ ही आश्चर्य की सीमा भी न रही। सभी परस्पर एक-दूसरे को देखने लगे । तत्पश्चात् उन समस्त सज्जनों ने अपना अभीष्ट अभिप्राय जगत्प्रभु चतुरानन ब्रह्मा से निवेदन किया । ब्रह्माजी उनकी प्रार्थना सुनकर विष्णु को दाहिने और महादेव को बायें करके भगवान् श्रीकृष्ण के निकट पहुँचे। उस समय परम आनन्दस्वरूप श्रीकृष्ण और परम आनन्दस्वरूपिणी श्रीराधा साथ विराजमान थीं। उसी समय ब्रह्मा ने रासमण्डल को केवल श्रीकृष्णमय देखा । सबकी वेश-भूषा एक समान थी। सभी एक-जैसे आसनों पर बैठे थे । द्विभुज श्रीकृष्ण के रूप में परिणत सभी ने हाथों में मुरली ले रखी थी। वनमाला सबकी छवि बढ़ा रही थी। सब के मुकुट में मोर के पंख थे । कौस्तुभमणि से वे सभी परम सुशोभित थे । गुण, भूषण, रूप, तेज, अवस्था और प्रभा से सम्पन्न उन सबका अत्यन्त कमनीय विग्रह परम शान्त था। सभी परिपूर्णतम थे और सब में सभी शक्तियाँ संनिहित थीं । उन्हें देखकर कौन सेवक हैं और कौन सेव्य – इस बात का निर्णय करने में ब्रह्मा सफल नहीं हो सके।

क्षणभर में ही भगवान् श्रीकृष्ण तेजः स्वरूप हो जाते और तुरंत आसन पर बैठे हुए भी दिखायी पड़ने लगते। एक ही क्षण में उनके दो रूप निराकार और साकार ब्रह्मा को दृष्टिगोचर हुए। फिर एक ही क्षण में ब्रह्माजी ने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण अकेले हैं । इसके बाद तुरंत ही झट उन्हें राधा और कृष्ण प्रत्येक आसन पर बैठे दीख पड़े । फिर क्या देखते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण ने राधा का रूप धारण कर लिया है और राधा ने श्रीकृष्ण का । कौन स्त्री के वेष में है और कौन पुरुष के वेष में — विधाता इस रहस्य को समझ न सके। तब ब्रह्माजी ने अपने हृदयरूपी कमल पर विराजमान भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान किया ।

ध्यान-चक्षु से भगवान् दीख गये । अतः अनेक प्रकार से परिहार करते हुए भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति की। तत्पश्चात् भगवान्‌ की आज्ञा से उन्होंने अपनी आँखें मूँद लीं। फिर देखा तो श्रीराधा को वक्षःस्थल पर बैठाये हुए भगवान् श्रीकृष्ण आसन पर अकेले ही विराजमान हैं । इन्हें पार्षदों ने घेर रखा है। झुंड-की-झुंड गोपियाँ इनकी शोभा बढ़ा रही हैं। फिर उन ब्रह्मा प्रभृति प्रधान देवताओं ने परम प्रभु भगवान्‌ का दर्शन करके प्रणाम किया और स्तुति भी की । तब जो सबके आत्मा, सब कुछ जानने में कुशल, सबके शासक तथा सर्वभावन हैं, उन लक्ष्मीपति परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण ने उपस्थित देवताओं का अभिप्राय समझकर उनसे कहा ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — ब्रह्मन् ! आपकी कुशल हो, यहाँ आइये । मैं समझ गया, आप सभी महानुभाव गङ्गा को ले जाने के लिये यहाँ पधारे हैं; परंतु इस समय यह गङ्गा शरणार्थी बनकर मेरे चरणकमलों में छिपी है। कारण, वह मेरे पास बैठी थी । राधाजी उसे देखकर पी जाने के लिये उद्यत हो गयीं। तब वह चरणों में आकर ठहर गयी। मैं आपलोगों को उसे सहर्ष दे दूँगा; परंतु आप पहले उसको निर्भय बनाने का पूर्ण प्रयत्न करें।

नारद! भगवान् श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर कमलोद्भव ब्रह्मा का मुख मुस्कान से भर गया । फिर तो वे सम्पूर्ण देवता, जो सबकी आराध्या तथा भगवान् श्रीकृष्ण से भी सुपूजिता हैं, उन भगवती राधा की स्तुति करने में संलग्न हो गये ! भक्ति के कारण अत्यन्त विनीत होकर ब्रह्माजी ने अपने चारों मुखों से राधाजी की स्तुति की। चारों वेदों के प्रणेता चतुरानन ब्रह्मा ने भगवती राधा का इस प्रकार स्तवन किया।

ब्रह्माजी बोले देवी! यह गङ्गा आपके तथा भगवान् श्रीकृष्ण के श्रीअङ्ग से समुत्पन्न है। आप दोनों महानुभाव रासमण्डल में पधारे थे । शंकर के संगीत ने आपको मुग्ध कर दिया था । उसी अवसर पर यह द्रवरूप में प्रकट हो गयी । अतः आप तथा श्रीकृष्ण के अङ्ग से समुत्पन्न होने के कारण यह आपकी प्रिय पुत्री के समान शोभा पाने वाली गङ्गा आपके मन्त्रों का अभ्यास करके उपासना करे। इसके द्वारा आपकी आराधना होनी चाहिये। फलस्वरूप वैकुण्ठाधिपति चतुर्भुज भगवान् श्रीहरि इसके पति हो जायँगे। साथ ही अपनी एक कला से यह भूमण्डल पर भी पधारेगी और वहाँ भगवान्‌ के अंश क्षारसमुद्र को इसका पति बनने का सुअवसर प्राप्त होगा। माता ! यह गङ्गा जैसे गोलोक में है, वैसे ही इसे सर्वत्र रहना चाहिये। आप देवेश्वरी इसकी माता हैं और यह सदा के लिये आपकी पुत्री है।

नारद! ब्रह्मा की इस प्रार्थना को सुनकर भगवती राधा हँस पड़ीं। उन्होंने ब्रह्माजी की सभी बातों को स्वीकार कर लिया। तब गङ्गा श्रीकृष्ण के चरण के अँगूठे के नखाग्र से निकलकर वहीं विराजमान हो गयी। सब लोगों ने उसका सम्मान किया। फिर जलस्वरूपा गङ्गा से उसकी अधिष्ठात्री देवी जल से निकलकर परम शान्त विग्रह से शोभा पाने लगी । ब्रह्मा ने गङ्गा के उस जल को अपने कमण्डलु में रख लिया। भगवान् शंकर ने उस जल को अपने मस्तक पर स्थान दिया। तत्पश्चात् कमलोद्भव ब्रह्मा ने गङ्गा को ‘राधा-मन्त्र’ की दीक्षा दी। साथ ही राधा के स्तोत्र, कवच, पूजा और ध्यान की विधि भी बतलायी। ये सभी अनुष्ठानक्रम सामवेदकथित थे। गङ्गा ने इन नियमों के द्वारा राधा की पूजा करके वैकुण्ठ के लिये प्रस्थान किया ।

मुने! लक्ष्मी, सरस्वती, गङ्गा और विश्वपावनी तुलसी – ये चारों देवियाँ भगवान् नारायण की पत्नियाँ हैं। तत्पश्चात् परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण ने हँसकर ब्रह्मा को दुर्बोध एवं अपरिचित सामयिक बातें बतलायीं ।

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — ब्रह्मन् ! तुम गङ्गा को स्वीकार करो । विष्णो ! महेश्वर ! विधाता ! मैं समय की स्थिति का परिचय कराता हूँ; आपको ध्यान देकर सुनना चाहिये । तुमलोग तथा अन्य जो देवता, मुनिगण, मनु, सिद्ध और यशस्वी यहाँ आये हुए हैं, इन्हीं को जीवित समझना चाहिये; क्योंकि गोलोक में काल के चक्र का प्रभाव नहीं पड़ता। इस समय कल्प समाप्त होने के कारण सारा विश्व जलार्णव में डूब गया है । विविध ब्रह्माण्डों में रहने वाले जो ब्रह्मा आदि प्रधान देवता हैं, वे इस समय मुझ में विलीन हो गये हैं । ब्रह्मन् !  केवल वैकुण्ठ को छोड़कर और सबका-सब जलमग्न है। तुम जाकर पुनः ब्रह्मलोकादि की सृष्टि करो। अपने ब्रह्माण्ड की भी रचना करना आवश्यक है। इसके पश्चात् गङ्गा वहाँ जायगी। इसी प्रकार मैं अन्य ब्रह्माण्डों में भी इस सृष्टि के अवसर पर ब्रह्मादि लोकों की रचना का प्रयत्न करता हूँ । अब तुम देवताओं के साथ यहाँ से शीघ्र पधारो । बहुत समय व्यतीत हो गया; तुम लोगों में कई ब्रह्मा समाप्त हो गये और कितने अभी होंगे भी।

मुने ! इस प्रकार कहकर परमाराध्या राधा के प्राणपति भगवान् श्रीकृष्ण अन्तःपुर में चले गये । ब्रह्मा प्रभृति देवता वहाँ से चलकर यत्नपूर्वक पुनः सृष्टि करने में तत्पर हो गये। फिर तो गोलोक, वैकुण्ठ, शिवलोक और ब्रह्मलोक तथा अन्यत्र भी जिस-जिस स्थान में गङ्गा को रहने के लिये परब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण ने आज्ञा दी थी, उस-उस स्थान के लिये उसने प्रस्थान कर दिया। भगवान् श्रीहरि के चरणकमल से गङ्गा प्रकट हुई, इसलिये उसे लोग ‘विष्णुपदी’ कहने लगे । ब्रह्मन्! इस प्रकार गङ्गा के इस उत्तम उपाख्यान का वर्णन कर चुका । इस सारगर्भित प्रसङ्ग से सुख और मोक्ष सुलभ हो जाते हैं । अब पुनः तुम्हें क्या सुनने की इच्छा है ? (अध्याय ११)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे गङ्गोपाख्याने एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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