ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 15
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
पन्द्रहवाँ अध्याय
नन्द का शिशु श्रीकृष्ण को लेकर वन में गो-चारण के लिये जाना, श्रीराधा का आगमन, नन्द से उनकी वार्ता, शिशु कृष्ण को लेकर राधा का एकान्त वन में जाना, वहाँ रत्नमण्डप में नवतरुण श्रीकृष्ण का प्रादुर्भाव, श्रीराधा-कृष्ण की परस्पर प्रेमवार्ता, ब्रह्माजी का आगमन, उनके द्वारा श्रीकृष्ण और राधा की स्तुति, वर-प्राप्ति तथा उनका विवाह कराना, नवदम्पति का प्रेम-मिलन तथा आकाशवाणी के आश्वासन देने पर शिशुरूपधारी श्रीकृष्ण को लेकर राधा का यशोदाजी के पास पहुँचाना

भगवान् नारायण कहते हैं नारद! एक दिन नन्दजी श्रीकृष्ण को साथ लेकर वृन्दावन में गये और वहाँ भाण्डीर उपवन में गौओं को चराने लगे। उस भूभाग में स्वच्छ तथा स्वादिष्ट जल से भरा हुआ एक सरोवर था । नन्दजी ने गौओं को उसका जल पिलाया और स्वयं भी पीया । इसके बाद वे बालक को गोद में लेकर एक वृक्ष की जड़ के पास बैठ गये । मुने! इसी समय माया से मानव-शरीर धारण करनेवाले श्रीकृष्ण ने अपनी माया द्वारा अकस्मात् आकाश को मेघमाला से आच्छादित कर दिया । नन्दजी ने देखा – आकाश बादलों से ढक गया है । वन का भीतरी भाग और भी श्यामल हो गया है । वर्षा के साथ जोर-जोर से हवा चलने लगी है। बड़े जोर की गड़गड़ाहट हो रही है। वज्र की दारुण गर्जना सुनायी देती है । मूसलधार पानी बरस रहा है और वृक्ष काँप रहे हैं। उनकी डालियाँ टूट-टूटकर गिर रही हैं । यह सब देखकर नन्द को बड़ा भय हुआ ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

वे सोचने लगे — ‘मैं गौओं तथा बछड़ों को छोड़कर अपने घर को कैसे जाऊँगा और यदि घर को नहीं जाऊँगा तो इस बालक का क्या होगा ?’

नन्दजी इस प्रकार कह ही रहे थे कि श्रीहरि उस समय जल की वर्षा के भय से रोने लगे। उन्होंने पिता के कण्ठ को जोर से पकड़ लिया ।

इसी समय राधा श्रीकृष्ण के समीप आयीं । वे अपनी गति से राजहंस तथा खञ्जन के गर्व का गंजन कर रही थीं। उनकी आकृति बड़ी मनोहर थी। उनका मुख शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा की आभा को छीने लेता था । नेत्र शरत्काल के मध्याह्न में खिले हुए कमलों की शोभा को तिरस्कृत कर रहे थे। दोनों आँखों में तारा, बरौनी तथा अञ्जन से विचित्र शोभा का विस्तार हो रहा था। उनकी नासिका पक्षिराज गरुड़ की चोंच की मनोहर सुषमा को लज्जित कर रही थी । उस नासिका के मध्यभाग में शोभनीय मोती की बुलाक उज्ज्वल आभा की सृष्टि कर रही थी । केश-कलापों की वेणी में मालती की माला लिपटी हुई थी। दोनों कानों में ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्नकालिक सूर्य की प्रभा को तिरस्कृत करने वाले कान्तिमान् कुण्डल झलमला रहे थे। दोनों ओठ पके बिम्बाफल की शोभा को चुराये लेते थे 1 मुक्तापंक्ति की प्रभा को फीकी करने वाली दाँतों की पंक्ति उनके मुख की उज्ज्वलता को बढ़ा रही थी । मन्द मुस्कान कुछ-कुछ खिले हुए कुन्द-कुसुमों की सुन्दर प्रभा का तिरस्कार कर रही थी । कस्तूरी की बिन्दु से युक्त सिन्दूर की बेंदी भालदेश को विभूषित कर रही थी।

शोभाशाली कपाल पर मल्लिका-पुष्प धारण करके सती राधा बड़ी सुन्दरी दिखायी देती थीं । सुन्दर, मनोहर एवं गोलाकार कपोल पर रोमाञ्च हो आया था। उनका वक्षःस्थल मणिरत्नेन्द्र के सारतत्त्व से निर्मित हार से विभूषित था। उनका उदर गोलाकार, सुन्दर और अत्यन्त मनोहर था । विचित्र त्रिवली की शोभा से सम्पन्न दिखायी देता था । उनकी नाभि कुछ गहरी थी । कटिप्रदेश उत्तम रत्नों के सारतत्त्व से रचित मेखला-जाल से विभूषित था। टेढ़ी भौंहें कामदेव के अस्त्रों की सारभूता जान पड़ती थीं, जिनसे वे योगिराजों के चित्त को भी मोह लेने में समर्थ थीं। वे स्थलकमलों की कान्ति को चुराने वाले दो सुन्दर चरण धारण करती थीं। वे चरण रत्नमय आभूषणों से विभूषित थे । उनमें महावर लगा हुआ था । श्रेष्ठ मणियों की शोभा छीन लेने वाले लाक्षारागरञ्जित नखों से उन चरणों की अपूर्व शोभा हो रही थी । उत्तम रत्नों के सारभाग से रचित मञ्जीर की झनकार से वे अनुरञ्जित जान पड़ते थे । उनकी भुजाएँ रत्नमय कङ्कण, केयूर और शङ्ख की मनोहर चूड़ियों से विभूषित थीं । रत्नमयी मुद्रिकाओं से अंगुलियों की शोभा बढ़ी हुई थी। वे अग्निशुद्ध दिव्य एवं कोमल वस्त्र धारण किये हुए थीं । उनकी अङ्गकान्ति मनोहर चम्पा के फूलों की प्रभा को चुराये लेती थी। उनके एक हाथ में सहस्र दलों से युक्त उज्ज्वल क्रीड़ाकमल सुशोभित था और वे अपने श्रीमुख की शोभा देखने के लिये हाथ में रत्नमय दर्पण लिये हुए थीं ।

उस निर्जन वन में उन्हें देखकर नन्दजी को बड़ा विस्मय हुआ । वे करोड़ों चन्द्रमालाओं की प्रभा से सम्पन्न हो दसों दिशाओं को उद्भासित कर रही थीं। नन्दरायजी ने उन्हें प्रणाम किया। उनके नेत्रों से अश्रु झरने लगे और मस्तक भक्तिभाव से झुक गया।

वे बोले – ‘देवि ! गर्गजी के मुख से तुम्हारे विषय में सुनकर मैं यह जानता हूँ कि तुम श्रीहरि की लक्ष्मी से भी बढ़कर प्रेयसी हो । साथ ही यह भी जान चुका हूँ कि ये श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण महाविष्णु से भी श्रेष्ठ, निर्गुण एवं अच्युत हैं; तथापि मानव होने के कारण मैं भगवान् विष्णु की माया से मोहित हूँ। भद्रे ! अपने इन प्राणनाथ को ग्रहण करो और जहाँ तुम्हारी मौज हो, चली जाओ । अपना मनोरथ पूर्ण कर लेने के पश्चात् मेरा यह पुत्र मुझे लौटा देना ।’

यों कहकर नन्द ने भय से रोते हुए बालक को राधा के हाथ में दे दिया। राधा ने बालक को ले लिया और मुख से मधुर हास प्रकट किया।

वे नन्द से बोलीं — बाबा! यह रहस्य दूसरे किसी पर प्रकट न हो, इसके लिये यत्नशील रहना । नन्द ! अनेक जन्मों के पुण्यफल का उदय होने से तुमने आज मेरा दर्शन प्राप्त किया है। गर्गजी के वचन से तुम इस विषय के ज्ञाता हो गये हो। हमारे अवतार का सारा कारण जानते हो। हम दोनों के गोपनीय चरित्र को कहीं कहना नहीं चाहिये। अब तुम गोकुल में जाओ । व्रजेश्वर! तुम्हारे मन में जो अभीष्ट हो, वह मुझसे माँग लो। उस देवदुर्लभ वर को भी मैं तुम्हें अनायास ही दे सकती हूँ।’

श्रीराधिका का यह वचन सुनकर व्रजेश्वर ने उनसे कहा — देवि! तुम प्रियतमसहित अपने चरणों की भक्ति मुझे प्रदान करो। दूसरी किसी वस्तु की इच्छा मेरे मन में नहीं है । जगदम्बिके! परमेश्वरि ! तुम दोनों के संनिधान में रहने का सौभाग्य हम दोनों पति-पत्नी को कृपापूर्वक दो।

नन्दजी का यह वचन सुनकर परमेश्वरी श्रीराधा बोलीं — ‘ व्रजेश्वर मैं भविष्य तुम्हें अनुपम दास्यभाव प्रदान करूँगी । इस समय हमारी भक्ति तुम्हें प्राप्त हो। हम दोनों (प्रिया-प्रियतम) – के चरणकमलों में तुम दोनों की दिन-रात भक्ति बनी रहे । तुम दोनों के प्रसन्नहृदय में हमारी परम दुर्लभ स्मृति निरन्तर होती रहे । मेरे वर के प्रभाव से माया तुम दोनों पर अपना आवरण नहीं डाल सकेगी। अन्त में मानव-शरीर का त्याग करके तुम दोनों ही गोलोक में पधारोगे ।’

ऐसा कह श्रीकृष्ण को दोनों बाँहों से सानन्द गोद में लेकर श्रीराधा अपनी रुचि के अनुसार वहाँ से दूर ले गयीं। उन्हें प्रेमातिरेक से वक्षः- स्थल पर रखकर वे बार-बार उनका आलिङ्गन और चुम्बन करने लगीं। उस समय उनका सर्वाङ्ग पुलकित हो उठा और उन्होंने रासमण्डल का स्मरण किया। इसी बीच में राधा ने माया द्वारा निर्मित उत्तम रत्नमय मण्डप देखा, जो सैकड़ों रत्नमय कलशों से सुशोभित था । भाँति-भाँति के विचित्र चित्र उस मण्डप की शोभा बढ़ा रहे थे। विचित्र काननों से वह सुशोभित था । सिन्दूर की- सी कान्तिवाली मणियों द्वारा निर्मित सहस्रों खम्भे उस मण्डप की श्रीवृद्धि कर रहे थे । उसके भीतर चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और केसर के द्रव से युक्त मालती-मालाओं के समूह से पुष्प-शय्या तैयार की गयी थी । वहाँ नाना प्रकार की भोग-सामग्री संचित थी। दीवारों में दिव्य दर्पण लगे हुए थे । श्रेष्ठ मणियों, मुक्ताओं और माणिक्यों की मालाओं के जाल से उस मण्डप को सजाया गया था । उसमें मणीन्द्रसाररचित किवाड़ लगे हुए थे। वह भवन बेल-बूटों से विभूषित वस्त्रों और श्रेष्ठ पताका-समूहों से सुसज्जित था । कुंकुम के समान रंग वाली मणियों द्वारा उसमें सात सीढ़ियाँ बनायी गयी थीं। उस भवन के सामने एक पुष्पोद्यान था, जो भ्रमरों के गुञ्जारव से युक्त पुष्प-समूहों द्वारा शोभा पा रहा था।

देवी राधा उस मण्डप को देखकर प्रसन्नतापूर्वक उसके भीतर चली गयीं। वहाँ उन्होंने कर्पूर आदि से युक्त ताम्बूल तथा रत्नमय कलश में रखा हुआ स्वच्छ, शीतल एवं मनोहर जल देखा। नारद! वहाँ सुधा और मधु से भरे हुए अनेक रत्नमय कलश शोभा पा रहे थे । उस भवन के भीतर पुष्पमयी शय्या पर एक किशोर अवस्था वाले श्यामसुन्दर कमनीय पुरुष सो रहे थे, जो अत्यन्त मनोहर थे। उनके मुख पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही थी। वे चन्दन से चर्चित तथा करोड़ों कन्दर्पों की लावण्यलीला से अलंकृत थे। उन्होंने पीताम्बर पहन रखा था । उनके मुख और नेत्रों में प्रसन्नता छा रही थी। उनके दोनों चरण मणीन्द्रसारनिर्मित मञ्जीर की झनकार से अनुरञ्जित थे। हाथों में उत्तम रत्नों के सारतत्त्व से बने हुए केयूर और कंगन शोभा दे रहे थे। उत्तम मणियों द्वारा रचित कान्तिमान् कुण्डलों से उनके गण्डस्थल की अपूर्व शोभा हो रही थी। मणिराज कौस्तुभ उनके वक्षःस्थल में अपनी उज्ज्वल आभा बिखेर रहा था। दोनों नेत्र शरत्काल के प्रफुल्ल कमलों की शोभा को छीने लेते थे । मालती की मालाओं से संयुक्त मोरपंख का मुकुट उनके मस्तक को सुशोभित कर रहा था । त्रिभङ्ग चूड़ा (चोटी) धारण किये वे उस रत्नमण्डप को निहार रहे थे ।

राधा ने देखा मेरी गोद में बालक नहीं है और उधर वे नूतन यौवनशाली पुरुष दृष्टिगोचर हो रहे हैं। यह देखकर सर्वस्मृतिस्वरूपा होने पर भी राधा को बड़ा विस्मय हुआ । रासेश्वरी उस परम मनोहर रूप को देखकर मोहित हो गयीं। वे प्रेम और प्रसन्नता के साथ अपने लोचन चकोरों के द्वारा उनके मुखचन्द्र की सुधा का पान करने लगीं। उनकी पलकें नहीं गिरती थीं। मन में प्रेमविहार की लालसा जाग उठी। उस समय राधा का सर्वाङ्ग पुलकित हो उठा। वे मन्द मन्द मुस्कराती हुई प्रेम-वेदना से व्यथित हो उठीं। तब तिरछी चितवन से अपनी ओर देखती हुई, मुस्कराते मुखारविन्दवाली श्रीराधा से वहाँ श्रीहरि ने इस प्रकार कहा ।

श्रीकृष्ण बोले — राधे ! गोलोक में देवमण्डली के भीतर जो वृत्तान्त घटित हुआ था, उसका तुम्हें स्मरण तो है न ? प्रिये ! पूर्वकाल में मैंने जो कुछ स्वीकार किया है, उसे आज पूर्ण करूँगा । सुमुखि राधे ! तुम मेरे लिये प्राणों से भी बढ़कर प्रियतमा हो । जैसी तुम हो, वैसा मैं हूँ; निश्चय ही हम दोनों में भेद नहीं है । जैसे दूध में धवलता, अग्नि में दाहिका शक्ति और पृथ्वी में गन्ध होती है; इसी प्रकार तुममें मैं व्याप्त हूँ। जैसे कुम्हार मिट्टी के बिना घड़ा नहीं बना सकता तथा जैसे स्वर्णकार सुवर्ण के बिना कदापि कुण्डल नहीं तैयार कर सकता; उसी प्रकार मैं तुम्हारे बिना सृष्टि करने में समर्थ नहीं हो सकता। तुम सृष्टि की आधारभूता हो और मैं अच्युत बीजरूप हूँ । साध्वि ! जैसे आभूषण शरीर की शोभा का हेतु है, उसी प्रकार तुम मेरी शोभा हो । जब मैं तुमसे अलग रहता हूँ, तब लोग मुझे कृष्ण (काला-कलूटा ) कहते हैं और जब तुम साथ हो जाती हो तो वे ही लोग मुझे श्रीकृष्ण (शोभाशाली श्रीकृष्ण ) – की संज्ञा देते हैं । तुम्हीं श्री हो, तुम्हीं सम्पत्ति हो और तुम्हीं आधार-स्वरूपिणी हो । तुम सर्वशक्तिस्वरूपा हो और मैं अविनाशी सर्वरूप हूँ। जब मैं तेजः स्वरूप होता हूँ, तब तुम तेजोरूपिणी होती हो। जब मैं शरीररहित होता हूँ, तब तुम भी अशरीरिणी हो जाती हो ।

सुन्दरि ! मैं तुम्हारे संयोग से ही सदा सर्व – बीजस्वरूप होता हूँ । तुम शक्तिस्वरूपा तथा सम्पूर्ण स्त्रियों का स्वरूप धारण करने वाली हो । मेरा अङ्ग और अंश ही तुम्हारा स्वरूप है। तुम मूलप्रकृति ईश्वरी हो । वरानने ! शक्ति, बुद्धि और ज्ञान में तुम मेरे ही तुल्य हो । जो नराधम हम दोनों में भेदबुद्धि करता है, उसका कालसूत्र नामक नरक में तब तक निवास होता है, जब तक जगत् में चन्द्रमा और सूर्य विद्यमान हैं। वह अपने पहले और बाद की सात-सात पीढ़ियों को नरक में गिरा देता है । उसका करोड़ों जन्मों का पुण्य निश्चय ही नष्ट हो जाता है। जो नराधम अज्ञानवश हम दोनों की निन्दा करते हैं, वे जब तक चन्द्रमा और सूर्य की सत्ता है, तबतक घोर नरक में पकाये जाते हैं।

‘रा’ शब्द का उच्चारण करने वाले मनुष्य को मैं भयभीत – सा होकर उत्तम भक्ति प्रदान करता हूँ और ‘धा’ शब्द का उच्चारण करने वाले के पीछे-पीछे इस लोभ से डोलता फिरता हूँ कि पुनः ‘राधा’ शब्द का श्रवण हो जाय। जो जीवन-पर्यन्त सोलह उपचार अर्पण करके मेरी सेवा करते हैं, उन पर मेरी जो प्रीति होती है, वही प्रीति ‘राधा’ शब्द के उच्चारण से होती है। बल्कि उससे भी अधिक प्रीति ‘राधा’ नाम के उच्चारण से होती है । राधे ! मुझे तुम उतनी प्रिया नहीं हो, जितना तुम्हारा नाम लेने वाला प्रिय है । ‘राधा’ नाम का उच्चारण करने वाला पुरुष मुझे ‘राधा’ से भी अधिक प्रिय है। ब्रह्मा, अनन्त, शिव, धर्म, नर- नारायण ऋषि, कपिल, गणेश और कार्तिकेय भी मेरे प्रिय हैं। लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, सावित्री, प्रकृति – ये देवियाँ तथा देवता भी मुझे प्रिय हैं; तथापि वे राधा नाम का उच्चारण करने वाले प्राणियों के समान प्रिय नहीं हैं। उपर्युक्त सब देवता मेरे लिये प्राण के समान हैं; परंतु सती राधे ! तुम तो मेरे लिये प्राणों से भी बढ़कर हो । वे सब लोग भिन्न-भिन्न स्थानों में स्थित हैं; किंतु तुम तो मेरे वक्षःस्थल में विराजमान हो । जो मेरी चतुर्भुज मूर्ति अपनी प्रिया को वक्षःस्थल में धारण करती है, वही मैं श्रीकृष्णस्वरूप होकर सदा स्वयं तुम्हारा भार वहन करता हूँ ।

यों कहकर श्रीकृष्ण उस मनोरम शय्यापर विराजमान हुए, तब राधिका भक्तिभाव से मस्तक झुकाकर अपने प्राणनाथ से बोलीं ।

राधिका ने कहा — ‘प्रभो! मुझे गोलोक की सारी बातें याद हैं। मैं सब जानती हूँ। मैं उन बातों को भूल कैसे सकती हूँ? तुम जो मुझे सर्वरूपिणी बता रहे हो, वह सब तुम्हारे चरण-कमलों की कृपा से ही सम्भव है । ईश्वर को कुछ लोग अप्रिय होते हैं और कहीं कुछ लोग प्रिय भी होते हैं। जैसे जो मेरा स्मरण नहीं करते हैं, उसी तरह उन पर तुम्हारी कृपा भी नहीं होती है । तुम तृण को पर्वत और पर्वत को तृण बनाने में समर्थ हो; तथापि योग्य-अयोग्य में तथा सम्पत्ति और विपत्ति में भी तुम्हारी समान कृपा होती है । मैं खड़ी हूँ और तुम सोये हो। इस समय बातचीत में जो समय निकल गया, वह एक-एक क्षण मेरे लिये एक-एक युग के समान है। मैं उसकी गणना करने में असमर्थ हूँ। तुम मेरे वक्षःस्थल और मस्तक पर अपना चरण-कमल रख दो। तुम्हारे विरह की आग से मेरा हृदय शीघ्र ही दग्ध होना चाहता है। सामने तुम्हारे चरण-कमल पर जब मेरी दृष्टि पड़ी तो वह वहीं रम गयी। फिर मैं क्लेश उठाकर भी उसे दूसरे अङ्गों को देखने के लिये वहाँ से अन्यत्र न ले जा सकी; तथापि धीरे-धीरे प्रत्येक अङ्ग का दर्शन करके ही मैंने तुम्हारे शान्त मुखारविन्द पर दृष्टि डाली है । इस मुखारविन्द को देखकर अब मेरी दृष्टि अन्यत्र जाने में असमर्थ है।

राधिका का यह वचन सुनकर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण हँसने लगे। फिर वे श्रुतियों और स्मृतियों के मतानुसार तथ्य एवं हितकर वचन बोले ।

श्रीकृष्ण ने कहा भद्रे ! मैंने पूर्वकाल में वहाँ गोलोक में जो निश्चय किया था, उसका खण्डन नहीं होना चाहिये । प्रिये ! तुम क्षणभर ठहरो । मैं तुम्हारा मङ्गल करूँगा। तुम्हारे मनोरथ की पूर्ति का समय स्वयं आ पहुँचा है। राधे ! पहले मैंने जिसके लिये जो कुछ लिख दिया है और जिस समय उस मनोरथ की प्राप्ति का निश्चय कर दिया है; उस पूर्व – निश्चय का खण्डन मैं स्वयं ही नहीं कर सकता। फिर विधाता की क्या विसात है, जो उसे मिटा सके ? मैं विधाता का भी विधाता हूँ। मैंने जिनके लिये जो कुछ विधान कर दिया है, उसका ब्रह्मा आदि देवता भी कदापि खण्डन नहीं कर सकते ।

इसी बीच में ब्रह्मा श्रीहरि के सामने आये। उनके हाथों में माला और कमण्डलु शोभा पा रहे थे। चारों मुखों पर मन्द मुस्कान खेल रही थी । निकट जाकर उन्होंने श्रीकृष्ण को नमस्कार किया और आगम के अनुसार उनकी स्तुति की। उस समय उनके नेत्रों से आँसू झर रहे थे । सम्पूर्ण अङ्गों में रोमाञ्च हो आया था और भक्तिभाव से उनका मस्तक झुका हुआ था । स्तुति और नमस्कार करके जगद्धाता ब्रह्मा श्रीहरि के और निकट गये। उन्होंने अपने प्रभु को भक्तिभाव से पुनः प्रणाम किया। फिर वे श्रीराधिका के समीप गये और माता के चरण-कमल में मस्तक रखकर उन्होंने भक्तिभाव से नमस्कार किया। शीघ्रतापूर्वक माता राधिका के चरणारविन्दों को अपने जटाजाल से वेष्टित करके ब्रह्माजी ने कमण्डलु के जल से प्रसन्नतापूर्वक उनका प्रक्षालन किया। फिर दोनों हाथ जोड़कर वे आगम के अनुसार श्रीराधा की स्तुति करने लगे ।

॥ ब्रह्मणा कृतं श्रीराधास्तोत्रम् ॥

॥ ब्रह्मोवाच ॥
हे मातस्त्वत्पदाम्भोजं दृष्टं कृष्णप्रसादतः ।
सुदुर्लभं च सर्वेषां भारते च विशेषतः ॥ ९७ ॥
षष्टिवर्षसहस्राणि तपस्तप्तं पुरा मया ।
भास्करे पुष्करे तीर्थे कृष्णस्य परमात्मनः ॥ ९८ ॥
आजगाम वरं दातुं वरदाता हरिः स्वयम् ।
वरं वृणीष्वेत्युक्ते च स्वाभीष्टं च वृतं मुदा ॥ ९९ ॥
राधिकाचरणाम्भोजं सर्वेषामपि दुर्लभम् ।
हे गुणातीत मे शीघ्रमधुनैव प्रदर्शय ॥ १०० ॥
मयेत्युक्तो हरिरयमुवाच मां तपस्विनम् ।
दर्शयिष्यामि काले च वत्सेदानीं क्षमेति च ॥ १०१ ॥
नहीश्वराज्ञा विफला तेन दृष्टं पदाम्बुजम् ।
सर्वेषां वाञ्छितं मातर्गोलोके भारतेऽधुना ॥ १०२ ॥
सर्वा देव्यः प्रकृत्यंशा जन्याः प्राकृतिका ध्रुवम् ।
त्वं कृष्णाङ्गार्धसंभूता तुल्या कृष्णेन सर्वतः ॥ १०३ ॥
श्रीकृष्णस्त्वमयं राधा त्वं राधा वा हरिः स्वयम् ।
नहि वेदेषु मे दृष्ट इति केन निरूपितम् ॥ १०४ ॥
ब्रह्माण्डाद्बहिरूर्ध्वं च गोलोकोऽस्ति यथाम्बिके ।
वैकुण्ठश्चाप्यजन्यश्च त्वमजन्या तथाम्बिके ॥ १०५ ॥
यथा समस्तब्रह्माण्डे श्रीकृष्णांशांशजीविनः ।
तथा शक्तिस्वरूपा त्वं तेषु सर्वेषु संस्थिता ॥ १०६ ॥
पुरुषाश्च हरेरंशास्त्वदंशा निखिलाः स्त्रियः ।
आत्मना देहरूपा त्वमस्याधारस्त्वमेव हि ॥ १०७ ॥
अस्यानु प्राणैस्त्वं मातस्त्वत्प्राणैरयमीश्वरः ।
किमहो निर्मितः केन हेतुना शिल्पकारिणा ॥ १०८ ॥
नित्योऽयं च तथा कृष्णस्त्वं च नित्या तथाऽम्बिके ।
अस्यांशा त्वं त्वदंशो वाऽप्ययं केन निरूपितः ॥ १०९ ॥
अहं विधाता जगतां देवानां जनकः स्वयम् ।
तं पठित्वा गुरुमुखाद्भवन्त्येव बुधा जनाः ॥ ११० ॥
गुणानां वास्तवानां ते शतांशं वक्तुमक्षमः ।
वेदो वा पण्डितो वाऽन्यः को वा त्वां स्तोतुमीश्वरः ॥ १११ ॥
स्तवानां जनकं ज्ञानं बुद्धिर्ज्ञानाम्बिका सदा ।
त्वं बुद्धेर्जननी मातः को वा त्वां स्तोतुमीश्वरः ॥ ११२ ॥
यद्वस्तु दृष्टं सर्वेषां तद्धि वक्तुं बुधः क्षमः ।
यददृष्टाश्रुते वस्तु तन्निर्वक्तुं च कः क्षमः ॥ ११३ ॥
अहं महेशोऽनंतश्च स्तोतुं त्वां कोऽपि न क्षमः ।
सरस्वती च वेदाश्च क्षमः कः स्तोतुमीश्वरः ॥ ११४ ॥
यथागमं यथोक्तं च न मां निन्दितुमर्हसि ।
ईश्वराणामीश्वरस्य योग्यायोग्ये समा कृपा ॥ ११५ ॥
जनस्य प्रतिपाल्यस्य क्षणे दोषः क्षणे गुणः ।
जननी जनको यो वा सर्वं क्षमति स्नेहतः ॥ ११६ ॥
इत्युक्त्वा जगतां धाता तस्थौ च पुरतस्तयोः ।
प्रणम्य चरणाम्भोजे सर्वेषां वन्द्यमीप्सितम् ॥ ११७ ॥
ब्रह्मणा च कृतं स्तोत्रं त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः ।
राधामाधवयोः पादे भक्तिर्दास्यं लभेद्ध्रुवम् ॥ ११८ ॥
कर्मनिर्मूलनं कृत्वा मृत्युं जित्वा सुदुर्जयम् ।
विलङ्घ्य सर्वलोकांश्च याति गोलोकमुत्तमम् ॥ ११९ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे माता ! भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से मुझे तुम्हारे चरणकमलों के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। ये चरण सर्वत्र और विशेषतः भारतवर्ष में सभी के लिये परम दुर्लभ हैं। मैंने पूर्वकाल में पुष्करतीर्थ में सूर्य के प्रकाश में बैठकर परमात्मा श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये साठ हजार वर्षों तक तपस्या की। तब वरदाता श्रीहरि मुझे वर देने के लिये स्वयं पधारे। उनके ‘वर माँगो’ ऐसा कहने पर मैंने प्रसन्नतापूर्वक अभीष्ट वर माँगते हुए कहा- ‘हे गुणातीत परमेश्वर ! जो सबके लिये परम दुर्लभ है, उन राधिका के चरण-कमल का मुझे इसी समय शीघ्र दर्शन कराइये ।’ मेरी यह बात सुनकर ये श्रीहरि मुझ तपस्वी से बोले- ‘वत्स ! इस समय क्षमा करो। उपयुक्त समय आने पर मैं तुम्हें श्रीराधा के चरणारविन्दों के दर्शन कराऊँगा ।’ ईश्वर की आज्ञा निष्फल नहीं होती; इसीलिये मुझे तुम्हारे चरणकमलों के दर्शन प्राप्त हुए हैं। माता ! तुम्हारे ये चरण गोलोक में तथा इस समय भारत में भी सबकी मनोवाञ्छा के विषय हैं। सब देवियाँ प्रकृति की अंशभूता हैं; अतः वे निश्चय ही जन्य और प्राकृतिक हैं। तुम श्रीकृष्ण के आधे अङ्ग से प्रकट हुई हो; अतः सभी दृष्टियों से श्रीकृष्ण के समान हो। तुम स्वयं श्रीकृष्ण हो और ये श्रीकृष्ण राधा हैं अथवा तुम राधा हो और ये स्वयं श्रीकृष्ण हैं । इस बात का किसी ने निरूपण किया हो, ऐसा मैंने वेदों में नहीं देखा है । अम्बिके! जैसे गोलोक ब्रह्माण्ड से बाहर और ऊपर है, उसी तरह वैकुण्ठ भी है।

माँ ! जैसे सभी वैकुण्ठ और गोलोक अजन्य हैं; उसी प्रकार तुम भी अजन्या हो । जैसे समस्त ब्रह्माण्ड में जीवधारी श्रीकृष्ण के ही अंशांश हैं; उसी प्रकार उन सबमें तुम्हीं शक्तिरूपिणी होकर विराजमान हो । समस्त पुरुष श्रीकृष्ण के अंश हैं और सारी स्त्रियाँ तुम्हारी अंशभूता हैं । परमात्मा श्रीकृष्ण की तुम देहरूपा हो; अतः तुम्हीं इनकी आधारभूता हो। माँ ! इनके प्राणों से तुम प्राणवती हो और तुम्हारे प्राणों से ये परमेश्वर श्रीहरि प्राणवान् हैं । अहो ! क्या किसी शिल्पी ने किसी हेतु से इनका निर्माण किया है ? कदापि नहीं । अम्बिके ! ये श्रीकृष्ण नित्य हैं और तुम भी नित्या हो। तुम इनकी अंशस्वरूपा हो या ये ही तुम्हारे अंश हैं; इसका निरूपण किसने किया है ? मैं जगत्स्रष्टा ब्रह्मा स्वयं वेदों का प्राकट्य करने वाला हूँ । उस वेद को गुरु के मुख से पढ़कर लोग विद्वान् हो जाते हैं; परंतु वेद अथवा पण्डित तुम्हारे गुणों या स्तोत्रों का शतांश भी वर्णन करने में असमर्थ हैं। फिर दूसरा कौन तुम्हारी स्तुति कर सकता है ? स्तोत्रों का जनक है ज्ञान और सदा ज्ञान की जननी है बुद्धि । माँ राधे ! उस बुद्धि की भी जननी तुम हो । फिर कौन तुम्हारी स्तुति करने में समर्थ होगा ? जिस वस्तु का सबको प्रत्यक्ष दर्शन हुआ है; उसका वर्णन करने में तो कोई भी विद्वान् समर्थ हो सकता है। परंतु जो वस्तु कभी देखने और सुनने में भी नहीं आयी, उसका निर्वचन (निरूपण) कौन कर सकता है ? मैं, महेश्वर और अनन्त कोई भी तुम्हारी स्तुति करने की क्षमता नहीं रखते। सरस्वती और वेद भी अपने को असमर्थ पाते हैं । परमेश्वरि । फिर कौन तुम्हारी स्तुति कर सकता है ? मैंने आगमों का अनुसरण करके तुम्हारे विषय में जैसा कुछ कहा है, उसके लिये तुम मेरी निन्दा न करना । जो ईश्वरों के भी ईश्वर परमात्मा हैं, उनकी योग्य और अयोग्य पर भी समान कृपा होती है। जो पालन के योग्य संतान है, उसका क्षण-क्षण में गुण-दोष प्रकट होता रहता है; परंतु माता और पिता उसके सारे दोषों को स्नेहपूर्वक क्षमा करते हैं ।

यों कहकर जगत्स्रष्टा ब्रह्मा उन दोनों के सर्ववन्द्य एवं सर्ववाञ्छित चरणकमलों को प्रणाम करके उनके सामने खड़े हो गये। जो मनुष्य ब्रह्माजी के द्वारा किये गये इस स्तोत्र का तीनों संध्याओं के समय पाठ करता है, वह निश्चय ही राधा-माधव के चरणों की भक्ति एवं दास्य प्राप्त कर लेता है। अपने कर्मों का मूलोच्छेद करके सुदुर्जय मृत्यु को भी जीतकर समस्त लोकों को लाँघता हुआ वह उत्तम गोलोकधाम में चला जाता है।

भगवान् नारायण कहते हैं ब्रह्माजी की स्तुति सुनकर श्रीराधा ने उनसे कहा — ‘विधातः ! तुम्हारे मन में जो अभीष्ट हो, वह वर माँग लो।’

राधिका की बात सुनकर जगत्स्रष्टा ब्रह्मा ने उनसे कहा — ‘माँ ! तुम दोनों के चरणकमलों की भक्ति ही मेरा अभीष्ट वर है, उसे ही मुझे दे दो ।’

विधाता के इतना कहते ही श्रीराधा ने तत्काल ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। तब लोकनाथ ब्रह्मा ने पुनः भक्ति-भाव से श्रीराधा को प्रणाम किया। उस समय उन्होंने श्रीराधा और श्रीकृष्ण के बीच में अग्नि की स्थापना करके उसे प्रज्वलित किया। फिर श्रीहरि के स्मरण-पूर्वक विधाता ने विधि से उस अग्नि में आहुति डाली। इसके बाद श्रीकृष्ण पुष्प-शय्या से उठकर अग्नि के समीप बैठे। फिर ब्रह्माजी की बतायी हुई विधि से उन्होंने स्वयं हवन किया। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण और राधा को प्रणाम करके ब्रह्माजी ने स्वयं पिता के कर्तव्य का पालन करते हुए उन दोनों से कौतुक (वैवाहिक मङ्गल – कृत्य) कराये और सात बार अग्निदेव की परिक्रमा करवायी ।

इसके बाद राधा से अग्नि की परिक्रमा करवाकर श्रीकृष्ण को प्रणाम कराके राधा को उनके पास बैठाया । फिर श्रीकृष्ण से राधा का हाथ ग्रहण कराया और माधव से सात वैदिक मन्त्र पढ़वाये । तत्पश्चात् वेदज्ञ विधाता ने श्रीहरि के वक्षःस्थल पर राधिका का हाथ रखवाकर राधा के पृष्ठदेश में श्रीकृष्ण का हाथ रखवाया और राधा से तीन वैदिक मन्त्रों का पाठ करवाया। तदनन्तर ब्रह्मा ने पारिजात के पुष्पों की आजानुम्बिनी माला श्रीराधा के हाथ से श्रीकृष्ण के गले में डलवायी । तत्पश्चात् कमलजन्मा विधाता ने पुनः श्रीराधा और श्रीकृष्ण को प्रणाम करके श्रीहरि के हाथ से श्रीराधा के कण्ठ में मनोहर माला डलवायी । फिर श्रीकृष्ण को बैठाया और उनके वामपार्श्व में मन्द-मन्द मुस्कराती हुई श्रीकृष्णहृदया राधा को भी बैठाया। इसके बाद उन दोनों से हाथ जुड़वाकर पाँच वैदिक मन्त्र पढ़वाये । तत्पश्चात् विधाता ने पुनः श्रीकृष्ण को प्रणाम करके, जैसे पिता अपनी पुत्री का दान करता है, उसी प्रकार राधिका को उनके हाथ में सौंप दिया और भक्ति- भाव से वे श्रीकृष्ण के सामने खड़े हो गये ।

इसी बीच में आनन्दित और पुलकित हुए देवगण दुन्दुभि, आनक और मुरज आदि बाजे बजाने लगे। विवाह-मण्डप के पास पारिजात के फूलों की वर्षा होने लगी । श्रेष्ठ गन्धर्वों ने गीत गाये और झुंड-की-झुंड अप्सराएँ नृत्य करने लगीं ।

ब्रह्माजी ने श्रीहरि की स्तुति की और मुस्कराते हुए उनसे कहा ‘ आप दोनों के चरणकमलों में मेरी भक्ति बढ़े, यही मुझे दक्षिणा दीजिये ।’

ब्रह्माजी की बात सुनकर स्वयं श्रीहरि ने उनसे कहा — ब्रह्मन् ! मेरे चरणकमलों में तुम्हारी सुदृढ़ भक्ति हो । अब तुम अपने स्थान को जाओ। तुम्हारा कल्याण होगा, इसमें संशय नहीं है । वत्स ! मैंने जो कार्य तुम्हारे जिम्मे लगाया है, उसका मेरी आज्ञा के अनुसार पालन करो ।

मुने! श्रीकृष्णका यह आदेश सुनकर जगत्-विधाता ब्रह्मा श्रीराधा-कृष्ण को प्रणाम करके प्रसन्नतापूर्वक अपने लोक को चले गये । ब्रह्माजी के चले जाने पर मुस्कराती हुई देवी राधिका ने बाँकी चितवन से श्रीहरि के मुँह की ओर देखा और लज्जा से अपना मुँह ढँक लिया। उस समय उनका सर्वाङ्ग पुलकित हो उठा था। वे प्रेमवेदना का अनुभव कर रही थीं। श्रीहरि को भक्तिभाव से प्रणाम करके श्रीराधा उनकी शय्या पर गयीं । वहाँ चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और केसर का अङ्गराग रखा हुआ था। श्रीराधा ने श्रीकृष्ण के ललाट में तिलक करके उनके वक्षःस्थल में चन्दन लगाया। फिर सुधा और मधु से भरा हुआ मनोहर रत्नपात्र भक्तिपूर्वक श्रीहरि के हाथ में दिया । जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने उस सुधा का पान किया। इसके बाद श्रीराधा ने कर्पूर आदि से सुवासित सुरम्य ताम्बूल श्रीकृष्ण को दिया। श्रीहरि ने उसे सादर भोग लगाया। फिर श्रीहरि के दिये हुए सुधारस का मुस्कराती हुई श्रीराधा ने आस्वादन किया । साथ ही उनके दिये हुए ताम्बूल को भी श्रीहरि के सामने ही खाया। श्रीकृष्ण ने प्रसन्नतापूर्वक अपना चबाया हुआ पान श्रीराधा को दिया। राधा ने बड़ी भक्ति से उसे खाया और उनके मुखारविन्दमकरन्द का पान किया। इसके बाद मधुसूदन ने भी श्रीराधा से उनका चबाया हुआ पान माँगा, परंतु राधा ने नहीं दिया। वे हँसने लगीं और बोलीं — ‘क्षमा कीजिये ।’

माधव ने राधा के हाथ से रत्नमय दर्पण ले लिया और राधिका ने भी माधव के हाथ से बलपूर्वक उनकी मुरली छीन ली। राधा ने माधव का और माधव ने राधा का मन मोह लिया। प्रेम-मिलन के पश्चात् राधा ने प्रसन्नतापूर्वक परमात्मा श्रीकृष्ण को उनकी मुरली लौटा दी। श्रीकृष्ण ने भी राधा को उनका दर्पण और उज्ज्वल क्रीड़ा-कमल दे दिया। उनके केशों की सुन्दर वेणी बाँध दी और भालदेश में सिन्दूर का तिलक लगाया। विचित्र पत्र -रचना से युक्त सुन्दर वेष सँवारा । उन्होंने जैसी वेष- रचना की, उसे विश्वकर्मा भी नहीं जानते हैं; फिर सखियों की तो बात ही क्या है ? जब राधा श्रीकृष्ण की वेष- रचना करने को उद्यत हुईं, तब वे किशोरावस्था का रूप त्यागकर पुनः शिशुरूप हो गये । राधा ने देखा, बालरूप श्रीकृष्ण क्षुधा से पीड़ित हो रहे हैं । नन्द ने जैसे भयभीत अच्युत को दिया था, उसी रूप में वे इस समय दिखायी दिये । राधा व्यथित -हृदय से लंबी साँस खींचकर इधर-उधर उस नव-तरुण श्रीकृष्ण को देखने और ढूँढ़ने लगीं। वे शोक से पीड़ित और विरह से व्याकुल हो उठीं।

उन्होंने कातरभाव से श्रीकृष्ण के उद्देश्य से यह दीनतापूर्ण बात कही- ‘मायेश्वर! आप अपनी इस दासी के प्रति ऐसी माया क्यों करते हैं?’

इतना कहकर राधा पृथ्वी पर गिर पड़ीं और रोने लगीं। उधर बालकृष्ण भी वहीं रो रहे थे।

इसी समय आकाशवाणी हुई — ‘राधे ! तुम क्यों रोती हो ? श्रीकृष्ण के चरणकमल का चिन्तन करो। जबतक रासमण्डल की आयोजना नहीं होती, तब तक प्रतिदिन रात में तुम यहाँ आओगी। अपने घर में अपनी छाया छोड़कर स्वयं यहाँ उपस्थित हो तुम श्रीहरि के साथ नित्य मनोवाञ्छित क्रीड़ा करोगी। अतः रोओ मत । शोक छोड़ो और अपने इन बालरूपधारी प्राणेश्वर मायापति को गोद में लेकर घर को जाओ । ‘

जब आकाशवाणी ने सुन्दरी राधा को इस प्रकार आश्वासन दिया, तब उसकी बात सुनकर राधा ने बालक को गोद में उठा लिया और पूर्वोक्त पुष्पोद्यान, वन तथा उत्तम रत्नमण्डप की ओर पुनः दृष्टिपात किया । इसके बाद राधा वृन्दावन से तुरंत नन्द-मन्दिर की ओर चल दीं। नारद! वे देवी मन के समान तीव्र गति से चलनेवाली थीं। अतः आधे निमेष में वहाँ जा पहुँचीं। उनकी वाणी स्निग्ध एवं मधुर थी। आँखें लाल हो गयी थीं ।

वे यशोदाजी की गोद में उस बालक को देने के लिये उद्यत हो इस प्रकार बोलीं — ‘मैया ! व्रज में आपके स्वामी ने मुझे यह बालक घर पहुँचाने के लिये दिया था। भूख से आतुर होकर रोते हुए इस स्थूलकाय शिशु को लेकर मैं रास्तेभर यातना भोग रही हूँ। मेरा भीगा हुआ वस्त्र इस बच्चे के शरीर में सट गया है। आकाश बादलों से घिरा हुआ है । अत्यन्त दुर्दिन हो रहा है, मार्ग में फिसलन हो रही है। कीच-काच बढ़ गयी है । यशोदाजी ! अब मैं इस बालक का बोझ ढोने में असमर्थ हो गयी हूँ। भद्रे ! इसे गोद में ले लो और स्तन देकर शान्त करो। मैंने बड़ी देर से घर छोड़ रखा है; अतः जाती हूँ। सती यशोदे ! तुम सुखी रहो ।’

ऐसा कह बालक देकर राधा अपने घर को चली गयीं । यशोदा ने बालक को घर में ले जाकर चूमा और स्तन पिलाया। राधा अपने घर में रहकर बाह्यरूप से गृहकर्म में तत्पर दिखायी देती थीं; परंतु प्रतिदिन रात में वहाँ वृन्दावन में जाकर श्रीहरि के साथ क्रीड़ा करती थीं ।

वत्स नारद! इस प्रकार मैंने तुमसे शुभद, सुखद तथा मोक्षदायक पुण्यमय श्रीकृष्णचरित्र कहा । अब अन्य लीलाओं का वर्णन करता हूँ, सुनो।      (अध्याय १५ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे राधाकृष्णविवाहनवसंगमप्रस्तावो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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