ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 41
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
इकतालीसवाँ अध्याय
भगवती स्वधा का उपाख्यान उनके ध्यान,  पूजा-विधान तथा स्तोत्र का वर्णन

भगवान् नारायण कहते हैं — मुने ! अब भगवती स्वधा का उत्तम उपाख्यान कहता हूँ, सुनो। यह पितरों के लिये तृप्तिप्रद एवं श्राद्धों के फल को बढ़ाने वाला है । जगत्स्रष्टा ब्रह्मा ने सृष्टि के आरम्भ में सात पितरों का सृजन किया; उनमें चार तो मूर्तिमान् थे और तीन तेजः स्वरूप थे । उन सातों सिद्धिस्वरूप मनोहर पितरों को देखकर उनके भोजन के लिये श्राद्ध-तर्पणपूर्वक दिया हुआ पदार्थ निश्चित किया । तर्पणान्त स्नान, श्राद्धपर्यन्त देवपूजन तथा त्रिकालसंध्यान्त आह्निक कर्म यह ब्राह्मणों का परम कर्तव्य है । यह बात श्रुति में प्रसिद्ध है। जो ब्राह्मण नित्य त्रिकालसंध्या, श्राद्ध, तर्पण, बलिवैश्वदेव और वेदध्वनि नहीं करता, उसे विषहीन सर्प के समान शक्तिहीन समझना चाहिये ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारद! श्रीहरि की सेवा से वञ्चित तथा भगवान्‌ को भोग लगाये बिना खाने वाला मनुष्य जीवन-पर्यन्त अपवित्र रहता है। उसे कोई भी शुभकार्य करने का अधिकार नहीं है। इस प्रकार ब्रह्माजी तो पितरों के आहारार्थ श्राद्ध आदि का विधान करके चले गये; परंतु ब्राह्मण आदि उनके लिये जो कुछ देते थे, उसे पितर पाते नहीं थे । अतः वे सभी क्षुधा शान्त न होने के कारण दुःखी होकर ब्रह्माजी की सभा में गये । उन्होंने वहाँ जाकर ब्रह्माजी को सारी बातें बतायीं। तब उन महाभाग विधाता ने एक परम सुन्दर मानसी कन्या प्रकट की ।

रूपयौवनसम्पन्नां शरच्चन्द्रसमप्रभाम् ॥ ९ ॥
विद्यावतीं गुणवतीमपि रूपवतीं सतीम् ।
श्वेतचम्पकवर्णाभां रत्नभूषणभूषिताम् ॥ १० ॥
विशुद्धां प्रकृतेरंशां सस्मितां वरदां शुभाम् ।
स्वधाभिधानां सुदतीं लक्ष्मीं लक्षणसंयुताम् ॥ ११ ॥
शतपद्मपदन्यस्तपादपद्मं च बिभ्रतीम् ।
पत्नीं पितॄणां पद्मास्यां पद्मजां पद्मलोचनाम् ॥ १२ ॥

सैकड़ों चन्द्रमा की प्रभा के समान मुखवाली वह देवी रूप और यौवन से सम्पन्न थी । उस साध्वी देवी में विद्या, गुण, बुद्धि और रूप सम्यक् प्रकार से विद्यमान थे । श्वेत चम्पा के समान उसका उज्ज्वल वर्ण था। वह रत्नमय भूषणों से विभूषित थी । मूलप्रकृति भगवती जगदम्बा की अंशभूता वह शुद्धस्वरूपा देवी मन्द मन्द मुस्करा रही थी । वर देने वाली एवं कल्याणस्वरूपिणी उस सुन्दरी का नाम ‘स्वधा’ रखा गया। भगवती लक्ष्मी के सभी शुभ लक्षण उसमें विराजमान थे। उसके दाँत बड़े सुन्दर थे । वह अपने चरणकमलों को शतदल कमल पर रखे हुए थी । उसके मुख और नेत्र विकसित कमल के सदृश सुन्दर थे । उसे पितरों की पत्नी बनाया गया ।

ब्रह्माजी ने पितरों को संतुष्ट करने के लिये यह तुष्टिस्वरूपिणी पत्नी उन्हें सौंप दी। साथ ही अन्त में ‘स्वधा’ लगाकर मन्त्रों का उच्चारण करके पितरों के उद्देश्य से पदार्थ अर्पण करना चाहिये यह गोपनीय बात भी ब्राह्मणों को बतला दी । तब से ब्राह्मण उसी क्रम से पितरों को कव्य प्रदान करने लगे। यों देवताओं के लिये वस्तु-दान में ‘स्वाहा’ और पितरों के लिये ‘स्वधा’ शब्द का उच्चारण श्रेष्ठ माना जाने लगा। सभी कर्मों (यज्ञों) में दक्षिणा उत्तम मानी गयी है । दक्षिणाहीन यज्ञ नष्टप्राय कहा गया है। उस समय देवता, पितर, ब्राह्मण, मुनि और मानव इन सबने बड़े आदर के साथ उन शान्तस्वरूपिणी भगवती स्वधा की पूजा एवं स्तुति की। देवी के वर-प्रसाद से वे सब-के-सब परम संतुष्ट हो गये । उनकी सारी मनःकामनाएँ पूर्ण हो गयीं ।

मुने ! इस प्रकार भगवती स्वधा के सम्पूर्ण उपाख्यान का वर्णन मैंने तुम्हारे सामने कर दिया । यह सबके लिये तुष्टिकारक है । पुनः क्या सुनना चाहते हो ?

नारदजी ने कहा — वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ महामुने! अब मैं भगवती स्वधा की पूजा का विधान, ध्यान और स्तोत्र सुनना चाहता हूँ । यत्नपूर्वक बताने की कृपा कीजिये ।

भगवान् नारायण कहते हैं — ब्रह्मन् ! देवी स्वधा का ध्यान-स्तवन वेदों में वर्णित है, अतएव सबके लिये मान्य है । शरत्काल में आश्विन मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी तिथि को मघा नक्षत्र में अथवा श्राद्ध के दिन यत्नपूर्वक भगवती स्वधा की पूजा करके तत्पश्चात् श्राद्ध करना चाहिये। जो अभिमानी ब्राह्मण स्वधा देवी की पूजा न करके श्राद्ध करता है, वह श्राद्ध और तर्पण के फल का भागी नहीं होता – यह सर्वथा सत्य है ।

ब्रह्मणो मानसीं कन्यां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् ।
पूज्यां पितॄणां देवानां श्राद्धानां फलदां भजे ॥ २३ ॥

‘भगवती स्वधा ब्रह्माजी की मानसी कन्या हैं, ये सदा तरुणावस्था से सम्पन्न रहती हैं । पितरों और देवताओं के लिये सदा पूजनीया हैं। ये ही श्राद्धों का फल देने वाली हैं। इनकी मैं उपासना करता हूँ।’

इस प्रकार ध्यान करके शालग्राम- शिला अथवा मङ्गलमय कलश पर इनका आवाहन करना चाहिये। तदनन्तर मूलमन्त्र से पाद्य आदि उपचारों द्वारा इनका पूजन करना चाहिये । महामुने ! ‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं स्वधादेव्यै स्वाहा’ इस मन्त्र का उच्चारण करके ब्राह्मण इनकी पूजा, स्तुति और इन्हें प्रणाम करें । ब्रह्मपुत्र विज्ञानी नारद! अब स्तोत्र सुनो। यह स्तोत्र मानवों के लिये सम्पूर्ण अभिलाषा प्रदान करनेवाला है। पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने इसका पाठ किया था ।

॥ ब्रह्मोवाच ॥
स्वधोच्चारणमात्रेण तीर्थस्नायी भवेन्नरः ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो वाजपेयफलं लभेत् ॥ २७ ॥
स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं यदि वारत्रयं स्मरेत् ।
श्राद्धस्य फलमाप्नोति कालतर्पणयोस्तथा ॥ २८ ॥
श्राद्धकाले स्वधास्तोत्रं यः शृणोति समाहितः ।
लभेच्छ्राद्धशतानां च पुण्यमेव न संशयः ॥ २९ ॥
स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः ।
प्रियां विनीतां स लभेत्साध्वीं पुत्रं गुणान्वितम् ॥ ३० ॥
पितॄणां प्राणतुल्या त्वं द्विजजीवनरूपिणी ।
श्राद्धाधिष्ठातृदेवी च श्राद्धादीनां फलप्रदा ॥ ३१ ॥
बहिर्मन्मनसो गच्छ पितॄणां तुष्टिहेतवे ।
संप्रीतये द्विजातीनां गृहिणां वृद्धिहेतवे ॥ ३२ ॥
नित्या नित्यस्वरूपाऽसि गुणरूपाऽसि सुव्रते ।
आविर्भावस्तिरोभावः सृष्टौ च प्रलये तव ॥ ३३ ॥
ॐ स्वस्ति च नमः स्वाहा स्वधा त्वं दक्षिणा तथा ।
निरूपिताश्चतुर्वेदे षट् प्रशस्ताश्च कर्मिणाम् ॥ ३४ ॥
पुराऽऽसीस्त्वं स्वधा गोपी गोलोके राधिका सखी ।
धृता स्वोरसि कृष्णेन यतस्तेन स्वधा स्मृता ॥ ३५ ॥
ध्वस्ता त्वं राधिकाशापाद्गोलोकाद्विश्वमागता ।
कृष्णाश्लिष्टा तया दृष्टा पुरा वृन्दावने वने ॥ ३६ ॥
कृष्णालिंगनपुण्येन भूता मे मानसी सुता ।
अतृप्तसुरते तेन चतुर्णां स्वामिनां प्रिया ॥ ३७ ॥
स्वाहा सा सुन्दरी गोपी पुराऽऽसीद्राधिकासखी ।
रतौ स्वयं कृष्णमाह तेन स्वाहा प्रकीर्त्तिता ॥ ३८ ॥
कृष्णेन सार्द्धं सुचिरं वसन्ते रासमण्डले ।
प्रयत्ता सुरते श्लिष्टा दृष्टा सा राधया पुरा ॥ ३९ ॥
तस्याः शापेन सा ध्वस्ता गोलोकाद्विश्वमागता ।
कृष्णालिङ्गनपुण्येन समभूद्वह्निकामिनी ॥ ४० ॥
पवित्ररूपा परमा देवाद्यैर्वन्दिता नृभिः ।
यन्नामोच्चारणेनैव नरो मुच्येत पातकात् ॥ ४१ ॥
या सुशीलाभिधा गोपी पुराऽऽसीद्राधिकासखी ।
उवास दक्षिणे क्रोडे कृष्णस्य च महात्मनः ॥ ४२ ॥
प्रध्वस्ता सा च तच्छापाद्गोलोकाद्विश्वमागता ।
कृष्णालिङ्गनपुण्येन सा बभूव च दक्षिणा ॥ ४३ ॥
सा प्रेयसी रतौ दक्षा प्रशस्ता सर्वकर्मसु ।
उवास दक्षिणे भर्तुर्दक्षिणा तेन कीर्त्तिता ॥ ४४ ॥
गोप्या बभूवुस्तिस्रो वै स्वधा स्वाहा च दक्षिणा ।
कर्मिणां कर्मपूर्णार्थं पुरा चैवेश्वरेच्छया ॥ ४५ ॥
इत्येवमुक्त्वा स ब्रह्मा ब्रह्मलोके च संसदि ।
तस्थौ च सहसा सद्यः स्वधा साऽऽविर्बभूव ह ॥ ४६ ॥
तदा पितृभ्यः प्रददौ तामेव कमलाननाम् ।
तां संप्राप्य ययुस्ते च पितरश्च प्रहर्षिताः ॥ ४७ ॥
स्वधास्तोत्रमिदं पुण्यं यः शृणोति समाहितः ।
स स्नातः सर्वतीर्थेषु वेदपाठफलं लभेत् ॥ ४८ ॥

ब्रह्माजी बोले — ‘स्वधा’ शब्द के उच्चारण-मात्र से मानव तीर्थस्नायी समझा जाता है। वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर वाजपेय यज्ञ के फल का अधिकारी हो जाता है । ‘स्वधा, स्वधा, स्वधा’ इस प्रकार यदि तीन बार स्मरण किया जाय तो श्राद्ध, बलि और तर्पण के फल पुरुष को प्राप्त हो जाते हैं। श्राद्ध के अवसर पर जो पुरुष सावधान होकर स्वधा देवी के स्तोत्र का श्रवण करता है, वह सौ श्राद्धों का फल पा लेता है — इसमें संशय नहीं है । जो मानव ‘स्वधा, स्वधा, स्वधा’ इस पवित्र नाम का त्रिकाल संध्या के समय पाठ करता है, उसे विनीत, पतिव्रता एवं प्रिय पत्नी प्राप्त होती है तथा सगुणसम्पन्न पुत्र का लाभ होता है। देवि ! तुम पितरों के लिये प्राणतुल्या और ब्राह्मणों के लिये जीवनस्वरूपिणी हो । तुम्हें श्राद्ध की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है । तुम्हारी ही कृपा से श्राद्ध और तर्पण आदि के फल मिलते हैं । तुम पितरों की तुष्टि, द्विजातियों की प्रीति तथा गृहस्थों की अभिवृद्धि के लिये मुझ ब्रह्मा के मन से निकलकर बाहर जाओ । सुव्रते ! तुम नित्य हो, तुम्हारा विग्रह नित्य और गुणमय है । तुम सृष्टि के समय प्रकट होती हो और प्रलयकाल में तुम्हारा तिरोभाव हो जाता है । तुम ॐ नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा एवं दक्षिणा हो। चारों वेदों द्वारा तुम्हारे इन छः स्वरूपों का निरूपण किया गया है, कर्मकाण्डी लोगों में इन छहों की बड़ी मान्यता है ।

इस प्रकार देवी स्वधा की महिमा गाकर ब्रह्माजी अपनी सभा में विराजमान हो गये । इतने में सहसा भगवती स्वधा उनके सामने प्रकट हो गयीं। तब पितामह ने उन कमलनयनी देवी को पितरों के प्रति समर्पण कर दिया। उन देवी की प्राप्ति से पितर अत्यन्त प्रसन्न हुए। वे आनन्द से विह्वल हो गये । यही भगवती स्वधा का पुनीत स्तोत्र है । जो पुरुष समाहित-चित्त से इस स्तोत्र का श्रवण करता है, उसने मानो सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान कर लिया। उसको वेदपाठ का फल मिलता है।  (अध्याय ४१ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे स्वधोपाख्याने स्वधोत्पत्तितत्पूजादिकथनं नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४१ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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